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कैसे बचेगा गांव

 

कविता: कैसे बचेगा गांव।

याद है और रहेगा  गांव

आजादी अपने संविधान का सपना 

पूरा हुआ पर अधूरा रह गया विकास का सपना 

आज भी गांव से दूर बहुत दूर रोजगार 

गांव वही स्वर्ग से सुन्दर था जो

अब भी खैनी मलते, धुआं उगलते 

महामारी जैसा फैलता मदिरा दुकानों का प्रकोप 

उजड़ते गांव की दहलीज पर जश्न मना रहे लोग

सरकारों को कहां चिन्ता रोजी-रोजगार की

चिन्ताग्रस्त सफेदपोश लोग, खुद की खुर्सी 

खुद के विकास की

आजाद देश के गांव की मजबूरी 

याद है गांव से  बाज़ार की दूरी 

पैदल सरपट जाने की मजबूरी 

खिस्से में कुछ खनखनाते सिक्के 

लेकर लौटते थे सिर ढेर सारा सामान 

आज सड़क पर दौड़ रही गाड़ी है 

भूल गए पैदल आना -जाना, 

बंद हो गये घोड़ा-ईक्का बैल गाड़ी 

ना अब वो गांव रहे,ना गांव के लोग

चहुंओर व्यापार का चढ़ा है रोग

साहब चाय पकौड़े तलने की नसीहत देते हैं 

खुद राजा बन बैठे, लाखों करोड़ों की पोशाक पहनते हैं 

खिस्सो में छेद थाली रोज-रोज होती खाली

मुफ्त अनाज से सुधर रही हालत माली

बाज़ार सजे हैं बोर्ड टंगे हैं 

फिक्स रेट यानि मोल भाव नहीं 

आज के बाजार में बड़ा अन्तर है 

सौ दो सौ में मिल जाता समान का,

हो जाता था मोलभाव 

रुपया पैसा था होता,खिस्से या मुर्री में 

नून तेल तम्बाकू,राशन समान का बोझा 

इक्का गाड़ी या लदता था सिर पर 

अब आनलाइन भुगतान, हजारों लाखों में 

समान आ जाता थैला,या डिक्की में 

लोकतंत्र राजतंत्र में बदल गया 

महंगाई चढ़ गई आसमान 

रोजी-रोजगार पर काग दृष्टि 

खण्डहर होते गांव घर -जंग खा रहे ताले 

सूना-सूना अंगना, सूना-सूना खेत-खलिहान 

ये कैसी तरक्की अब तो मजबूर,

बिकने को हैं गांव 

सरकारें बनती लंगड़ी लूंजी

रोजगार नहीं पहुंचते गांव 

गांव की भीड़ शहरों की ओर 

जहां अटके रोजी-रोजगार 

सरकारें धर्म की अफीम बांटती

रामराज के सपने दिखाती 

कोरे सपने कोरे लगते विकास 

शिक्षा महंगी, महंगाई अमर तोड़ती 

ना गांव में रोजी-रोजगार का ठिकान

बूढ़ों से की कराह से चिखता चिल्लाता गांव 

गांव धन्नासेठों की राडार पर,

कैसे बचेगा गांव. ‌‌.... कैसे बचेगा गांव।

नन्दलाल भारती

०१/०१/२०२४

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