मित्रों ग्रामीण समाज की व्यथा घनाक्षरी में प्रस्तुत है ।
खेत खलिहान डूबे, बारिश फुहार छूटे,
भूख से बेहाल देखो, आज दिखे सारे लोग।
काकी को पुकारे पुत्र, काका दुलरावैं खूब,
दाने-दाने तरसते, वृद्ध महतारी रोग ।
मौन ताई देख रही, निज घर द्वार को है,
छोड़ छोड़ जा रहे हैं, अपना व्यापार जोग।
बारिश फुहार पड़े, सीने में अंगार जैसे,
ताऊ ने संसार छोड़ा ,छोड़ा है संसारी भोग ।
लॉक डाउन करते, कोरोना संग सहते ।
हुआ है बाजार बंद , दुखी हैं व्यापारी लोग ।
भूख प्यास सहते हैं, पैदल ही चलते हैं,
पुलिस से डरते हैं, ग्राम नर-नारी लोग।
मौसम की रेल पेल, बेगारी को झेल झेल।
बाल बच्चे संग लिये, चले घर-बारी लोग ।
घर द्वार छोड़ छोड़ , शहर में जोड़ जोड़,
भूले मातृभूमि को है, सब सर्वहारी लोग।
डॉ० प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, "प्रेम"
लखनऊ
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