लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
भारत में हजारों सालों से संचालित अमानवीय मनुवादी व्यवस्था के कारण सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से वंचित वर्गों की दशा संविधान लागू होने के 66 साल बाद भी अत्यधिक दयनीय है। संविधान निर्माताओं को इन वर्गों की विशेष चिन्ता थी। इसी कारण से इन वंचित वर्गों को अजा, अजजा एवं ओबीसी वर्गों में वर्गीकृत करके, संविधान में कुछ विशेष प्रावधान किये गये थे। जिनमें विधायिका में प्रतिनिधित्व के साथ—साथ शिक्षण संस्थानों में प्रवेश तथा सरकारी नौकरियों में चयन एवं पदोन्नति के समय पात्रता में छूट, प्रमुख प्रावधान हैं। ओबीसी की दशा इस मामले में कमतर है। उनको न तो विधायिका में और न ही पदोन्नति में आरक्षण प्राप्त है। यही नहीं ओबीसी को उनकी जनंसख्या के अनुपात से आधे से भी कम आरक्षण प्राप्त है। जानबूझकर ओबीसी में असमान पृष्ठभूमि की जातियों को शामिल करके आरक्षण को आपसी संघर्ष का आखाड़ा बना दिया गया है।
संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था के परिणामस्वरूप या इसके दुष्परिणामस्वरूप वंचित वर्गों में विशेष रूप से अजा एवं अजजा के अनेक लोग उच्च पदों तक पहुंचे हैं। अनेक वर्तमान में भी पदस्थ हैं। इस सब के बाद भी मैं अत्यधिक दुःख के साथ, यह लिखने को विवश हूं कि उच्च प्रशासनिक और निर्णायक पदों पर पदस्थ रहते हुए, आरक्षित वर्ग के अनेक अधिकारी अपने वर्ग के आहत, पीड़ित और वंचित लोगों का प्रतिनिधित्व करने की तनिक भी परवाह नहीं करते हैं। इसके विपरीत अपने वर्ग के वंचित लोगों से दूरी बनाते देखे जा सकते हैं और बकवास (BAKVaS= B-ब्राह्मण+K-क्षत्रिय+Va-वैश्य+Sसंघी) वर्ग के मनुवादियों की खुशामद करते देखे जा सकते हैं। जिसे सीधे शब्दों में चाटुकारिता और चमचागिरी की संज्ञा दी जा सकती है।
जबकि सरकारी सेवाओं में चयन हेतु पात्रता में छूट प्रदान करने का मूल मकसद वंचित वर्गों के नये सामन्त पैदा करना कदापि नहीं था, बल्कि देश में सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु कार्यपालिका में वंचित वर्गों का पर्याप्त और सशक्त प्रतिनिधित्व स्थापित करना था। जिससे कि बकवास (BAKVaS= B-ब्राह्मण+K-क्षत्रिय+Va-वैश्य+Sसंघी) वर्ग से वंचित वर्गों के हितों की रक्षा की जा सके। वंचित वर्गों के उत्थान और संरक्षण के लिये नीतियों और कानूनों का निर्माण किया जा सके। पिछले 66 वर्ष के अनुभव को देखा जाये तो संविधान की मंशा के अनुरूप वंचित वर्गों का सच्चा और सशक्त प्रतिनिधित्व स्थापित नहीं हो सका है। इस मामले में वर्तमान आरक्षण व्यवस्था असफल रही है और आरक्षण का मूल मकसद समाप्त और बेमानी हो चुका है।
आरक्षण का लाभ प्राप्त करके उच्च पदों पर पदस्थ अनेक प्रशासनिक अधिकारियों और निर्वाचित प्रतिनिधियों में अपने ही वंचित वर्ग के प्रति संवैधानिक जिम्मेदारी और संवेदनशीलता का प्राय: अभाव दिखाई दे रहा है। इसके साथ—साथ यह भी देखने और सुनने में आता रहा है कि उच्च प्रशासनिक पदों पर बिराजमान आरक्षित वर्ग के अफसरों के परिजनों और सम्बन्धियों का ही प्रशासनिक पदों पर प्रमुखता से चयन हो रहा है? मुझे यह भी जानकारी मिली है कि लिखित और मुख्य परीक्षा में तुलनात्मक रूप से अधिक अंक प्राप्त करने वाले आम आरक्षित लोगों की संतानों की तुलना में, उच्च प्रशासनिक पदों पर बिराजमान आरक्षित वर्ग के अफसरों के कम अंक लाने परिजनों और सम्बन्धियों का अन्तिम रूप से चयन हो जाता है। यदि यह सत्य नहीं भी है तो क्या इसे सिर्फ संयोग ही माना जावे कि उच्च प्रशासनिक पदों पर बिराजमान लोगों के परिवार या रिश्तेदारी में ही अतिविलक्षण प्रतिभाशाली बच्चे पैदा हो रहे हैं, जिसके चलते भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में उनका चयन अवश्य हो रहा है। यदि यह सच है तो यह आरक्षण के आधार पर प्राप्त उच्च पदस्थिति का निजी हित में भयंकर दुरूपयोग और सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु लागू आरक्षण व्यवस्था के साथ सरेआम, क्रूरतापूर्ण और बर्बर बलात्कार नहीं तो और क्या है?
अब यह तथ्य किसी से छिपा नहीं रह गया है कि आरक्षण का लाभ लेकर उच्च पदों पर पदस्थ अनेक अधिकारी ऐश-ओ-आराम की जिंदगी जीते हैं और अवैध तरीकों से अकूत धन-सम्पदा अर्जित करते हैं। जिसे अपनी भावी पीढ़ियों के लिए अक्षुण्य बनाये रखने के लिए सरकारी सेवा में रहते हुए राजनैतिक दलों से नजदीकीयां बना लेते हैं और सेवानिवृति के बाद मनुवादी राजनैतिक दलों के टिकिट पर आरखित निर्वाचन क्षेत्रों से जीतकर MP या MLA बन जाते हैं। ऐसे लोगों का अपने वर्ग के आम लोगों के दुःख-दर्द या मुसीबतों या उनके हितों या अधिकारों के संरक्षण से दूर का भी वास्ता नहीं होता है। ऐसे लोग पहले प्रशासन में रहकर और बाद में विधायिका में पहुंचकर अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति करने के साथ—साथ अपने राजनैतिक दल के आकाओं के आदेशों की पालना करने के अलावा कुछ नहीं करते हैं। इसी कारण वंचित समाज के अन्दर गहरी खाई बन चुकी है और आरक्षित वर्ग के आम लोगों में गहरा असन्तोष और गुस्सा व्याप्त है।
इन हालातों में और संविधान को लागू हुए सात दशक पूर्ण होने जा रहे हैं, तब भी क्या आरक्षित वर्ग के आम लोगों के लिये यह विशेष चिन्ता का विषय नहीं होना चाहिये कि सामाजिक न्याय की वास्तविक स्थापना कैसे हो? वंचितों के प्रेरणा स्रोत ज्योतिबा फूले, विश्वस्तरीय विधिवेत्ता और बहुमुखी प्रतिभा के धनि बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेड़कर, आदिवासी हितों के लिये समर्पित प्रतिनिधि जयपालसिंह मुण्डा और आधुनिक भारत में सामाजिक न्याय के मसीहा कांशीराम की सामाजिक न्याय की लड़ाई का क्या यही लक्ष्य था? मुझे नहीं लगता कि वर्तमान आरक्षण व्यवस्था से इन महामानवों के सपने कभी पूर्ण हो सकेंगे।
मुझे ज्ञात है कि काले धन की ताकत पर आरक्षित वर्गों के दिखावटी मसीहा बने हुए कुछ स्वार्थी पूर्व या वर्तमान प्रशासनिक अधिकारियों की ओर से मेरा और मेरे विचारों का कड़ा विरोध हो सकता है, जो अनपेक्षित और अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन उनके स्वार्थपूर्ण विचारों की परवाह किये बिना समग्र वंचित समाज के संवैधानिक हित में हमें सत्य को स्वीकार कर के, इस समस्या का अविलम्ब स्थायी और संवैधानिक समाधान खोजना ही होगा।
कुछ कथित उथले विद्वान आरक्षित वर्गों में क्रीमी लेयर लागू करके इस समस्या का समाधान करने की बात करते हैं, जिसका मैं कभी समर्थन नहीं कर सकता। क्योंकि क्रीमी लेयर संवैधानिक प्रतिनिधित्व की मूल अवधारणा को ही नेस्तनाबूद कर देती है। यद्यपि मैं स्वीकरता हूं और उक्त विवेचन से प्रमाणित भी होता है कि वर्तमान व्यवस्था में वंचित वर्गों का उचित संवैधानिक प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है। इसके बावजूद भी हम हमारे समस्त प्रतिनिधियों को शतप्रतिशित नहीं नकार सकते, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था की बदौलत ही अनेक संवेदनशील, सेवाभावी एवं जिम्मेदार अफसर और जनप्रतिनिधि, पूर्ण ईमानदारी और निष्ठा के साथ अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए वंचित वर्गों का निर्भीकतापूर्वक प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
इसके उपरान्त भी वंचित वर्ग के लिये अहितकर बन चुकी वर्तमान आरक्षण व्यवस्था का स्थायी और संवैधानिक समाधान खोजना ही होगा। बल्कि अविलम्ब खोजना होगा। इसलिये सामाजिक न्याय के लिये कार्यरत और संविधान के जानकार विद्वानों को इस बारे में गम्भीरतापूर्वक चिन्तन और मंथन करने की करने की जरूरत है। मेरे मनोमस्तिष्क में भी कुछ समाधान हैं, लेकिन उन्हें प्रस्तुत करूं उससे पहले बेहतर होगा कि इस विषय पर सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिये। जिससे मेरे विचारों से प्रभावित हुए बिना, अधिक अच्छे समाधान सामने आ सकें। अब देखना होगा कि कितने लोग वंचित समाज के प्रति चिन्तनशील हैं और कितने लोग तार्किक, संवैधानिक और समाधानकारी सुझाव प्रस्तुत करने का साहस जुटा पाते हैं?
जय भारत। जय संविधान।
नर—नारी सब एक समान।।
@—लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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