भारत में जाति-सीमा को लांघना दो राष्ट्रों की सीमाओं का लांघना है! सजा-दलित पत्नी से विवाह से आहत पति की आत्महत्या!
लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
पंजाब के संगरूर में एक 22 वर्षीय यवुक ने अपनी शादी के महज एक हफ्ते बाद केवल इस कारण आत्महत्या कर ली। क्योंकि उसे शादी के बाद पता चला कि उसकी पत्नी दलित जाति की है। पंजाब के संगरूर निवासी किसान मनप्रीत सिंह की शादी गत 21 मई, 2017 को धूमधाम से हुई थी। सुसाइड नोट से ज्ञात हुआ है कि मनप्रीत सिंह
की शादी एक बिचौलिए के माध्यम से हुई थी। जिसने उसका रिश्ता एक दलित की बेटी से करवा दिया, इस बात का खुलासा 28 मई को तब हुआ, जब मनप्रीत अपनी ससुराल गया। दलित पत्नी पाकर वह आत्मग्लानि और अपराधबोध से इस कदर व्यथित हो गया कि ससुराल से लौटकर उसने आत्महत्या कर ली।
भारत में जाति कितना महत्व रखती है। इस बात को बहुत से बुद्धिजीवी बहुत हल्के में लेते हैं। जहां एक ओर शहरी चकाचौंध में रहने वाले उच्च जातीय लोगों को जाति का कोई महत्व इस कारण नजर नहीं आता, क्योंकि घरेलू कार्यों के लिये निम्न तबके की सेवाओं के बिना उनका दैनिक ऐशोआराम का जीवन असम्भव है। वहीं दलित बुद्धिजीवी अपनी जातीय पीड़ा को हर कदम पर सहते रहने को विवश हैं। इस कारण अन्तर्जातीय विवाहों की वकालत करते समय यह भूल जाते हैं कि भारत के कट्टरपंथी जाति—समूहों में जाति की सीमा को लांघना दो राष्ट्रों की सीमाओं को लांघने के समान है। जहां जाति—सीमा लांघने के अपराध में सजा—ए—मौत दी जाती हैं। अनेक गांवों में जाति तोड़कर विवाह करने वाले युगलों को आये दिन सरेआम फांसी पर चढा दिया जाता है।
वर्तमान भारत में जाति व्यवस्था को तोड़ने और अन्तर्जातीय विवाहों की बात करने वालों के लिये मनप्रीत सिंह एक नयी चुनौती है। सांकेतिक अन्तर्जातीय विवाहों से जाति को तोड़ना असम्भव है। मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ इस बात को फिर से दौहराना चाहता हूं कि भारत में जाति की सीमा को लांघना दो राष्ट्रों की सीमाओं का लांघने के समान है। यह सामाजिक ही नहीं, धार्मिक अपराध भी माना जाता है। यहां तक की उच्च जातीय लोगों को यह भय सताता है कि निम्न जाति की लड़की से विवाह करने के कारण उनका सामाजिक बहिष्कार तो होगा ही, उनकी सन्तानों को भी समाज स्वीकार नहीं करेगा और इसके अलावा उन्हें मृत्यु के बाद इसी कारण नर्क की पीड़ाएं झेलनी पड़ सकती हैं।
इन हालातों में भारत में जाति व्यवस्था की जड़ें सामाजिक, धार्मिक और मानसिक धरातल पर इतनी गहरी और मजबूत हैं, कि उनको महज दिखावा करने के लिये या जबरन या भावनाओं में बहकर नहीं तोड़ा जा सकता है। मेरा तो ऐसा अनुभव है कि जाति तोड़ो अभियान चलाना भी जाति व्यवस्था को मजबूत करते हैं। बेहतर हो कि कथित निम्न जाति के लोग अपनी—अपनी जाति को हीनतर या कमजोर समझने के बजाय अपनी—अपनी जाति को हर एक क्षेत्र में ताकतवर बनाने के प्रयास करें। जाति की सीमाओं को तोड़ने के बजाय दिमांग में बनी दूरियों को पाटने के लिये सभी जातियों में विभिन्न प्रकार के साझा आयोजन करें। व्यवसायों में साझेदारी की जायें। जिससे भावनात्म्क और आर्थिक स्तर पर, व्यावसायिक, सामाजिक और आत्मीय सम्पर्क कायम हो सकें। अभी तक तो दलित जातियों में ही आपसी तौर पर भयंकर छुआछूत है, ऐसे में यह उम्मीद करना केवल मूर्खता ही है—उच्च जातीय लोग अपनी बेटियों के विवाह उन्हीें के द्वारा अछूत घोषित जातियों में करने लगेंगे!
कानून द्वारा भी इस प्रकार की दु:खद घटनाओं को तब तक नहीं रोका या कम नहीं किया जा सकता है, जब तक कि सभी जाति—समूहों को विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिता सहित प्रत्येक क्षेत्र में उनकी जनसंख्या के अनुपात में सहभागिता, हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व नहीं मिल जाता है। अत: जाति की बेड़ियों को तोड़कर बराबरी की काल्पनिक उम्मीद लगाये बैठे वंचित समुदायों के अगणी लोगों को निजी स्वार्थ, अहंकार, आपसी मनमुटाव और पूर्वाग्रहों को त्योगकर एकजुट होना ही होगा। जिससे वंचित जाति—समूहों को संविधान के अनुसार विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिता सहित प्रत्येक क्षेत्र में उनकी जनसंख्या के अनुपात में सहभागिता, हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व हासिल हो सके। क्योंकि समान भागीदारी के बिना कैसी आजादी और कैसा लोकतंत्र?
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