लेखक: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
सोमवार, 17 जुलाई, 2017 को रात करीब सवा बारह बजे उत्तरी कश्मीर के उड़ी सेक्टर में एलओसी के अग्रिम छोर पर स्थित बुचर चौकी के पास एक सिपाही ने मेजर की हत्या कर दी। हत्या का कारण सिपाही को मोबाईल रखने की अनुमति नहीं होने के बावजूद सिपाही को मोबाईल का इस्तेमाल करते हुए पकड़ा जाना। इस कारण 71 आर्मर्ड रेजिमेंट के मेजर शिखर थापा ने 9 मद्रास रेजिमेंट के नायक काठी रीसन से मोबाइल फोन छीन लिया। दोनों के बीच कथित तौर पर हाथापाई हुइ। जिसमें सिपाही का मोबाइल क्षतिग्रस्त हो गया।
इसके बाद मेजर ने कमांडिंग ऑफिसर को रिपोर्ट करके सिपाही के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई करवाने की धमकी दी। इस पर सिपाही काठी रीसन ने मेजर पर अपनी एसाल्ट राइफल से गोलियों की बौछार कर दी। इससे मेजर की मौके पर ही मौत हो गई।
सबसे पहले तो यह घटना देश और सेना के लिये अत्यन्त दु:खद और चिन्ताजनक है। दिवंगत मेजर की मौत उसके परिवार और सेना के लिये बड़ी क्षति है। वहीं सिपाही का इस प्रकार का व्यवहार अनेक सवालों को जन्म देता है।
सामान्यत: फौजी अफसर सुविधा-सम्पन्न दफ्तरों, स्थानों और, या शहरों में पदस्थ रहते हैं। आम तौर पर फौजी अफसरों के परिवार भी उनके साथ ही रहते हैं। इसके बावजूद भी उन्हें मोबाईल सहित संचार के सभी साधन चौबीसों घंटे सरकारी खर्चे पर उपयोग करने की अनुमति होती है। इसके विपरीत एक सिपाही, सीमा पर मौसम की मार झेलते हुए, अनेक प्रकार के तनावों और परेशानियों में अपनी सेवाएं देता है। हर समय उसके सिर पर दुश्मन की गोली का खतरा मंडराता रहता है। लम्बे समय तक उसे अपने परिवार और रिश्तेदारों के साथ-साथ शहरी जीवन की सुविधाओं से बहुत दूर रहना पड़ता है। इस कारण सिपाही को अनेक प्रकार के तनाव और विषाद झेलने होते हैं। ऐसे में सिपाही को अपने परिवार, दफ्तर और देश-दुनियां से जुड़े रहने के लिये संचार सुविधाओं की तुलनात्मक रूप से अफसरों से अधिक जरूरत होती है। बल्कि इन हालातों में वर्तमान समय में एक सिपाही के लिये इंटरनेटयुक्त मोबाईल अनिवार्य है।
सु्प्रीम कोर्ट ने एक मामले में संचार सुविधाओं को अनुच्छेद 21 के तहत वर्णित जीवन के मूल अधिकार का अपरिहार्य हिस्सा घोषित किया हुआ है। ऐसे में सिपाही को ड्यूटी के दौरान मोबाईल का इस्तेमाल करने का हक नहीं देने वाला कोई भी सैनिक आदेश या नियम मूल अधिकारों को छीनने और हनन करने वाला होने के कारण अनुच्छेद 13 (2) के प्रकाश में कानूनी दृष्टि से शून्य है।
इसके बावजूद भी सिपाही को मोबाईल इस्तेमाल नहीं करने देना और मोबाईल को छीनना, सिपाही के साथ मारपीट करते हुए कानूनी कार्यवाही की धमकी देना, अपने आप में भारतीय दंड संहिता के तहत अपराध है। ऐसे में देश की रक्षा के लिये तैनात सिपाही के संवैधानिक मूल अधिकारों को छीनकर, उसके आत्मस्वाभिमान को कुचलने का आपराधिक कुकृत्य भी उतना ही निन्दनीय, गलत, अक्षम्य और चिन्ताजनक है, जितना कि देश सेवा के लिये तैनात एक मेजर की मौत।
हत्या नहीं मानव वध: निश्चय ही यह हत्या का अपराध नहीं है, क्योंकि मेजर की हत्या के पीछे सिपाही का कोई मोटिव या इंटेशन प्रकट नहीं होता है। अत: मेजर की मौत को हत्या नहीं, बल्कि मानव वध की श्रेणी का अपराध है।
अन्तिम बात: वास्तव में यह घटना अन्याय, विभेद और मनमानी व्यवस्था के विरुद्ध, वंचित-शोषित तथा आक्रोशित मानव मन की अति-आपराधिक प्रतिक्रिया है। जिसे व्यवस्था पर काबिज लोगों द्वारा रोका जा सकता था, बशर्ते सिपाही के मूल अधिकारों का हनन नहीं किया गया होता। इस घटना से सबक लेकर भविष्य में हो सकने वाली ऐसी घटनाओं को रोकना सम्भव है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि मूल अधिकारों के हनन को संविधान में ही दण्डनीय आपराधिक कृत्य घोषित कर दिया गया होता तो आम व्यक्ति और निम्न स्तर पर सेवारत लोक सेवकों के मूल अधिकारों को छीनने की कोई हिम्मत नहीं कर सकता था। मगर खेद है कि संविधान निर्माताओं ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया।
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY