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Dr. Srimati Tara Singh
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मुर्दहिया

 

मुर्दहिया


देश की आजादी गोल्डन जुबली की ओर  रही थी l आरक्षण ऊंट के मुँह मे जीरा साबित हो चुका तो था  परतु  गिद्ध निगाहें नोंचने की फिराक में थी l बेरोजगारी की हालात बहुत ख़राब थी l सुनने में यह भी आ रहा था कि खेत के बदले नौकरी, जो  कान में गर्म शीशा डालने के लिए काफ़ी थी l घूसखोरी चर्म पर थी l न मल्टीनेशनल कम्पनियां न थी, न रोजगार के अवसर l सरकारी नौकारियों के दाम बहुत तेज थे l गरीब आदमी अपने बच्चे को वाज़िफा की  वैशाखी से आगे तक तो ढेल देता था परन्तु  पढ़े-लिखे कमजोर वर्ग के  लिए नौकरी ख्वाब भर थी l 
कमजोर तबके का पढ़ा-लिखा नवजवान सरकारी नौकरी की परीक्षा पास भी कर लिया तो इंटरव्यू में फेल अगर संयोगवश इंटरव्यू भी पास कर लिया तो ज्वाइन से पहले चढ़ावा, यह लाख में होता था  l सक्षम माँ-बाप रीन-कर्ज, गहना-गुरिया या खेत गिरवी रखकर चढ़ावा  या जमीन बेंचकर घूसखोरों के मुंह पर मजबूरी का झोला सौप देते थे l
भूमिहीन मजदूर बाप के बेटी-बेटों को तो नौकरी की कोई गुंजाईश नहीं थी l इनके पास देने के लिए कुछ जो न था l 
एक कहावत आम थी सोर्स इज फोरस एंड मनी इज पॉवर l गरीब भूमिहीन माँ-बाप की  औलादों के लिए वही पुरानी गुलामगिरि की मज़बूरी यानि मुर्दहिया का जीवन जीने की मजबूरी l
कुछ पढ़े-लिखे कमजोर तबके के युवा जो कुछ करना चाहते थे,जिन्हें गुलामगिरि ना  पसंद थी वे शहर की ओर भाग रहे थे कुछ अभागे तो उस रास्ते पर चल पड़ते,जो रास्ता फिर दुनिया की ओर ना मुड़े यानि आत्महत्याl वे मुर्दहिया जीवन से आत्महत्या बेहतर मान रहे थे  l दहेज़ की ज्वालामुखी तीव्रगति से मुंह बाये जा रही थी,नवविवाहिताएं ब्याह की बलिवेदी पर चढ़ या जल  रही थी l बेरोजगारों और नवबधुओं के  आत्महत्या की श्रुतियां  और खबरो के कालम  भयावह डरावने लग रहे थे  l
मिरतू का बेटे दिव्यकुमार की सोच गुलामगिरी से दूर बहुत दूर थी l  दिव्यकुमार जब पैदा हुआ था तो उसके माँ-बाप ने छठ के शुभदिन पर कलम चढ़ाया था l उस वक्त माँ-बाप बच्चे की छठ पूजा पर जिन्दा मछली, अनाज पैसा या ऐसी चीजें चढ़ाते थे ताकि बच्चा कमा-खा सके l
मिरतू औऱ उसकी पत्नी सुशीला अपने बेटे दिव्यकुमार को बचपन से ही शिक्षा के महत्व के बारे समझाते थे जबकि खुद स्कूल कभी नहीं जा पाये थे l वे  जातिवाद और गुलामगिरी के दंश से भी अवगत कराते रहते थे l  हालांकि वे कि  ठाकुर सूधनाथ की हवेली के मज़दूर थे, गुलाम थे , मुर्दहिया जीवन बसर कर रहे थे l
खेत, खलिहान से लेकर गोदाम भरने, कुंडो में गुड़ भरने  तक  की पूरी जिम्मेदारी मिरतू की   थी परन्तु  इनका छुआ रोटी-पानी जहर हो जाता था, अपवित्र हो जाता था,अछूत कौम से जो था, जबकि सदियों पहले चमार  समुदाय  के ये लोग सूर्यवंशी एवं इक्षाकु क्षत्रिय थे l
यूरेशियन और इस्लामिक आक्रमणकारियों की मिलीजुली साजिशों ने इस मातृभूमि पर बलिदान हो जाने वाले  शासक समुदाय को चमड़े के कामों और अन्य गंदे कामों में ढकेल कर अछूत बना दिया था l 
ठाकुर सूधनाथ की चौखट से बँधा खेतिहर मज़दूर था lभले ही वह अनपढ़ था पर कृषि वैज्ञानिक और मौसम वैज्ञानिक जैसा जानकार  था l उसे भेड़ा लड़ाने का शौक, तलवार बाजी का शौक, शारीरिक कलाबाजी का शौक और  कुश्ती का शौक खूब था यानि योद्धाओ के पूरे गुर पर विदेशी दुश्मनों की मिलीजुली गठजोड़ मिरतू को ही नहीं एक बहुत बड़े समुदाय और आबादी अछूत बना कर छोड़ दिया थाl आज यह वृहद समुदाय मुर्दहिया जीवन बसर कर रहा है l
ठाकुर साहब गांव के बड़े जमींदार थे, बहुत अधिक जमीन -जायदाद और  खेतों के मालिक थे l ज्यादातर जमीन कमजोर वर्ग से जबरिया हथियायी गयी थीl कुछ जमीन तो गांव समाज की थी जो गाँव के दबंगो की  बंदरबाँट मिल्कीयत  बन गयी थी l 
दबंग समुदाय  का बोलबाला  था lभूमि आवन्टन सरकारी फाईलों से कभी जमीन पर नहीं आ पाया  l भूमिहीन अछूत मिरतू के अलावा ठाकुर सूधनाथ  के कई  बारहमासी अछूत मजदूर-ननदू, गणिका,नोखई,महनतू,हुनहूनिया पकौड़ीवाले लीटाई अहीर अन्य और मजदूर थे l लीटाई मेला-ठेला में पकौड़ी बेंचकर कुछ अतिरिक्त कमाई कर लेता था  l
सूधनाथ के एक भाई भी  दूधनाथ थे l सूधनाथ राजस्व  विभाग में सरकारी नौकर थे परन्तु उनकी खुद के मज़दूरों की तायदाद अधिक  था l सूधनाथसिंग  के छोटे भाई दूधनाथसिंग  एक बहुत बड़ी  कम्पनी में जनरल मैनेजर थे l जनरल मैनेजर साहब की कृपा सजातीय लोगों पर खूब  बरस रही थी l दूधनाथसिंग की सरकारी विभाग में भी  अच्छी पकड़ थी l वे सरकारी विभाग में  कुटुंब के नवजावनों को नौकरी पर लगवाए  थे इसके अतिरिक्त  बड़ी-बड़ी कम्पनियों में अपने रिश्तेदारों और स्वजातीय बंधु-बांधवो को नौकरी पर लगवाने में माहिर  थे  l
मिरतू को ठाकुर दूधनाथ से बड़ी उम्मीद थी कि वे  बेटे दिव्यकुमार को किसी न किसी विभाग में नौकरी दिला देंगे, उसकी बरसों की गुलामगिरि का फल मिल जायेगा परन्तु सपना बहुत दूर था l
सूधनाथ का परिवार तो वैसे तो बहुत  बड़ा था परन्तु उनके चाचा का एक बेटा रविन्दर भी था जिसे जनरल मैनेजर साहब ने अच्छे  ओहदे पर चिपका दिया था  l रविन्दर ठाकुर दूधनाथ साहब  से उम्र में बहुत छोटा था परन्तु दादाओं -परदादाओ से मिले जमींदारी के अवगुण कूट-कूट कर उसमें भरे हुए थेl
रविन्दर  मज़दूरो को गुलाम समझता था l इसी अमानुष रविन्दर पर गया था सूधनाथसिंग का बेटा धनंजय जिसे गाँव वाले दबी जुबान  कंसकुंवर कहते थे l इन दोनों जूनियर दुष्ट जमींदारों से मज़दूर तो डरते थे परन्तु गाँव के दूसरे ठाकुर भी परेशान थे l 
पागल कुत्ते जैसे आचरण  वाला रविन्दर मिरतू के बेटे दिव्यकुमार को बचपन से जातीय दुश्मन मान रखा था l बचपन में बिना वजह कई बार दिव्यकुमार को पीट भी चुका था l हैवान रविन्दर ने तो गन्ने के खेत की मेड़ पर घास काटने के जुर्म में लात-मुक्के बरसाकर  दिव्यकुमार के रीढ़ की हड्डिया तक चटका चुका  था  l
स्कूल की पढ़ाई के बाद दिव्यकुमार हवेली जाना छोड़ दिया था l मिलिट्री वाले चाचा के अनुरोध पर दोनों बेटों और इकलौती बेटी,तीनों बच्चो को शाम को ट्यूशन पढ़ाने लगा  था l बड़े ठाकुर सूधनाथ का बेटा धनंजय सिंग को मज़दूर के बेटे का हवेली में पढ़ाना अच्छा नहीं  लगा l धनंजय एक दिन  अपने बदमाश दोस्तों के साथ हवेली से पढ़ाकर लौटते वक्तदिव्यकुमार को  मारने के लिए घेर लिया था l जान पर खतरा देखकर उसके माता-पिता ने  दिव्यकुमार  के हवेली पढ़ाने जाने पर रोक लगा दिया था lकहते हैं ना पानी में रहकर मगरमच्छ से दुश्मनी तो नहीं की जा सकती, वही मिरतू और उसकी पत्नी ने भी किया l ट्यूशन बंद करने के बाद कभी किसी काम से गया भी  तो बड़े ठाकुर सूधनाथसिंग  उसे कुर्सी पर बिठाते थे l 
खेतीबारी से लेकर हवेली के सभी छोटे-बड़े काम की जिम्मेदारी दिव्यकुमार के बाप  मिरतू पर थी   l सूधनाथसिंग  अपने खेतीबारी और हवेली के कामों की जिम्मेदारी भी मिरतू के कंधे पर रखकर खुद सरकारी मलाई दोनों हाथो से दूह रहे थे परन्तु सूधनाथ ठाकुर का मज़दूर नून-रोटी पर जीवन गुजार रहा था l
दिव्यकुमार के  प्राइमरी  पाठशाला  की पढ़ाई में हरिलाल मुंशी जी ने बड़ी मदद किया था, अपने घर पर  भी पढ़ाते थे l जूनियर हाईस्कूल से तो जातिवाद का भूत  पीछे पड़ गया थाl 
दिव्यकुमार ने बीए की  पढ़ाई पूरी कर शहर जाने की प्रतिज्ञा ले लिया l जूनियर हाईस्कूल,हाईस्कूल के बाद इंटरमिडिएट की भी परीक्षा पास कर लिया l हाँ यहाँ तक दिव्यकुमार को  पहुंचने में गरीबी और जातिवाद ने बहुत रुलाया था l
इंटरमिडिएट की परीक्षा पास करने के बाद दिव्यकुमार के लिए बीए की पढ एवरेस्ट पर चढ़ाई जैसा था पर लाख  मुश्किलों के बाद   कॉलेज में दाखिला ले लिया l कॉलेज गाँव से पैत्तीस किलोमीटर दूर था l जाने और आने  चार से पांच  घंटो का समय लग जाता था l कालेज में जातिवाद के नागों की भी  फुफकार  थी  l दिव्यकुमार को पढ़ाई करना ही था l 
दिव्यकुमार का बाप मिरतू मन ही मन खुश था कि बेटवा के बीए पास करते ही सूधनाथ बाबू अपने जनरल मैनेजर भाई दूधनाथ से कह  कर कहीं अच्छी नौकरी लगवा देंगे l  दूधनाथसिंग  अपने बड़े भाई सूधनाथसिंग का कहना कभी नहीं टालते थे l 
दूधनाथसिंग साहब  के गाँव आने पर मिरतू हाथ जोड़े खड़ा रहता था l मौका पाकर मिरतू भी ठाकुर दूधनाथ से बेटवा की   नौकरी की सिफारिश कर लेता था l जनरल मैनेजर  दूधनाथसिंग  के  गाँव आने पर हवेली के सामने बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ खड़ी होती  थी l हवेली का  पुराने जमाने वाला रुतबा जीवंत हो जाता था  l दूर से स्वजातीय नौकरी की सिफारिश लेकर  आते थेl ठाकुर  दूधनाथ सिंग अलग मिजाज के थे,अपने बड़े भाई सूधनाथ के कहने पर नौकरी की हाँ भरते  थे, बड़े भाई की हाँ अटल होती थी l
मिरतू ने दिव्यकुमार के दसवीं पास करते ही ठाकुर सूधनाथ  और दूधनाथ के सामने हाथ जोड़-जोड़ कर अर्जी लगाना शुरू कर दियाl इतना ही नहीं  ठाकुर दूधनाथ की पत्नी मैडम जीएम के सामने भी गुहार लगता रहता था l बारहवीं भी पास कर लिया l बी ए की परीक्षा भी दिव्यकुमार ने पास कर लिया l इस बीच वह दो बच्चों का बाप भी बन गया था l दिव्य कुमार के सिर पर जिम्मेदारी बहुत बड़ी थी पर कमाई अधेला की भी नहीं l
बीए पास करने के बाद भी नौकरी नहीं लग रही थी l दिव्यकुमार नौकरी के लिए हैरान-परेशान था l सरकारी नौकरी के लिए आवेदन तो कर रहा था पर नौकरी की कोई उम्मीद नहीं l नौकरी पाने की असली औकात भी तो ना  थी न सोर्स ना फ़ोर्स l 
बेरोजगार युवकों की आत्महत्या की नित आ रही खबरों से उसके होश उड़ रहे थे  l नौकरी को दूर भागता जानकर मिरतू बेटवा पर बड़े-बड़े तंज कसना शुरू कर दिया था l कभी -कभी माँ सुशीला भी कटुवचन उड़ेल  देती थी l दिव्यकुमार  तिलमिला उठता, उसका भी मन  दूसरे बेरोजगार युवकों की आत्महत्या से प्रभावित होने लगा परन्तु बच्चों को अनाथ और बूढ़े माँ-बाप को  और पत्नी शांति को कैसे बेसहारा छोड़ सकता था  l
बूढ़े माँ-बाप को जीते जी मारने की हिम्मत कैसे कर सकता थाl आत्महत्या पाप है, वह ऐसा अपराध नहीं करेगा, भले ही कठिन परिश्रम करना पड़े l उसने ठान लिया था कि शहर कोई  भी काम करेगा परन्तु बाबूसाहेब की हवेली या  किसी और जमींदार ठाकुर की नौकर कभी नहीं करूंगा  l
गाँव के अधिकतर गरीब तबके के युवा दिल्ली, बम्बई या कलकत्ता की ओर रुख करते हैं l दिव्यकुमार का ना दूर और ना कोई पास का रिश्तेदार बम्बई और कलकत्ता में रहता था l दिल्ली भी उसके लिए ऐसा ही शहर था l पहली बार नौकरी की तलाश में उसे घर से निकलना था l उसे शहर जाना जरूरी हो गया l दिव्यकुमार खेती को भी व्यापार बना सकता था l वह हाईस्कूल एग्रीकल्चर से पास किया था परन्तु घर के अलावा ज़मीन भी तो नहीं थी l दरवाजे के सामने ही तो ठाकुर का खेत था l पेशाब करने के लिए भी ठाकुर का खेत l हाँ किसी ज़माने उसकी दादा-परदादा की भी बड़ी ज़मीन -जायदाद थी  परन्तु आक्रमणकारी दुश्मनों ने सब छिन लिया था l उसका ही परिवार नहीं पूरी बस्ती के लोग गरीब भूमिहीन थे l
मरता क्या ना करता l दिव्यकुमार अपने फूफा बाबूराम  के साथ दिल्ली चला गया l वे पंजाब में नहर पर  काम करते थे l बेचारे फूफाजी अपने नजदीकी रिश्तेदार अभयदास  के यहाँ दिव्यकुमार के   रहने खाने की व्यवस्था कर पंजाब चले गए l रोटी अभयदास की घरवाली बना देती l अभय के साथ खा लेता था  और पास की लावारिस झुग्गी में रात काट लेता था l दस पंद्रह दिन में अभय और उसकी घरवाली में भयंकर झगडे शुरू हो गये l खुराकी ढाई-तीन सौ महीना बनती थी, दिव्यकुमार के पास तीन रुपये भी नहीं l 
दिव्यकुमार नौकरी के लिए वजीरपुर, जहाँगीरपुरी, आज़ादपुर, प्रतापबाग पैदल-पैदल नाप  रहा था l नौकरी थी कि दूर भाग रही थी l बहुत तकलीफ में दिन काट रहा था l आज़ादपुर मंडी में सेव की पेटी बनाया, सिर पर ढोया, लोहा की फैक्ट्री में कोयला ढोया, फैक्ट्री में तेजाब से आलपिन साफ किया ,आलपिन -यू पिन की तेजाब निकिल-पालिश का काम  हाथ से किया l टेलीविजन की फैक्ट्री में पंद्रह रुपया रोजहाई पर मजदूरी किया, बुकसेलर किया पर पैसा कमाया खोराकी दिया l सौ पच्चास  बच जाता तो पिताजी को मनिआर्डर कर देता l इसी संघर्ष के बीच दिव्यकुमार ने एक प्रोफेशनल स्किल ट्रेनिंग ले लिया l
नौकरी का कोई ठिकाना न था छूटती खोजता, करता यही सिलसिला चल रहा था l इसी बीच ठाकुर दूधनाथ सिंह, जनरल मैनेजर के आवास पर पिता मिरतू के भेजे दिल्ली के पते पर  जाना हुआ ले
सम्भवतः दिव्य कुमार के पिताजी का रुदन ठाकुर  सूधनाथसिंग  ने  अपने छोटे भाई जनरल मैनेजर,ठाकुर दूधनाथ को पहुँचा दिया था ले lदिव्यकुमार  दिल्ली में पांच साल सी नारकीय जीवन जी रहा  था l वह  साल भर जनरल मैनेजर साहब के बँगले और दफ्तर का चक्कर लगाने के बाद साहब ने दिव्यकुमार को ग्वालियर कार्यालय भेज दिया l दिल्ली के संघर्ष दिनों के बीच दिव्यकुमार ने प्रोफेशनल स्किल ट्रेनिंग कर लिया था , जो काम  आ गया l ग्वालियर आफिस पहुंचने पर उसे पता चला की यह नौकरी दैनिक है l उसके फिर वही ढाक के तीन पात l वहां भी आंतरिक जातिवाद जड़े गहरी थी  l गैर हिन्दू धर्मावलम्बी, अहिंसक धर्म के राही ब्रांच मैनेजर  तो जातिवाद के समर्थक थे  l
दिव्यकुमार को दैनिक नौकरी करने की मजबूरी थी l आगे मौत पीछे खाई जो थी l नौकरी शुरू करने के  छः महीना बाद ही जीएम साहेब के बड़े बेटे चमननाथ की शादी पड़ गयी l ब्रांच मैनेजर ने दिव्यकुमार को शादी मे हाजिर होने का आदेश सुना दिया l जाये तो मुसीबत ना जाये तो और बड़ी ? 
दिव्यकुमार भोपाल शादी मे गया l उसने अपने रुकने की व्यवस्था एक लाज में कर लिया l जैसे ही जनरल मैनेजर साहब दूधनाथ सिंह के निवास पर पहुंचा, वे देखते ही बोले तुम गांव वालों  साथ उसी कोठी में तुम रुको  l 
ठाकुरों और ब्राह्मणों के बीच एक अछूत मजदूर मिरतू के बेटे  दिव्यकुमार का  रुकना बिच्छुओं के झुण्ड के बीच रहने जैसा था l बहुत तकलीफ यहां रुकना रहा, ना खाना ना पानी, खाली दिन और रात बीती l 
सुबह एक निर्मित बंगले के हौद के पानी से नहाने लगा तो वहाँ से भगा दिया गया, नसीब में कौआ स्नान l पीने का पानी भी नहीं l उस समय बोतलबंद पानी बाजार में उपलब्ध नहीं  था l कोसों दूर तक कोई दुकान नहीं थी l लाज का किराया फोकट में चला गया l
बारात में खाना खाते समय ठाकुर रविन्दरनाथ की निगाह दिव्यकुमार पर रुक गयीl वह इशारे से दिव्यकुमार को कई बार  बुलायाl दिव्यकुमार फोर्थ कटेगरी के लोगों के साथ o खा रहा था  l बार-बार के इशारे पर बुलाने के बाद  आखिरकार वह खाना छोड़कर गयाl रविन्दर उसे एक ओर ले जाकर भद्दी-भद्दी  गालियां देने लगाl आखिर में बोला भाग भोसड़ी वाले, यहां से तू गांव वालों से मेरा हुक्का पानी बंद करवाएगा l शादी का जलसा था, जनरल मैनेजर दूधनाथ का ख्याल रखते हुए, वह कुछ नहीं बोला l धीरे से प्लेट उठाया और  प्लेट डस्टबिन में  रखकर चला गया और  भोपाल से वापसी की ट्रेन पकड़ लिया  l
दैनिक वेतन पर नौकरी करते हुए दो साल बीत चुके थे परन्तु स्थायी होने की उम्मीद भी नहीं दिखाई दे रही थी, दिव्यकुमार के साथ सवर्ण दैनिक वेतनभोगियों की नौकरी तीन से छः महीने में पक्की हो गयी थी l 
दफ्तर के कुछ सवर्ण कहते, यह सहकारी कम्पनी है, यहां  रिजर्व कटेगरी वालों को नौकरी नहीं मिलती l दिव्यकुमार को भी कम्पनी में तीन  साल बेकार करने का पछतावा हो रहा था पर मजबूरी आदमी से क्या न करवा ले l नौकरी पक्की होना तो दूर दिव्यकुमार को कम्पनी से निकाल दिया गया, फिर संघर्ष शुरू, इसी दौरान जनरल मैनेजर साहब ठाकुर दूधनाथ की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई l 
आठ साल की लम्बी बेरोजगारी और उत्पीड़न  और संघर्ष के बाद दिव्यकुमार को इंदौर शहर में नौकरी मिल तो गई पर ठाकुर साहब का एहसान नहीं रहा l जिस बेटवा की नौकरी की उम्मीद लगाए मिरतू ठाकुर सूधनाथ का हल जोतते बूढ़े हो  गये आख़िरकार उसकी उम्मीदों का क़त्ल हो गया l
दिव्यकुमार की माँ सुशीला  बड़ी आशा लिए चल बसी पर बेटवा को अफसर के रुप में नहीं देख पायी l दिव्यकुमार अथक परिश्रम, शिक्षा और कौशल  शिक्षा की बदौलत अफसर तो बन गया जो मिरतू के लिए जीते जी स्वर्ग के सुख जैसा था l दिव्यकुमार अपनी  माँ की ख्वाहिशे नहीं पूरी कर पाया परन्तु बाप मिरतू की इच्छानुसार बड़ा पक्का घर, मुख्य द्वार पर हवेली जैसा गोल्डनकलर का गेट लग गया  l
मिरतू के दोनों बेटों दिव्यकुमार और दिनेशकुमार के बेटे-बेटियां  शहर के अच्छे-अच्छे कालेजों में पढ़ने लगे l दिव्यकुमार और उसकी पत्नी शांति  दिनेशकुमार, उसकी पत्नी कुटिला के संरक्षक भी बनना पड़ा l
मिरतू अफसर बेटवा की तरक्की और भाई दिनेश कुमार से लगाव पर बहुत खुश था  l शांति तो दिव्यकुमार से आगे थी वह देवर के अबोध बच्चे अवधेश को शहर ले आई l दिव्यकुमार के तीनो बच्चों-लवकुमार,कुश कुमार और बिटिया गौरी के साथ अवधेश भी पढ़ने लगा l शांति को  अपने परिवार पर बड़ा गुमान था वह कहती मेरा देवर मेरे बेटे जैसा है, मै उसके परिवार को  भी अपने परिवार के बराबर खड़ा करूंगी l शांति ने जो कहा करके दिखाया भी l 
दूधनाथ साहब का परिवार तो शहर में ही रहता थाl साहब की मौत के बाद  बड़े ठाकुर सूधनाथ भी चल  बसेl पूरी हवेली शहर की ओर भागने लगी l हवेली की ज़मीन-जायदाद बिकने लगी l हाईवे के इधर-उधर के खेत अधिया-तीसरी पर दिए जाने लगे l मिरतू भी पहुंचा वह बोला धनंजय बाबू( सूधनाथ के बेटे धनंजय बाबू की हरकतों की वजह से गांव वाले  दबी जुबान कंसकुमार कहते थे ) दस बीसा  खेत मुझे भी अधिया-टिकुरी पर दे देते तो बाबू सूधनाथ का रिश्ता मेरे साथ बना  रहता l कंस तो कंस ठहरा,बूढ़े मिरतू का पूरे गाँव वालों  के सामने बहुत बेइज्जती कर दिया  l
बूढ़ा मिरतू गुस्से में लाल हो गया l मिरतू  किसी की न बेइज्जती करता था, न करने देता न उसे बेइज्जती बर्दास्त थी,पूरा गांव जानता था l
वह बोला अरे वो कंस तू सूधनाथ की औलाद न होता तो तुमको छठी का दूध याद दिला देता l अभी बूढी हड्डियों में जोर है l तू जानता है तू अपनी माँ से पहले मेरी पत्नी का दूध पीया है l खैर तू क्या जाने मेरी घरवाली ने तेरी नाल काटी है l दूध की कीमत क्या होती है तुम्हें क्या पता जमींदार की औलाद ?
मिरतू केहूनी अशोक के पेड़ पर मारते हुए  बोला चुपचाप बस मेरी बात  सुन l तुमने मेरी ही बेइज्जती नहीं किये हो, अपने बाप को भी गाली दिए हो l
तू कह रहा है कि अब मेरा बेटा अफसर है, मुझे खेत की क्या जरूरत? ठीक है l नहीं है l तुम कह रहे हो मैं  तुमको नौकरी देने लायक हूँl ठीक है आ जाना l
आज तुमने बुढ़ौती में  पूरे गाँव के सामने मेरी बेइज्जती किया है  l दूधनाथ बाबू के बेटे के ब्याह में तुम्हारे चाचा रविन्दर ने खाने की पंगत से उठाकर गालियां देकर भगा दिया क्योंकि मजदूर का बेटा चमार थाl भरी बारात के सामने मेरे बेटवा के गिरे आंसू रविन्दर के नाश इबारत लिख दिए हैं l मेरी भी भी आंसू यही कह रहेl नाश निश्चित है, लिख लो चमार की भविष्यवाणी है l
सदियों से हम हाशिये के लोगों का जीवन मुर्दहिया बनाने वाले नरपिशाच आदमियत क्या होती है तुम क्या जानो?हे भगवान तू ही न्याय कर l
धनंजय बाबू याद रखो चक्रवर्ती राजाओं के राज नहीं रहे l अंग्रेज जिनके राज में सूरज नहीं डूबता था उनका भी हाल दुनिया देख ली  है l तुम्हारी क्या औकात है?
ठाकुर धनंजय तुमको तो बद्दुआ नहीं दे सकता क्योंकि तुम्हारे खून में मेरी पत्नी का दूध शामिल है l तुम मुझे चमारिया कह रहे हो l जानते हो मैं कौन हूँ- सूर्यवंशी क्षत्रिय l विदेशी दुश्मनों ने हमारे इक्षाकु और सूर्यवंशी समुदाय को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया l सर्वनाश होगा  ससुरों का l 
करनी का फल  यहीं मिलता है बाबू l हवेली को मुर्दहिया बनने में अब देर नहीं लगेगी  l बूढ़ा मिरतू जमीं पर गिरी  आंसू को निहारते हुए  पीछे की ओर  मुड़ा और फिर कभी हवेली की तरफ नहीं देखा, धीरे-धीरे हवेली मुर्दहिया की ओर बढ़ रही थी l 
मिरतू भी उम्र की मार से कहाँ बचने वाला था, वह भी ससम्मान दुनिया से विदा हो गया  l हवेली खंडहर हो गई l हवेली की तरफ  कुत्ते भी अब नहीं झाँकते थे l जानकार कहते देखो आंसुओं  का असर  जिस  हवेली में  शोषितों की चीख  दब जाती थी l वही हवेली अब मुर्दहिया  ?
नन्दलाल भारती
31/10/2024








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