Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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लिख देती हूँ

 

मन जब रोता है !
तोड़ देती हूँ रीत !
लिख देती हूँ ,
ख़ुशी का गीत !



लिखना ज़ुरूरी है !
दिखना ज़ुरूरी है !

 

कौन रूठों को
अब मनाता है ?



आप लिखें वेदना
और... बिचारा पाठक
वाह -वाह कर जाता है !
दोष उसका नहीं ,वो
शिष्टाचार निभाता है !

 

कोई अशिष्ट नहीं ,
मेरे आसपास !
पर सभी अज़नबी
न मोह ,न आस !

 

भीड़ में हूँ
मगर हूँ तो तन्हा
घर में रहूँ
या यहाँ वहां

 

ख़ुशी बंट जाती है
यूँ ही हंस-हंस
गम कौन लेता है
दो तो ख़ुशी बस

 

मै मनाती हूँ, अब
दर्द का उत्सव
दीवारें चुप रहेंगी !

 

कान होते हैं
बिना मुहं के
वे कैसे कहेंगी ?

 

घर मुझे अक्सर
समझाता है
मुझे कुछ -कुछ
समझ आता है

 

जिन्हें तुम बेजान
कहते हो
वो सब चीज़ें बोलती हैं
बात करती हैं _____
जब रोती हूँ ,तब
भीगता है तकिया
बंद हो जाता है
दरवाज़ा !
नहीं हिलते परदे !
चूल्हा नहीं जलता !
संगीत सिसकता है !
पौधे तब मुझसे
नहीं मांगते पानी !

 

ये दरो दीवार
आह भरते हैं
वाह -वाह नही करते !
तुम जीवंत ये निर्जीव !

 

वेदना को अब सहारा नहीं ,
एक माकूल जगह चाहिए ?

 

 

_______________________ डॉ.प्रतिभा स्वाति

 

 

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