डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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वैज्ञानिकों का कहना है कि—
मनुष्य बिना भोजन खाये 40 दिन जी सकता है।
बिना पानी पिये 3 दिन जी सकता है।
बिना श्वांस लिये 8 सेकण्ड जी सकता है।
लेकिन बिना आशा के एक सेकण्ड भी नहीं जी सकता है।
यही वजह है कि मनुष्य के जीवन में आशा जरूरी है। संसार के बहुसंख्यक आम लोग अपनी अधूरी और अतृप्त इच्छाओं तथा आकांक्षाओं की तृप्ति हेतु-स्वर्ग, जन्नत, वैकुण्ठ या पुनर्जन्म की उम्मीद में जिन्दा रहते हैं। धर्म और अध्यात्म, इन लोगों की आशाओं और अतृप्त आकांक्षाओं के पुंज हैं। इन्हीं उम्मीदों के सहारे मनुष्य असाध्य बीमारियों और भयंकर विपदाओं तथा अपमानों को भी सह लेता है और ताउम्र सहता रहता है। यही वजह है कि धर्म, धर्म के नाम पर संचालित संस्कार और संस्कारों के नाम पर जारी पुरोहितों, पादरियों और मोलवियों के पाखण्ड, अन्धविश्वास और अंधश्रृद्धा उत्पादक, उत्पाद हजारों सालों से अपने-आप अर्थात् स्वत: बिक रहे हैं। जिनके कारण मनुष्य धर्मभीरू बनकर धर्माधीशों का मानसिक गुलाम बना हुआ है। जिनसे मुक्ति आसान या सामान्य बात नहीं है।
अत: जब तक बहुसंख्यक आम लोगों के गहरे अवचेतन मन में हजारों सालों से स्थापित अध्यात्मिक या धार्मिक संस्कारों और विश्वासों (जिन्हें वे अपनी आस्था कहते/मानते हैं) का उनकी दृष्टि में स्वीकार्य, सहज और सुलभ विकल्प उपलब्ध नहीं करवा दिया जाता है। अर्थात् मनुष्य के जीवन में जीवन्त आशा का संचार नहीं कर दिया जाये, तब तक (बिना किसी क्रान्ति के, जिसकी फिलहाल कोई सम्भावना नहीं) चाहे कितने भी नकारात्मक और सकारात्मक प्रयास किसे जायें, मनुष्य के गहरे अवचेतन मन में स्थापित आध्यात्म, धर्म, संस्कार तथा अन्तत: पाखण्ड और अंधश्रृद्धा से उसे मुक्त और विमुख नहीं किया जा सकता। इसलिये भारत में सामाजिक न्याय, बराबरी और क्रान्ति की बात करने वालों के लिये यह समझने वाली बात है कि आध्यात्म और धर्म अत्यधिक संवेदनशील और जमीन से जुड़े आम लोगों की भावनाओं तथा आस्थाओं से जुड़े विषय हैं। अत: हमें धर्म और अध्यात्म की कटु आलोचना करके लोगों की भावनाओं और आस्थाओं को आहत करने के बजाय, प्रारम्भ में सर्वस्वीकार्य नवीनकृत, किन्तु सरल तथा व्यावहारिक अवधारणाओं व तरीकों को ईजाद करना होगा। जिसके लिये जरूरी व्यावहारिक शिक्षा, प्रकृति की नियामतों का अहसास, प्राकृतिक जीवन का आनन्द और वैज्ञानिकता से ओतप्रोत बुद्ध के जीवन्त सिद्धान्तों के जरिये आम लोगों के अवचेतन मन की गहराईयों में स्थापित, कथित धार्मिक और आध्यात्मिक विचारों को परिवर्तित किया जा सके। अन्यथा हम जिन वंचित और शोषित लोगों के उत्थान और संवैधानिक अधिकारों के लिये काम कर रहे हैं, या करना चाहते हैं, वही लोग हमसे दूर और बहुत दूर चले जायेंगे। बेशक हमारा अन्तिम लक्ष्य पाखण्डों, अन्धविश्वासों और अन्धश्रृद्धा से आम और भोले-भाले लोगों को मुक्त करना/करवाना ही क्यों न हो, लेकिन प्रारम्भिक चरण में यह सहजता से उतना सम्भव नहीं है, जितना कि वर्तमान में सोशल मीडिया पर अम्बेड़करवादी बतलाते/प्रचारित करते रहते हैं। मेरी राय में यही मूल और बड़ी वजह है कि ईश्वरीय सत्ता, आध्यात्म और धर्म को नकारने वाले दलित आन्दोलन में सम्पूर्ण दलित जातियाँ तक नहीं जुड़ रही हैं। क्योंकि उनकी धार्मिक आस्थाएँ आहत होती हैं! इसी वजह से भारत के मूलवासी आदिवासी और ओबीसी के लोग भी दलित आन्दोलन में अपने-आप को असहज अनुभव करते हैं। दलित मिशन की इस धर्म और आध्यात्म विरोधी उग्र, अतिवादी और अव्यावहारिक मुहिम तथा कागजी अवधारणा का लाभ वंचित वर्ग की वर्तमान दुर्दशा के जनक पाखण्डी वर्ग ने उठाया है। जिनके स्वागत में राजनैतिक दलित नेतृत्व ने बहुजन की अवधारणा को सर्वजन बना दिया है। हाथी को गणेश बना दिया! जिनके दबाव में उत्तर प्रदेश में एट्रोसिटी एक्ट तक को सस्पेण्ड करना पड़ा! एक भी ऐसा कानून पारित नहीं किया गया जो संविधान के अनुच्छेद 13 में शून्य और असंवैधानिक घोषित प्रावधानों के बाद भी भारत में लागू अमानवीय व्यवस्था को अपराध घोषित करता हो! आखिर इससे हासिल क्या हुआ? केवल सत्ता! ऐसी सत्ता जो परम्परागत ढर्रे पर ही चलती रही और कुछ लोगों को मालामाल करती करती रही है! जो कुछ लोगों को इतनी ताकतवर बना देती है, वे संविधान को धता बताकर, सवर्ण गरीबों का आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करने का दुस्साहस जुटा सकें। क्या यही है—अम्बेड़करवाद?
नोट : आप मेरे विचारों से सहमत हो यह जरूरी नहीं, लेकिन मैं दूसरों के स्वार्थों की पूर्ति के लिये लिखूं, यह सम्भव नहीं।
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