इंतजार
मैं सचमुच घबराने लगा हूं
अपनों की भीड़ में,
पराया हो गया हूं
सदियों से प्यासा हूं
ना गंगा सी निर्मलता पाता हूं
चाहतों के बाद भी,ठहर गया हूं
सचमुच मैं घबरा गया हूं
आज के दौर से,
बेखबर तो नहीं हूं
खबर मैं भी रखता हूं
अपनों की भीड़ में भी भयभीत हूं
लोगों के पूर्वाग्रह से आहत हूं
ठहरना फिदरत में नहीं मेरी
पर ठहर गया हूं
शायद भेद भरी दुनिया में,
मेरा अस्तित्व भाता नहीं
बेचैन दर्पण निहारता हूं
कहीं किसी कोने से उम्मीद पा सकूं
नहीं पाता हूं दुर्भाग्यवश
आज स्वतन्त्र देश में परतन्त्र हूं
क्योंकि आदिम जातीय रिवाजों का
कैदी होकर रह गया हूं
तरक्की के रास्ते,
विषमताओं के चक्रव्यूह से,
अवरोधित हैं आज भी
दिल पुकारता है
दीवार तोड़ दूं पर हार जाता हूं
जीवन में हर मोड़ पर जंग है
जीतना चाहता हूं हर जंग
हार और जख्म से बेखबर,
उठ जाता हूं
क्योंकि हारने का शौक नहीं
जीवन में बदलाव चाहता हूं
इसीलिए कल की इंतजार में,
आज ही खुश हो जाता हूं।
नन्दलाल भारती
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