कविता: देश पुकार रहा।
आह क्या षणयन्त्र है
राजनीति की नंगी आंखें भी
अब नहीं देख पाती
कचरे से रोटी तलाशते,भीख मांगते बच्चे
भूखे-प्यासे कचरा छानते लोग भी
रोजी रोटी के लिए दर-दर भटकते लोग
रोटी, कपड़ा और छांव को तरसते लोग
सरकारें कुछ अनाज और
तनिक खैरात बांटकर कर लेती है
गरीबी उन्मूलन का तर्पण
भरमा -भरमा कर
सपनों की गठरी लूटाकर
सिंहासन मिलते ही भूल जाते हैं
गरीबी और गरीबों की दुनिया
हां कभी खैरात बांट कर
तान देते हैं विकास का तम्बू
ताकि ये गरीब लोग
ना मांग सके
शिक्षा, रोजगार और चिकित्सा की गारंटी
भूखों के बीच दाना डाल कर
राजनीति के खिलाड़ी कर लेते हैं
कुबेर की बराबरी
गरीब रह जाते हैं और गरीब
खैरात यानि करदाताओं की
गाढी कमाई के पैसों की
बंदरबांट कर
ये चतुर राजनीति के खिलाड़ी
मार देते हैं कुछ करने के जज्बात
भूखे-प्यासे ललचाई आंखों से
देख रह जाते हू गरीब लाचार
इनके लिए नहीं कोई पुख्ता रोजगार
क्या फर्क पड़ता है ?
गरीब-गरीबीपन, अछूत और अछूतपन से
राजनीति के खिलाड़ी कूटनीतिक ये
इनको चाहिए अपने माथे पर ताज
सच्चाई यही
घड़ियाली आंसू का यही राज
महंगाई की मार भयावह
जीवन अब बोझ होने लगा है गरीबों को
मेहनतकश मजबूरों के
चूल्हे गर्म होने में दिक्कते,
बहुत दिक्कतें आ रही है
सिर पर ताज लिए विचरने वालों की
आने वाली सात-सात पीढ़ियां आबाद हो रही हैं
लोकतंत्र तो था विकास का हथियार
हाय रे राजनीति का खेल,
वही बन गया है भ्रष्टाचार का औजार
अरे अपनी जहां वालों
उठो और जागो
लोकतंत्र तुम्हें गुहार रहा
सुनो सुनो देश तुम्हें पुकार रहा।
नन्दलाल भारती
१२/०८/२०२३
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