डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
15 जून को आधुनिक पाीढी का फादर्स-डे अर्थात् पितृदिवस है। बहुत सारी दुकानें पिताओं को दिये जाने वाले रंग-बिरंगे सुन्दर तथा आकार्षक कार्ड्स से सजी हुई हैं। दुकानों पर पिता की पसीने की कमाई से खरीदे गये ब्राण्डेड चमचमाते कपड़ों में सजे-धजे युवक-युवतियां अपने पिता को एक कागज का रंगीन टुकड़ा (कार्ड) खरीद कर पितृभक्त बेटा या बेटी होने का प्रमाण देने या अपने पिता को ये अहसास करवाने को कि हॉं उनको अभी भी याद है कि उनका एक पिता भी है, कार्ड खरीदने में अपने बॉय फ्रेण्ड या गर्ल फ्रेण्ड या दोस्तों के साथ मशगूल दिखाई देते हैं।
पहला दृश्य : बुढ्ढे लोग फादर्स डे की इम्पार्टेंस क्या जानें?
लड़की का बॉय फ्रेण्ड, श्रुति तुम भी पागल हो अपने खड़ूस पिता के लिये इतना मंहगा कार्ड सिलेक्ट कर रही हो?
श्रुति, देखो बंटी कम से कम आज तो मेरे फादर को कुछ मत बोलो। माना कि मेरे फादर थोड़े कंजूस हैं, मगर तुम्हारी श्रुति को उन्होंने ही तो तुम्हारे लिये इतना बड़ा किया है।
बंटी, ठीक है जल्दी करो कोई सस्ता सा कार्ड खरीद लो वैसे भी बुढ्ढे लोग फादर्स डे की इम्पार्टेंस क्या जानें?
दूसरा दृश्य : तुम्हारे डैड ने नयी बाइक दिला दी तो फादर्स डे के कार्ड की कीमत मैं दूंगी।
मोहित, प्रीति जरा मेरी मदद करो आज फादर्स डे है, कोई ऐसा सुन्दर सा कार्ड छांटने में मेरी मदद करो, जिसे देखकर मेरे डैड खुश हो जायें और मुझे नयी बाइक के लिये रुपये दे दें।
प्रीति, फिर तो मजा आ जायेगा। यदि तुम्हारे डैड ने नयी बाइक दिला दी तो फादर्स डे के कार्ड की कीमत मैं दूंगी।
तीसरा दृश्य : जब तक कर्जा अदा ना कर दूं मेरा बीस लाख का मकान आपके यहां गिरवी रहेगा।
सेठ जी मेरे बेटे का डॉक्टरी की पढाई के लिये एडमीशन करवाना है, जिसके लिये मेरे मकान को गिरवी रख लो, मगर मुझे हर महिने बेटे को भेजने के लिये जरूरी रकम देते रहना। मैं सूद सहित आपके कर्जे की पाई-पाई अदा कर दूंगा। जब तक कर्जा अदा ना कर दूं मेरा बीस लाख का मकान आपके यहां गिरवी रहेगा।
चौथा दृश्य : मैं भी इस बार नये कपड़े नहीं बनवाऊंगा, लेकिन बच्चों को जरूर अच्छे स्कूल में पढने डालेंगे।
पत्नी, देखोजी अपने बच्चे स्कूल जाने लायक हो गये हैं। इनको किसी ठीक से स्कूल में पढाने के लिये जुगाड़ करो।
पति, मेरे पास इतने रुपये कहां हैं, मुश्किल से पांच-छ: हजार रुपये कमा पाता हूं। डेढ हजार तो मकान किराये में ही चले जाते हैं। बाकी से घर का खर्चा ही मुश्किल से चलता है।
पत्नी, कोई बात नहीं मैं झाड़ू-पौछा किया करूंगी, लेकिन बच्चों को जरूर अच्छे से स्कूल में पढाना है। हम तो नहीं पढ सके मगर बच्चों के लिये हम कुछ भी करेंगे।
पति, ठीक है तू ऐसा कहती है तो मैं भी इस बार नये कपड़े नहीं बनवाऊंगा, लेकिन बच्चों को जरूर अच्छे स्कूल में पढने डालेंगे।
तीन सौ पैंसठ दिन कुछ भी करें, मगर एक दिन अपने कर्त्तव्यों की औपचारिकता पूरी करके अपराधबोध से मुक्ति पायी जा सके : यद्यपि भारत जैसे देश में माता-पिता दिवस की कभी कोई परम्परा नहीं रही। भारत में माता और पिता द्वारा अपनी सन्तानों के लिये तथा सन्तानों द्वारा अपने माता-पिता के लिये किये गये त्याग और बलिदान के ऐसे-ऐसे उदाहरण मौजूद हैं, जो संसार में अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकेंगे। लेकिन अब ये सब इतिहास की बातें या आज की पीढी की नजर में खोखली बातें हो चुकी हैं। आज की पीढी का गुरू तो गूगल है और सलाहकार उनके मित्र-साथी। जिनमें से अधिकतर पश्चिम की सभ्यता से प्रभावित और प्रेरित हैं। इसीलिये आज के दौर में माता-पिता दिवस, मित्र दिवस, आदि अनेक नये-नये दिवस ईजाद कर लिये गये हैं। जिससे कि तीन सौ पैंसठ दिन कुछ भी करें, मगर एक दिन अपने कर्त्तव्यों की औपचारिकता पूरी करके अपराधबोध से मुक्ति पायी जा सके। हॉं हमारे देश में मातृ-ॠण और पितृ-ॠण को चुकाने की परम्परा अवश्य शुरू से रही है।
बिन माँ के बच्चे मॉं के आलिगंन को तरसते-तड़पते और सब के बीच भी सबसे कोसों दूर नजर आते हैं : मातृ-ॠण को तो आज तक कोई चुका ही नहीं पाया और किसी भी शास्त्र में मातृ-ॠण से उॠण होने का कोई उपाय नहीं है। हॉं ये जरूर कहा गया है कि मातृ-सेवा, मातृ ॠण से कुछ सीमा तक उॠण होने का एक सुगम मार्ग है। माता तो वो दिव्य शक्ति, वो अनौखी मूरत होती है जो बच्चों के लिये सब कुछ होती है। फिर भी बहुत सारे बच्चे ऐसे हैं जो अपनी मॉं को नहीं समझ पाते हैं। बहुतों को माता का आलिगंन, प्रेमभरा स्पर्श और मॉं का आशीष कैसा होता है, ज्ञात ही नहीं होता। उनके होश संभालने से पहले ही मॉं जुदा हो चुकी होती हैं। बहुत सारे बच्चे मेरे बच्चों जैसे होते हैं, जिनकी मॉं अपना निश्छल प्यार लुटाकर अधबीच में ही दुनिया से विदा हो चुकी होती हैं। ऐसे में बच्चे गुमसुम, सहमे-सहमे, भर्राये गले से चाहकर भी जी भरकर रो नहीं सकने वाले, अविकसित पुष्प जैसे, अधखिले यौवन की दहलीज पर मॉं के आलिगंन को तरसते-तड़पते और सब के बीच भी सबसे कोसों दूर नजर आते हैं।
बिना पत्नी के योगदान के कोई पिता अपने बच्चों की नजर में एक सफल पिता नहीं बन सकता : जब बच्चों के सिर से मॉं का साया छिन जाता है तो ऐसे बच्चों के पिता की जिम्मेदारी कई गुना बढ जाती है, मगर अकसर पिता अपने आप को कदम-कदम पर नि:सहाय पाते हैं। बच्चे जो अपनी मॉं के सामने अपनी हर छोटी बड़ी उलझन या मन की व्यथा या गुथ्थी को सहजता खोल कर रख देते थे, वही बिन मॉं के बच्चे अपने पिता के सामने अपने दर्द, जरूरत या अपने मन की उलझनों को खोलकर बताना तो दूर, दिनोंदिनों अधिक और अधिक उलझते जाते हैं। एक पिता कितना ही प्रयास करे वो कभी मॉं नहीं बन सकता। बच्चों की मॉं छिन जाने के बाद एक पिता बेशक दोहरे कर्त्तव्यों का निर्वाह करने का प्रयास करे, मगर वह हर कदम पर खुद को असफल ही पता है। न वह पिता रह पाता है और न हीं वह बच्चों की मॉं के अभाव को कम कर पाता है। सच तो यह है कि एक पिता को पिता बनाने में भी उसकी पत्नी का अहम योगदान होता है। बिना पत्नी के योगदान के कोई पिता अपने बच्चों की नजर में एक सफल पिता नहीं बन सकता। उसे पितृत्व का निर्वाह करने के लिये हर कदम पर पत्नी के सहारे की अनिवार्यता होती है। ऐसे में बिना पत्नी के मॉं बनना तो बहुत दूर एक पिता बने रहना भी केवल चुनौती ही नहीं, बल्कि असम्भव हो जाता है!
कोई भी पिता अपने बच्चों को जिन्दीभर की कमाई को खर्च करके भी ऐसा तौहफा खरीदकर नहीं दे सकता जो उनकी मॉं का स्थान ले सके : हॉं मैंने अपनी पत्नी के देहावसान के बाद कदम-कदम पर इस बात को अवश्य अनुभव और महसूस किया है कि बच्चों की दृष्टि में माता के बिना घर केवल मकान है और पत्नी के बिना, पति का जीवन वीरान है। सबसे बड़ी बात ये कि कोई भी पिता अपने बच्चों को जिन्दीभर की कमाई को खर्च करके भी ऐसा तौहफा खरीदकर नहीं दे सकता जो उनकी मॉं का स्थान ले सके। मैं यह भी खुले हृदय से स्वीकार करता हूँ कि बहुत कम पति-पत्नी इस बात को जानते हैं कि वे अपने जीवन-साथी को उसकी अच्छाईयों और कमियों के साथ हृदय से स्वीकार करके पूर्णता से आपस में प्यार करें तो वे अपने बच्चों को अपनी जिन्दगी का सबसे अमूल्य तौहफा दे सकते हैं। ऐसा करने के बाद बच्चों के दिल में माता-पिता के प्रति कभी न समाप्त होने वाला अपनत्व का झरना सदैव स्वत: ही फूटता रहता है।
जो पुत्र अपने माता-पिता की सेवा, आदर-सम्मान के साथ नहीं करता, वह चाहे जो भी हो नरक को प्राप्त होगा : जहॉं तक पितृ ॠण की बात है तो श्रीमद् भागवत कथा ज्ञान यज्ञ के दौरान भागवत मर्मज्ञ गोस्वामी गोविंद बाबा मथुरावासी ने श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि पुत्र अपने माता-पिता के ॠण से कभी उॠण नहीं हो सकता। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता से यही कहा है। जो पुत्र अपने माता-पिता की सेवा, आदर-सम्मान के साथ नहीं करता, वह चाहे जो भी हो नरक को प्राप्त होगा।
पितृ-ॠण तीसरा ॠण, पिता को दूसरे गुरु का दर्जा : जहां तक भारतीय धर्म-संस्कृति की बात करें तो पितृ-ॠण को सन्तान पर, विशेषकर पुत्रों पर तीसरा ॠण बताया गया है। कहा गया है पितृ हमें सुयोग्य बनाते हैं। हम भी भावी सन्तान को सुयोग्य बनावें। भावी पीढ़ी के उचित निर्माण के लिए ध्यान न दिया जायेगा, तो भविष्य अन्धकारमय बनेगा। यही नहीं पितृ का अर्थ गुरु भी कहा गया है। पिता को सन्तान का माता के बाद दूसरे गुरु का दर्जा प्राप्त है।
पितृ ॠण शीर्षक से मैंने श्री राजेश्वर नामक एक लेखक की एक कविता पढी थी, जिसका उल्लेख किये बिना फादर्स डे की यह चर्चा अधूरी ही रहेगी। श्री राजेश्वर जी लिखते हैं कि-
कैसे उतारेगे पितृॠण, यह समझ में ना आये!
कहां ढूंढे उन्हें हम, जिन्होंने जीवन के पहले पाठ पढ़ाये?
जब तक वो थे, ना कर सके मन की बात!
आज वो दूर हैं, तो ढूंढ रहे हैं दिन रात!!
हाथ पकड़ कर जिन्होंने हमें था चलना सिखाया!
आज नहीं रही है, हमारे उपर उनकी छत्रछाया!!
कितना कुछ कहना सुनना था, सब रह गयी अधूरी बात!
अब तो केवल सपनों में, होती है मुलाकात!!
जीवन भर संघर्ष करके, दिया हमे सुख सुविधा आराम!
अपने सपनों में खोये रहे हम, आ ना सके आपके काम!!
ईश्वर से है यही प्रार्थना, कर ले वो आपका उद्धार!
आपके चरणों की सेवा, का अवसर मिले मुझे बार बार!!
हर जनम में मिले बाबूजी, केवल आपका साथ!
पथ प्रदर्शक बन के पिता, आप फिर थामना मेरा हाथ!!
आपकी तपस्या व साधना, नहीं हो सकती है नश्वर!
अमर करेगा इस नाम को देकर पितृॠण राजेश्वर!!
चाहे आप पर कितना ही नाराज हो लें, मगर वे रोते हैं-अकेले में अपने बच्चों के लिये और बिना बच्चों के माता-पिता पंखहीन पक्षी होते हैं। बच्चे माता-पिता की आस, आवाज, तमन्ना, सांस और विश्वास होते हैं।बच्चे माता-पिता के बगीचे के फूल होते हैं। भला ऐसे में बच्चों के बिना कोई माता या पिता कैसे खुश या सहजता से जिन्दा भी रह सकता है? : अन्त में उन सभी को जो अपने-अपने माता-पिता से स्नेह करते हैं, करना चाहते हैं या किसी कारण से अपने स्नेह को व्यक्त नहीं कर पाते हैं। उनको मेरी यही है राय-माता-पिता चाहे गुस्से में कितना भी कड़वा बोलें, चाहे आप पर कितना ही नाराज हो लें, मगर वे रोते हैं-अकेले में अपने बच्चों के लिये और बिना बच्चों के माता-पिता पंखहीन पक्षी होते हैं। बच्चे माता-पिता की आस, आवाज, तमन्ना, सांस और विश्वास होते हैं। बच्चे माता-पिता के बगीचे के फूल होते हैं। भला ऐसे में बच्चों के बिना कोई माता या पिता कैसे खुश या सहजता से जिन्दा भी रह सकता है? सच में यही है माता-पिता का सम्मान कि उनको अपने नहीं, उन्हीं के नजरिये से समझें।
अन्त में आज के दौर के पिता-पुत्र के रिश्तों की हकीकत एक बुजर्ग के के लफ्जों में :
‘‘एक जमाना था, जब हमारे पिता हमें अपनी गलती बताये बिना हमारे गालों पर तड़ातड़ थप्पड़ जड़ दिया करते थे। हम खूब रो लेने के बाद अपने पिता के सामने बिना अपना अपराध जाने हाथ जोड़कर माफी मांग लेते थे। पिता फिर भी गुस्से में नजर आते थे। हॉं रात को मॉं बताती थी कि बेटा तुमको पीटने के बाद तुम्हारे बाबूजी खूब रोये थे। जबकि आज हालात ये है कि बेटा बिना कोई कारण बताये अपने पिता को खूब खरी-खोटी सुना जाता है और अपनी पत्नी के साथ घूमने निकल जाता है। शाम को पिता अपने बेटे के समक्ष नतमस्तक होकर बिना अपना गुनाह जाने माफी मांगता है, लेकिन बेटा पिता से कुछ बोले बिना उठकर पत्नी और बच्चों के साथ जा बैठता है। लेकिन पौता ये सब देख रहा है और सूद सहित अनुभव की पूंजी एकत्रित कर रहा है।’’
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