Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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स्वप्न

 
स्वप्न
हे पिता तुम तो जानते हो
अपनों से मिले दर्द की प्रसव पीड़ा
तुम को तो पता होगा
कितने दिनों से सोने का प्रयास 
फेल हो रहा  बार-बार
रात सोने की होती है, है ना पिता
शायद मेरे लिए नहीं
आलीशान बिस्तर पर भी सो नहीं पाता
कभी पुआल के बिछावन पर
आ जाती थी घोर निद्रा
भले ही कान में मुर्गा बांग दे देते
मां नाना प्रकार के दे दे प्रलोभन
बहनें बजा दे ताली और थाली
निद्रा कहां थी पूरी होने वाली
आंख मिचते उठते  और लग जाते काम में
शायद तब ना थी चिंता कोई
हां अभाव का मिजाज तब बहुत सख्त था
आज अभाव दूर है
जरुरत के हर औजार हाजिर है
हे पिता अब चैन दूर बहुत दूर हो चला है
अपनों के बीच अब मोहब्बत का अभाव है
बड़े बुजुर्गों का ना अब कोई प्रभाव है
निरीह प्राणी अनुपयोगी सामान हो गये हैं 
ना मान बचा है ना सम्मान
भाई भाई आमने-सामने लेकर दम्भ की खंजर
ब़जर दिल बहुये कहती हैं
बूढ़े बूढ़ी को रोटी थापने की मशीन नहीं 
ये निरीह जीव कोने में बैठे
कबाड़ के सामान सरीखे हो गये हैं 
रात भर यही सोचता रहा 
कहां कौन सी त्रुटि हो गई
नई पीढ़ी खुदगर्ज और बेपरवाह हो गई
बूढ़े मां बाप अश्रु गार रहे
अपने त्याग पर छाती कूट पछता रहे
ऐसा कौन सा शैतान कान भर गया 
नई पीढ़ी में सदप्रेम सदव्यहार,
सदाचार का अभाव हो गया
रात में  बार उठा बैठा कई बार 
क्योंकि दिल में
टिस उठी थी दर्द का तीर लेकर
गिरता सम्भलता रहा रात भर
आंखों में तारे उतर चुके थे
फिर  देखा तुम उतर रहे हो आसमान से
लहराते सफेद वस्त्रों में
फिर देखा मां भी तुम्हारे साथ उतर रही
हाथ फैलाए
अचानक आंखें खुल गईं
हाथ छाती पर थे और शरीर पसीना पसीना
ये कोई स्वप्न था या हकीकत
मैं नहीं समझ पाया
मैं मन ही मन बुदबुदाया 
तुम मां बाप मर कर  भी औलादों में बसते हो
बस्स इतना समझ पाया 
आज की औलादें जीवित मां बाप को,
नहीं समझ पा रहीं हैं हे पिता
हे पिता हाथ बढ़ा दो बुजुर्गों की ओर
बेपरवाह युवाओं को सद्बुद्धि दो,
 हे पिता हे पिता ।
नन्दलाल भारती
१४/०७/२०२३

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