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केवल आदिवासी ही भारत के मूलवासी हैं

 

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

 

 

हमारे कुछ मित्र दिन-रात "जय मूलनिवासी" और "मूलनिवासी जिंदाबाद" की रट लगाते नहीं थकते। बिना यह जाने और समझे कि मूलनिवासी का मतलब क्या होता है? साथ ही भारत के 85 फीसदी लोगों को भारत के मूलनिवासी घोषित करके, शेष आबादी ब्राह्मण, वैश्य और क्षत्रिय को विदेशी बतलाते हैं। आश्चर्य कि इनमें से बहुत से खुद को तर्क के समर्थक महामानव बुद्ध के अनुयायी भी बतलाते हैं, लेकिन इनको व्यवहार में बुद्ध के तर्क के सिद्धांत से परहेज है। तर्क करने वाला इनको मूर्ख, गद्दार और मनुवादियों का एजेंट नजर आता है। मूलनिवासी का नारा देने वाले शीर्ष लोग एक विशेष तबके या विशेष मानसिकता के लोग हैं, जो खुद को बुद्धिजीवियों का शिरोमणि मानते हैं। सबसे बड़ा दुःख तो यह है कि इनका बाबा आंबेडकर या कांशीराम या अन्य किसी के मिशन या सामाजिक न्याय या संविधान के प्रावधानों से कोई सरोकार नहीं है। इनको वंचित वर्ग शूद्रों की समस्याओं से भी कोई मतलब नहीं है। इनका लक्ष्य येनकेन प्रकारेण सत्ता पर कब्जा करना है, जिसके लिये इनको नरेंद्र मोदी का प्रचार करने वाली और बामणों को आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करने वाली मायावती साक्षात देवी नजर आती हैं। आएं भी क्यों नहीं, आखिर मायावती के सहारे पहले की भाँति सत्ता की मलाई मिलने की उम्मीद जो जगी रहती है। इनको बाबा साहब और कांशीराम की संदिग्ध मौत की जांच की मांग करना तो दूर इस बारे में बात करना तक गवारा नहीं है। ऐसे लोग भारत की सत्ता पर कब्जा करने के सपने देखते हैं, जिनको बोलने, लिखने और संवाद करने की तहजीब तक नहीं? हकीकत में ऐसे लोग अभिव्यक्ति की आजादी को कुचल देना चाहते हैं। मूलाधिकारों में इनकी कोई आस्था नहीं। वंचित वर्गों की संख्यात्मक दृष्टि से छोटी-छोटी जातियों के प्रति इनके मन में कोई मान-सम्मान या जगह नहीं। सच में इनका व्यवहार ब्राह्मणों से कई गुना अधिक दुराग्रही और तानाशाही है। इनके लिए वंचित वर्गों के महान लोग, जैसे ज्योतिराव फ़ूले, बिरसा मुंडा, पेरियार, बाबा साहब, कांशीराम आदि के विचार, काम और नाम केवल सत्ता पाने की सीढ़ी मात्र हैं। इनको इतनी सी बात समझ में नहीं आती कि आज भारत का प्रत्येक वह व्यक्ति भारत का मूलनिवासी है, जिसके पास मूलनिवास प्रमाण-पत्र है! ये लोग प्रायोजित और तथाकथित डीएनए को आधार बनाकर तर्क करते हैं, लेकिन हजारों सालों से बामणों और आर्य शासकों के यौनाचार के साथ-साथ विवाहेत्तर यौन सम्बंधों के कार्ब उटप्पन्न वर्णशंकर संतति के कड़वे सच पर विचार, चर्चा और तर्क नहीं करना चाहते। इनका मकसद केवल सत्ता है, सत्ता भी वंचित वर्ग के उद्धार के लिए नहीं, बामणों के साथ समझौता करके माल कमाने और नरेंद्र मोदी का प्रचार करने के लिए चाहिए। सत्ता चाहिये जिससे बामणों के हित में अजा एवं अजजा अत्याचार निवारण अधिनियम को निलम्बित किया जा सके। संघ के लिए राम मन्दिर और धारा 370 का जो महत्व है, वही इनके लिए मूलनिवासी का अर्थ है। अर्थात लोगों को गुमराह करके वोट बैंक तैयार करना। इसलिए ये लोग सत्ता की खातिर वंचित वर्गों को मूलनिवासी के बहाने लगातार गुमराह कर रहे हैं। मूलनिवासी शब्द के बहाने ये लोग केवल खुद को अर्थात एक विशेष तबके को भारत के मूलवासी घोषित करना चाहते हैं। इनसे मेरा सीधा सवाल है कि यदि वास्तव में इनके पूर्वज भारत के मूलवासी थे तो मूलनिवासी जैसे हल्के शब्द को गढ़ने की क्या जरूरत है? अपने आप को भारत के मूलवासी अर्थात आदिवासी क्यों नहीं मानते? सारा संसार जानता है कि भारत के मूलवासी तो आदिवासी हैं। मूलनिवासी तो प्रत्येक देश के सभी नागरिक होते हैं। ईसाई, पारसी, यहूदी, आर्य-क्षत्रिय-शूद्र, अछूत, दलित, ओबीसी, घुमन्तु, विमुक्त, आदिवासी, हूँण, कुषाण, शक, मंगोल, मुगल, आर्य-ब्राह्मण और वैश्यों सहित सभी के वंशज जो भारत के नागरिक हैं, आज कानूनी तौर पर भारत के मूलनिवासी हैं, लेकिन भारत के मूलवासी नहीं हैं। भारत के मूलवासी केवल भारत के आदिवासी हैं। हाँ यदि इतिहास या अन्य किन्हीं साक्ष्य के मार्फत किन्हीं अन्य जाति, समुदायों के भारत के मूलवासी और आदिवासी होने के प्रमाण प्रकट होते हैं, तो सभी को अपने आप को भारत का आदिवासी मानना चाहिये और आदिवासी एकता को मजबूत करना चाहिए। अन्यथा लोगों को गुमराह करने और बुद्ध के नाम की माला जपने और तर्क से भागने का नाटक बन्द करना चाहिए।
जय आदिवासी। जय मूलवासी।
जय भीम। नमो बुद्धाय।
जय भारत। जय संविधान।
नर-नारी सब एक सामान।।

 

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