इन सब बातों से दो बातें साफ होती है कि एक ओर तो देश की राजनैतिक सत्ता एवं शासन व्यवस्था अकर्मण्य और अयोग्य लोगों के हाथों में है। जिसके चलते देश के सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान या तो छलांग लगा रहे हैं या कछुआ की रफ्तार से रैंग रहे हैं। ऐसे में दूसरी बात ये भी स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार के आरोपों और सुप्रीम कोर्ट के शीर्ष जज द्वारा शीर्ष स्तर पर खुली स्वीकृति के उपरान्त भी न्यायपालिका आज भी खुद को पाकसाफ समझने के साथ-साथ देश के किसी भी संस्थान के विरुद्ध टिप्पणियॉं करने के लिये खुद को स्वतन्त्र और सम्पूर्ण रूप से अधिकार सम्पन्न मानती है। ये दोनों ही स्थितियॉं खतरनाक हैं। इनका जब तक उपचार नहीं होगा, इस प्रकार के निर्णय आते ही रहेंगे। जिन्हें चाहे अनचाहे झेलने के लिये देश के लोगों को तैयार रहना होगा। ऐसी स्थिति के लिये ही कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से न्याय होता हो या नहीं, न्याय हुआ हो या नहीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को मानना देशवासियों की व्यवस्थागत मजबूरी है, क्योंकि उसके निर्णय के विरुद्ध कहीं अपील नहीं हो सकती।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
भारत की न्यायपालिका पर अनेक बार खुद शीर्ष अदालत के प्रमुख जज ही भ्रष्ट होने का आरोप लगा चुके हैं। इसके उपरान्त भी लोगों को अभी भी न्यायपालिका में ही उम्मीद की किरण नजर आती है। यह अलग बात है कि न्यायपालिका की ओर से भी न्याय को कसौटी पर कसने के बजाय भावनाओं की कसौटी पर कसने वाले निर्णय सामने आ रहे हैं। जिनके बारे में मीडिया खुलकर के कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं है। जिसका एक ही कारण है-"न्यायिक अवमानना" की तलवार, जो कभी भी और किसी के भी सिर पर गिर सकती है।
इसी श्रृंखला में देश के राष्ट्रीय खेल हॉकी की दयनीय स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार, 05.12.13 को कहा है कि खेल संस्थाओं की कमान नेताओं और कारोबारियों के हाथों में होने के कारण खेलों का नुकसान हो रहा है। न्यायालय का कहना था कि इन लोगों को इन संस्थाओं को खिलाड़ियों के लिए छोड़ देना चाहिए।
सर्वोच्च अदालत के न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर और न्यायमूर्ति जे चेलामेश्वर की खंडपीठ ने सख्त लहजे में कहा कि "लोग निजी स्तर पर खेलों को चला रहे हैं।" उन्होंने तल्ख टिप्पणियां करते हुए कहा कि यह दु:खद स्थिति है कि "खेलों के प्रशासन की बागडोर संभालने वाले व्यक्तियों का खेल से कोई लेना देना नहीं है और वे खेल की कीमत पर संस्थायें चला रहे हैं। भारत में खेलों पर निजी लोगों का नियंत्रण है। क्या खेलों को निजी हित बंधक बना सकते हैं। यही वजह है कि हॉकी का स्तर गिरता जा रहा है और कभी आंलंपिक में स्वर्ण पदर्क जीतने वाले हम इस समय इसमें क्वालीफाई करने के लिये संघर्ष कर रहे हैं।"
इसके अलावा भी न्यायाधीशों ने बहुत सी बातें कही और सारी बातों का लब्बोलुआब ये है कि शीर्ष कोर्ट की नजर में सरकार खेलों को अपने नियन्त्रण में लेने में असफल रही है, इसके कारण दिनोदिन खेलों का सत्यानाश हो रहा है!
यहॉं पर सवाल ये उठता है कि उपरोक्त मामले में निर्णय करने से पूर्व कोर्ट को इस बात का परीक्षण क्यों नहीं करना चाहिये कि खेल संघों की स्थापना और गठन के बारे में बनाये गये कानूनों और नियमों में इस बात का उल्लेख या प्रावधान क्यों नहीं है कि खेल संगठनों की स्थापना और संचालन का कार्य केवल और केवल सम्बन्धित खेल के पूर्व खिलाड़ियों के द्वारा ही किया जायेगा। तब ही उनकी स्थापना हो सकेगी और यदि कानूनों और नियमों में इस बात का उल्लेख या प्रावधान नहीं है तो खेल संघों की स्थापना होगी और उनका गठन एवं संचालन मनमाने या जैसे भी तरीके से संचालक चाहेंगे होना लाजिमी है। इसमें कोई भी सरकार तब तक कुछ नहीं कर सकती, जब तक कि इस बारे में भारत की संसद द्वारा नीतिगत निर्णय नहीं लिया जाता है।
साथ ही साथ इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि अकेला खेल ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र या गैर सरकारी क्षेत्र नहीं है जो राजनेताओं और व्यवसाईयों के हाथों या शिकंजे में है और इस कारण से वे खेलों का सत्यानाश कर रहे हैं। यदि हम बिना पूर्वाग्रह के विचार करें तो पायेंगे कि खेलों में तो कुछेक खिड़ियों का कैरियर ही दाव पर लगा होता है, जबकि देश में गली गली में कुकरमुत्तों की तरह उग आये स्कूलों में तो सारे देश का ही भविष्य दाव पर लगा हुआ है।
गैर-सरकारी शिक्षा संस्थानों का संचालन ऐसे लोगों के हाथों में है, जिनका शिक्षा से दूर का भी रिश्ता नहीं है। यदि गहराई में जाकर देखा जाये तो पायेंगे कि किसी जमाने में नामी गुण्डे रह चुके और अभी भी अनेक वीभत्स अपराधों में कोर्ट के चक्कर काट रहे लोग और भ्रष्टाचार के जरिये अकूत सम्पत्ति कमाने वाले पूर्व-अफसर या व्यवसाई शिक्षा संस्थानों का मनमाने तरीके से सीधे संचालन कर रहे हैं।
इसी प्रकार से स्वास्थ्य संस्थान भी लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के प्राथमिक उद्देश्य से नहीं, बल्कि धनोपार्जन के प्राथमिक और अन्तिम लक्ष्य को सामने रखकर ही चलाये जा रहे हैं। गैर-सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों में केवल और केवल वही लोग उपचार करवा सकते हैं, जिनकी जेब में अनाप-सनाप रुपया हो या जो अपने बीमार की खातिर अपनी अचल सम्पत्ति को बेचने को तैयार हो।
यही नहीं प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का संचालन भी ऐसे लोगों के हाथों में है, जिनका मीडिया के बारे में शून्य ज्ञान है, लेकिन वे ही निर्धारित करते हैं कि उनके मीडिया या प्रेस में किस पद पर कौनसा पत्राकार पदस्थ होगा। यही नहीं मीडिया मालिक के हुकुम के बिना पत्ता नहीं हिलता है। ऐसे में मीडिया द्वारा देश को गुमराह करना बड़ा आसान है और किया भी जा रहा है। जो सम्पूर्ण समाज के लिए अत्यंत घातक है।
अनेक अन्य गैर सरकारी क्षेत्रों के बारे में भी यही स्थिति है। सड़कों, पुलों, बांधों आदि का निर्माण करने का जिन लोगों को ठेका दिया जाता है, उनको इन विषयों का शून्य ज्ञान होता है।
इन सबके बारे में ये तर्क दिया जाता है कि स्वास्थ्य, शिक्षण एवं मीडिया संस्थानों में किराये पर योग्य लोगों को रखा जाता है और वही लोग काम करते हैं। मालिक का कागज पर कोई सीधा हस्तक्षेत नहीं होता है। इसलिये इन क्षेत्रों में तकनीकी रूप से अयोग्य लोगों का होना चलेगा।
मगर यही बात खेलों पर क्यों लागू नहीं होती, जबकि खेल संगठन खिलाड़ियों का चयन करने के लिये पूर्व खिलाड़ियों के नेतृत्व में समिति का गठन करते हैं। खिलाड़ियों को प्रशिक्षित करने के लिये नामी नेशी-विदेश कोच तक किराये पर लाये जाते हैं। ऐसे में खेल प्रशासकों का खेल का सत्यानाश करने में सीधे तौर पर क्या योगदान है?
फिर भी यदि सुप्रीम कोर्ट की राय में खेल प्रशासकों का खेलों का सत्यानाश करने में योगदान है तो स्वास्थ्य, शिक्षा, मीडिया, निर्माण और हर उस क्षेत्र में जहॉं गैर-तकनीकी लोगों का नियन्त्रण है, उनके द्वारा अपने कार्यों में गुणवत्ता से समझौता किया जा रहा है। प्रत्येक क्षेत्र में भट्टा बिठाया जा रहा है।
केवल इसी आधार पर यदि खेल संघों को राजनेताओं और व्यावसाईयों के शिकंजे से मुक्त किया जायेगा तो कल को सरकार का संचालन करने वालों को भी तकनीकी रूप से अयोग्य घोषित करना कौनसा बड़ा काम होगा? खेल प्रशासक यदि खेलों का सत्यानाश कर रहे हैं तो फिर तो राजनेता तो सारे देश का ही सत्यानाश कर रहे हैं?
ये एक ऐसा विषय और सवाल है, जिसके आधे-अधूरे समाधान खोजना खतरे से खाली नहीं है। तकनीकी रूप से योग्य व्यक्ति निष्ठावान होंगे और वे वास्तव में अपने कर्त्तव्यों पर खरे ही उतरेंगे, इस बात का क्या सबूत है? यदि ऐसा रहा होता तो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ये नहीं कहना पड़ता कि न्यायपालिका में भी बीस प्रतिशत भ्रष्ट जज हैं। अत: यहॉं पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का स्वागत करने के बजाय हर बुद्धिजीवी को इस बारे में खुले मन से और बिना पूवाग्रह के विचार करने की जरूरत है कि आखिर हमारी देश की व्यवस्था पर आये दिन टिप्पणी करने वाली न्यायपालिका जो कभी दूसरी बीवी को अनुकम्पा के आधार पर सरकारी नौकर देने का आदेश देती है, कभी पति को दो पत्नियों में बांटने की बात करती है। कभी दूसरी बीवी को गुजार भत्ता देने का आदेश देती है। कभी हड़ताल को गैर-कानूनी और असंवैधानिक ठहराती है और आरक्षित लोगों के विरुद्ध हड़ताल करने वालों के हकों को छीनने वालों की हड़ताल को न मात्र सही ठहराती है, बल्कि उन्हें हड़ताल अवधि का वेतन देने का भी सरकार को आदेश देती है। कभी विवाह से उकता चुके और विवाह की जिम्मेदारी नहीं उठाने वाले लोगों द्वारा प्रतिपादित ‘लिव इन रिलेशनशिप’ व्यवस्था को वैधानिक करार देकर, इसे भी विवाह जैसा ही बन्धन बनाने की वकालत करती है।
इन सब बातों से दो बातें साफ होती है कि एक ओर तो देश की राजनैतिक सत्ता एवं शासन व्यवस्था अकर्मण्य और अयोग्य लोगों के हाथों में है। जिसके चलते देश के सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान या तो छलांग लगा रहे हैं या कछुआ की रफ्तार से रैंग रहे हैं। ऐसे में दूसरी बात ये भी स्पष्ट है कि भ्रष्टाचार के आरोपों और सुप्रीम कोर्ट के शीर्ष जज द्वारा शीर्ष स्तर पर खुली स्वीकृति के उपरान्त भी न्यायपालिका आज भी खुद को पाकसाफ समझने के साथ-साथ देश के किसी भी संस्थान के विरुद्ध टिप्पणियॉं करने के लिये खुद को स्वतन्त्र और सम्पूर्ण रूप से अधिकार सम्पन्न मानती है।
ये दोनों ही स्थितियॉं खतरनाक हैं। इनका जब तक उपचार नहीं होगा, इस प्रकार के निर्णय आते ही रहेंगे। जिन्हें चाहे अनचाहे झेलने के लिये देश के लोगों को तैयार रहना होगा। ऐसी स्थिति के लिये ही कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से न्याय होता हो या नहीं, न्याय हुआ हो या नहीं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को मानना देशवासियों की व्यवस्थागत मजबूरी है, क्योंकि उसके निर्णय के विरुद्ध कहीं अपील नहीं हो सकती।
-लेखक, जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार पत्र ‘प्रेसपालिका’ के प्रकाशक एवं सम्पादक हैं। लेखक को पत्रकारिता व लेखन के क्षेत्र में विशेष उल्लेखनीय योगदान के लिये अनेक राष्ट्रीय पत्रकारिता सम्मानों से विभूषित किया जा चुका है। इसके 1993 से अलावा 21 राज्यों में सेवारत प्रतिष्ठित संगठन ‘‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)’’ के मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और ‘‘जर्नलिस्ट्स, मीडिया एवं राइटर्स वैलफेयर एशोसिएशन’’ के भी नेशनल चेयरमेन हैं।
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