Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बेनकाब

 
कविता ; बेनकाब
हमदर्द कह देना और होने मे 
फर्क है बाबू
उतना जितना अमृत और विष मे
सच और झूठ मे, रात और दिन में
मित्र और दुश्मन में
हमदर्दी का खिजाब लहरा देना
मीठा जहर है बाबू......... 
मत बनो हमदर्द मत दो
खुद के ईमान को गाली
हमदर्दी का ना रचो स्वांग
सच्चे रहो झूठे वादे का
ना करो ऐलान
हमदर्द बनते हो तो निभाना सीखो बाबूजी........ 
मत आओ किसी के काम
झूठे हमदर्द बनकर उम्मीद के
रास्ते तो ना बन्द करो
जानते हुए तुम्हारे मीठे जहर से
कितनी उम्मीदे मर जाती है
झूठे हमदर्द बनकर रोशनी 
ना  छिना करो बाबूजी....... 
तुम मीठबोलवा बनकर
खुद के अच्छे होने का तम्बू
मत ताना करो
जानते हो तुम्हारे झूठी तान से
कितनी उम्मीदे बनती है
तुम्हारे नकार देने से
कितनी मायूसी चिढाने लगती है
सच कहूं तो तुम नरपिशाच जैसे
लगते हो बाबूजी........ 
मत बांधो शेखी के पुल
ना बनो अच्छे होने का वादा
ना बनो आदमियत के खेवनहार
तुम प्रान्त भ्रान्ति में फंसे 
कुये के दादूर तुम क्या जानो
हमदर्दी की आन
तुम्हें तो बस मतलब सेकने आता है
तुम्हे तुम्हारी कसम
ना पहनना झूठ फरेब का ताज
ना माने तो जनता चौराहे पर
कर देगी बेनकाब बाबूजी............ 
डां नन्दलाल भारती
19/11/2019


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