विधा-मुक्तक(लावणी छंद)
आषाढ़ केबादल
ये आषाढ़ी बादल सुंदर ,घुमड़ घुमड़ कर गरजेंगे।
धूप छांव का खेल खेल कर, उमड़ उमड़ कर बरसेंगे।
जेठ दुपहरी आग उगलती, बेचैनी है आंखों में।
काले मेघा यदि ना बरसे, मानव मन में तरसेंगे।
मेघा बरसो झूमझूम के,भर उमंग इन आंखों में ।
सुंदर सपना संजोए है ,हर किसान इन आंखों में।
भरी दुपहरी खेत जोतता, करता खून पसीना एक।
हरी-भरी हो फसल हमारी ,लह लह खेती आंखों में।
तपती धरती मेघा छाए ,झूम झूम कर बरसो रे।
तपन मिटाती उमस मिटाता,भूमि सिंचित करके रे ।
धरती की ये प्यास बुझाते, मेघा पल पल कहते हैं।
कोयल ,मोर ,पपीहा गाते, सुखमय जीवन कर दो रे।
डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, प्रेम
501,चर्च रोड, सिविल लाइंस,
निकट जीवनदास गारमेंट्स शाप
सीतापुर।261001
सचल भाष-9450022526
रचना मौलिक व अप्रकाशित है
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