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Dr. Srimati Tara Singh
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व्यक्तित्व निर्माण में सहयक सिद्द होता है दान

 
                                                  

व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है दान
जो हम देते हैं वो ही हम पाते हैं '
दान के विषय में हम सभी जानते हैं। दान, अर्थात देने का भाव, अर्पण करने की निष्काम भावना। भारत वो देश है जहाँ कर्ण ने अपने अंतिम समय में अपना सोने का दांत ही याचक को देकर, ऋषि दधीचि ने अपनी हड्डियां दान करके और राजा हरिश्चंद्र ने विश्वमित्र को अपना पूरा राज्य दान करके विश्व में दान की वो मिसाल प्रस्तुत की जिसके समान उदाहरण आज भी इस धरती पर अन्यत्र दुर्लभ हैं।
शास्त्रों में दान चार प्रकार के बताए गए हैं , अन्न दान,औषध दान, ज्ञान दान एवं अभयदान
एवं आधुनिक परिप्रेक्ष्य में अंगदान का भी विशेष महत्व है।
दान एक ऐसा कार्य, जिसके द्वारा हम न केवल धर्म का पालन करते हैं बल्कि समाज एवं प्राणी मात्र के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन भी करते हैं।
किन्तु दान की महिमा तभी होती है जब वह निस्वार्थ भाव से किया जाता है अगर कुछ पाने की लालसा में दान किया जाए तो वह व्यापार बन जाता है ।
यहाँ समझने वाली बात यह है कि देना उतना जरूरी नहीं होता जितना कि 'देने का भाव '। अगर हम किसी को कोई वस्तु दे रहे हैं लेकिन देने का भाव अर्थात इच्छा नहीं है तो वह दान झूठा हुआ, उसका कोई अर्थ नहीं।
इसी प्रकार जब हम देते हैं और उसके पीछे कुछ पाने की भावना होती है जैसे पुण्य मिलेगा या फिर परमात्मा इसके प्रत्युत्तर में कुछ देगा, तो हमारी नजर लेने पर है देने पर नहीं तो क्या यह एक सौदा नहीं हुआ ?
दान का अर्थ होता है देने में आनंद,एक उदारता का भाव प्राणी मात्र के प्रति एक प्रेम एवं दया का भाव किन्तु जब इस भाव के पीछे कुछ पाने का स्वार्थ छिपा हो तो क्या वह दान रह जाता है ?
गीता में भी लिखा है कि कर्म करो, फल की चिंता मत करो हमारा अधिकार केवल अपने कर्म पर है उसके फल पर नहीं।
हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है यह तो संसार एवं विज्ञान का साधारण नियम है इसलिए उन्मुक्त ह्रदय से श्रद्धा पूर्वक एवं सामर्थ्य अनुसार दान एक बेहतर समाज के निर्माण के साथ साथ स्वयं हमारे भी व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध होता है और सृष्टि के नियमानुसार उसका फल तो कालांतर में निश्चित ही हमें प्राप्त होगा।
आज के परिप्रेक्ष्य में दान देने का महत्व इसलिये भी बढ़ गया है कि आधुनिकता एवं भौतिकता की अंधी दौड़ में हम लोग देना तो जैसे भूल ही गए हैं।
हर सम्बन्ध को हर रिश्ते को पहले प्रेम समर्पण त्याग सहनशीलता से दिल से सींचा जाता था लेकिन आज !
आज हमारे पास समय नहीं है क्योंकि हम सब दौड़ रहे हैं और दिल भी नहीं है क्योंकि सोचने का समय जो नहीं है !
हाँ, लेकिन हमारे पास पैसा और बुद्धि बहुत है , इसलिए अब हम लोग हर चीज़ में इन्वेस्ट अर्थात निवेश करते हैं , चाहे वे रिश्ते अथवा सम्बन्ध ही क्यों न हो ! पहले हम वस्तुओं का उपयोग करते थे और एक दूसरे से प्रेम करते थे किन्तु आज हम भौतिक वस्तुओं से प्रेम करते हैं तथा एक दूसरे का उपयोग करते हैं।
इतना ही नहीं, हम लोग निस्वार्थ भाव से देना भूल गए हैं। देंगे भी तो पहले सोच लेंगे कि मिल क्या रहा है और इसीलिए परिवार टूट रहे हैं, समाज टूट रहा है।
जब हम अपनों को उनके अधिकार ही नहीं दे पाते तो समाज को दान कैसे दे पाएंगे ?
अगर दान देने के वैज्ञानिक पक्ष को हम समझें,
जब हम किसी को कोई वस्तु देते हैं तो उस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं रह जाता, वह वस्तु पाने वाले के आधिपत्य में आ जाती है । अत: देने की इस क्रिया से हम कुछ हद तक अपने मोह पर विजय प्राप्त करने की कोशिश करते हैं ।
दान देना हमारे विचारों एवं हमारे व्यक्तित्व पर एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालती है इसलिए हमारी संस्कृति हमें बचपन से ही देना सिखाती है न कि लेना ।
हर भारतीय घर में दान को दैनिक कर्तव्यों में ही शामिल करके इसे एक परम्परा का ऐसा स्वरूप दिया गया है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हमारे बच्चों में संस्कारों के रूप में शामिल हैं जैसे भोजन पकाते समय पहली रोटी गाय को, आखिरी रोटी कुत्ते को , चिड़ियों को दाना आदि।
यह कार्य हमें अपने बच्चों के हाथों से करवाना चाहिए ताकि उनमें यह संस्कार बचपन से ही आ जांए और खेल खेल में ही सही वे देने के सुख को अनुभव करें । यह एक छोटा सा कदम कालांतर में हमारे बच्चों के व्यक्तित्व एवं उनकी सोच में एक सकारात्मक परिणाम देने वाला सिद्ध होगा।
दान धन का ही हो , यह कतई आवश्यक नहीं , भूखे को रोटी , बीमार का उपचार , किसी व्यथित व्यक्ति को अपना समय, उचित परामर्श , आवश्यकतानुसार वस्त्र , सहयोग , विद्या यह सभी जब हम सामने वाले की आवश्यकता को समझते हुए देते हैं और बदले में कुछ पाने की अपेक्षा नहीं करते , यह सब दान ही है ।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि परहित के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने के समान कोई पाप नहीं है।
दानों में विद्या का दान सर्वश्रेष्ठ दान होता है क्योंकि उसे न तो कोई चुरा सकता है और न ही वह समाप्त होती है बल्कि कालांतर में विद्या बढ़ती ही है और एक व्यक्ति को शिक्षित करने से हम उसे भविष्य में दान देने लायक एक ऐसा नागरिक बना देते हैं जो समाज को सहारा प्रदान करे न कि समाज पर निर्भर रहे ।
इसी प्रकार आज के परिप्रेक्ष्य में रक्त एवं अंगदान समाज की जरूरत है।जो दान किसी जीव के जीवन के प्राणों की रक्षा करे उससे उत्तम और क्या हो सकता है ?
देना तो हमें प्रकृति रोज सिखाती है , सूर्य अपनी रोशनी, फूल अपनी खुशबू , पेड़ अपने फल,नदियाँ अपनी जल, धरती अपना सीना छलनी करि कर भी दोनों हाथों से हम पर अपनी फसल लुटाती है।
न तो सूर्य की रोशनी कम हुई ,न फूलों की खुशबू , न पेड़ों के फल कम हुए न नदियों का जल, अत: दान एक हाथ से देने पर अनेकों हाथों से लौटकर हमारे ही पास वापस आता बस शर्त यह है कि निस्वार्थ भाव से श्रद्धा पूर्वक समाज की भलाई के लिए किया जाए । आचार्य विनोबा भावे भी कहते थे कि दान का अर्थ फेंकना नहीं बोना होता है।
डॉ नीलम महेंद्र
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार है)
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                           नोट :-उपरोक्त लेख डॉ नीलम महेंद्र के २०१६ पूर्वप्रकाशित लेख का अपडेट वर्जिन है                        

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