Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बिक रहा है गांव

 

  बिक रहा है गांव

वो अपना गांव वो अपना घर

माटी की दीवार खपरैल  की छत 

दीवार के जंगले, घर मौसम अनुकूल 

ना एसी ना कुलर सब कुछ अपना देसी 

हरे-भरे खेत -शोभित खलिहान,

बांस के झुरमुट,पोखरी का किनारा 

अमवा-जमुनिया,मुंह में पनिया 

क्या-क्या सुनाऊं दास्तान ।

बारादरी जैसा बरगद  गांव की शान

छांव में बतियाते पशु-पक्षी छंहाते इंसान 

सकूं से  पगुरी करते,गैया भइसिया

कुलांचे मारते श्वान, वही सिमट रही पहचान 

मीठे गन्ने के भरे, इतराते गेहुंआ 

पवन के झोंके से सरसराते धान के खेत

चहचहाती चिड़िया, कोयलिया के गीत सुहाने 

बच्चा-बच्चा,उछाले कबेलु की टुकड़ियां 

आते -जाते खड़ा हो पोखरी के मुहाने ।

दरवाजे के बैलों की दो-चार जोड़ी 

काला हीरा भैंस पगुराती 

रम्भाती गैया दरवाजे की श्रृंगार 

नहीं बच रहा अब गांव का दैवीय उपहार।

वही गांव जहां पहले सूरज उगता 

कहते है भारत गांव में बसता 

गांव पर ग्रहण लग रहा 

वो गांव नहीं रहा अब

जातिवादी अपनी जिद पर अड़े है 

गांव की छाती पर खतरे खड़े है ।

पोखरी -तालाब गांव समाज की जमीं लूटी

हाशिए के आदमी की तड़फती नसीब फूटी।

डर बढ़ता जा रहा,शहर गांव को निगल रहा है 

सत्ताधीशों गांव की तो सुधि ले लो

गांव वालों को, गांव में रोजी-रोजगार दो

बिक रहा है गांव बचा लो ....गांव बचा लो।

नन्दलाल भारती 

१०/१०/२०२४

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