Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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उम्र का दुख

 

दुख ऐसे जला देता है
जैसे घास-फूस को आग
दर्द खुद को बर्दाश्त करना पड़ता है
चाह कर भी कोई नही बांट सकता है
जीवन युद्ध की दहकती त्रासदी है दुख
दुख का निवाला इंसां बन ही जाता है
दुख से उबर कर आदमी बनता है
जनसेवी जुझारू और कर्तव्यपरायण
परन्तु दुख सहने की उम्र होती है
उम्र के आखिरी पड़ाव में
जीवन का नरक बन जाता है दुख
लोग फेर लेते है आंखे
दुख रौद देता है जीवन का रूख
कर्तवयपरायण शूरवीर टूट जाता है
बिखर जाता है उम्र के दुख से
यही दुख चैन से जीने नही देता
आखिरी पड़ाव में पिता का दुख
सुरसा की तरह लगने लगता है
पिता का दुख अकाट्य होने लगता है
‘ शनै-शनै
और मन व्याकुल तन निर्जीव जैसे
परदेस में बेटा जीये तो जीये कैसे
पिता दुख से जूझ रहे होते
परदेस में बेटा घर-गृहस्ती
और रोटी-रोजी के लिये
दुख का प्रहार कैसा दर्द है
जहां खून का रिश्ता भी
राह ताकता है
जहां खनकता सिक्का वजनी हो जाता है
खून के रिश्ते से भी भारी
और आदमी बेबस सा अपनो से दूर
दर्द का विषपान करते हुए
उम्र गंवाता चला जाता है

 

 


डां नन्दलाल भारती

 

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