Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पिता का हम करें सम्मान

 
विषय- पिता का यदि हम करें सम्मान,       वृद्धा आश्रम की ना होगी पहचान।

 विधा -कहानी,

 अंबर जी हमारे परम मित्र हैं। हम और वो तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे।यात्रा लंबी था, मौन रहकर यात्रा करना संभव नही  था ।अंबर जी हमेशा से विवेकी और वाचाल रहे  हैं।उनका सानिध्य हमेशा आनंददायक होता है ।उन्होंने यात्रा के आनंद में वृद्धि करते हुए एक रोचक प्रसंग छेड़ दिया, और ,हमारी यात्रा को अविस्मरणीय बना दिया।

 अंबर जी -प्रवीण जी घाघ कवि ने कहा है। 
"बाढ़े पुत्र पिता के धरमें।
 खेती उपजे अपने करमें। "

अर्थात,पिता द्वारा किए हुए धर्मा चरण का प्रभाव संतति पर अवश्य पड़ता है, और कृषि के लिए पुरुषार्थ आवश्यक है ।
प्रवीण जी -जी हां, अंबर जी ,पिता के द्वैत अद्वैत आचरण का प्रभाव संतति पर वैसे ही पड़ता है, जैसे ,कोई पुत्र कंजूस व कोई उदार प्रकृति का होता है ।

अंबर जी -पिता की तुलना त्रिदेवों से की गई है ।उन्हें परमपिता कहा गया है।

 प्रवीण जी -मित्र, पिता हमारे जन्म से लेकर पालन पोषण ,मृत्यु तक साक्षी होते हैं ।और  हमें उन्हें कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए ।

अंबर जी -मित्र ,पिता को आकाश तुल्य विशाल हृदय वाला एवं माता को पृथ्वी सदृश्य सहनशील कहा गया है।


 प्रवीण जी -मित्र, मेरे विचार में द्वैत-अद्वैत वाद के प्रेरणा स्रोत अवश्य  पिता रहे होंगे ।तभी, ऋषि-मुनियों ने अद्वैतवाद से ईश्वर को पहचाना ।
माता- पिता ,हमारे जीवन में त्याग ही त्याग करते हैं ।अपने सुख को संतान के हित में त्याग कर ,संतान का पालन पोषण करते हैं। जब यही संतान बड़ी होकर अपने माता-पिता का सम्मान ना करके कहती है ,कि, आपने ,अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है ।आपने कोई एहसान नहीं किया है ।तब वास्तव में  हमारे जीवन में अच्छे संस्कारों की अचानक कमी प्रकट होती है।तब, अत्यंत दुख व  ग्लानि से हमारा हृदय भर उठता है ।

प्रवीण जी- मित्र ,आधुनिकता की होड़ में ,हम अपने संस्कारों को पिछड़ा व अंध विश्वास मानकर, उन्हें त्याग देते हैं। विज्ञान की अंधी दौड़ में अपने धार्मिक संस्कारों को त्यागकर कर नास्तिक बन जाते हैं।तब, माता पिता पर विश्वास समाप्त हो जाता है ,और पशुवत संस्कृति का उदय होता है।

 अंबर जी -पिता का दृढ़ निश्चय ,पुत्र का आत्म बल होता है ।संकट के समय वृद्ध होते हुए   पिता ,सुरक्षा की दीवार बनकर खड़ा होता है ।पुत्र कितना  बड़ा क्यों ना हो , पिता का सदैव ऋणी होना चाहिये।

 प्रवीण जी -एक कहावत है, मुझे मां  बचपन में सुनाया करती थी। वह संक्षेप में सुनाता हूं ।पिता एक विशाल कूप के सदृश होते हैं, जो छोटे-छोटे कूपों को  भर सकते हैं।किंतु, कई छोटे कूप मिल कर एक बड़ा कूप नही भर सकते।  अर्थात, माता पिता समस्त संतानों का पालन- पोषण कर सकते हैं, किंतु ,कई संताने  मिलकर एक  पिता का पालन पोषण नहीं कर सकते।

अंबर जी -माता-पिता को ,वृद्धावस्था तक अपने को आर्थिक रूप से सक्षम होना चाहिए ।

प्रवीण जी -अवश्य मित्र, महाकवि तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में एक चौपाई में कहा है ।

"उमा राम समहित जग माही,
 गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाही।
 सुर नर मुनि सब कै यह रीती, 
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।"

हमें यह नहीं भूलना चाहिए , कि,पुत्र मोह में फंसकर  वृद्ध जन अपनी समस्त उपार्जित संपत्ति पुत्र के नाम कर सकते हैं, और, पुत्र पर आजीविका  हेतु निर्भर हो सकते हैं। किन्तु, धन संपदा का आकर्षण , पुत्र व पुत्र वधू को मोह पास में बांधे रखता है। और ,निहित स्वार्थ वश, वे सास -ससुर की अवहेलना नहीं कर सकते हैं।अतः वृद्धावस्था में कुछ धन कठिन समय के लिए अवश्य संग्रह करना चाहिए।

 अंबर जी- मित्र यथार्थ तो यही है, किंतु ,एकल परिवार, आंग्ल भाषा शिक्षा का माध्यम ,आधुनिकता की दौड़, पुत्र को पिता की अवहेलना करने पर विवश करती है ,और वृद्धाश्रम की ओर संकेत करती है ।यह अत्यंत क्षोभ का विषय है।


 प्रवीण जी- यदि हम अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व करें। अपनी मातृभाषा का सम्मान करें। अपने माता-पिता का सम्मान करें, तो ,जीवन में असफलता, निराशा ,हताशा दूर होकर, पारिवारिक सुख, सामाजिक सम्मान में  कभी  कमी नहीं हो सकती।

 अंबर जी- मित्र, पिता कोई धन- संपत्ति नहीं , जिसका ऋण चुका कर ऋणी होने से बचा जाये।  पुत्र ,यदि ईश्वर की अहैतुकी कृपा है, तो, पिता इस सृष्टि का जनक है ।अतःपुत्र पिता के ऋण से कभी उऋण नहीं हो सकता।

 गंतव्य समीप आ चुका था। यात्रा बहुत मनोरंजक रही। अतः हम ने वार्ता को विराम देकर, विश्राम स्थल  की खोज प्रारंभ की,और तीर्थ स्थल का भ्रमण करने हेतु निकल पड़े। धन्यवाद।

डॉ प्रवीण कुमार श्रीवास्तव
9450022526

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