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Dr. Srimati Tara Singh
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नाम बताये बिना आरटीआई

 

आश्‍चर्यजनक तथ्य तो यह है कि पुलिस तो बदनाम है ही, लेकिन सबसे अधिक आईएएस अफसरों को इस बात से पीड़ा होती है कि सामाजिक कार्यकर्ता काले कारनामों के विरुद्ध क्यों कार्य करते हैं। इससे ये बात स्वत: सिद्ध होती है कि जिन अफसरों के पास जितनी ताकत है और जितने वित्तीय अधिकार हैं, वे उतने ही अधिक भ्रष्टाचार में लिप्त पाये जाते हैं। इस कारण उनको ही ऐसे लोगों से सबसे अधिक परेशानी होती है।

 

 

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

 

 

 

कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक याचिका पर निर्णय सुनाते हुए इस बात को मान्यता दी है कि सूचना का अधिकार अधिनियम कानून के तहत सूचना प्राप्त करने के लिये आरटीआई का आवेदन दायर करने वाले आवेदकों के जीवन को खतरा है। कलकत्ता हाईकोर्ट ने अपने आदेश में केवल इतना ही नहीं स्वीकारा है, बल्कि साथ-साथ यह आदेश भी पारित किया है कि सूचना चाहने वाले अपना नाम-पता जाहिर किये बिना ही आरटीआई का आवेदन पेश कर सकते हैं और इस प्रकार से पेश आवेदन पर सूचना दी जायेगी।

 

गत 20 नवम्बर को अविशेक गोयनका की याचिका का निपटारा करते हुए कलकत्ता हाईकोर्ट ने आरटीआई पेश करने वाले की पहचान जाहिर न करने सम्बन्धी महत्वपूर्ण फैसला दिया है। जिसमें कलकत्ता हाईकोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिया कि अपना नाम और पता जाहिर किए बिना भी सूचना प्राप्ति हेतु केवल पोस्ट बॉक्स नंबर देकर ही आरटीआई दायर की जा सकती है।

 

कलकत्ता हाईकोर्ट का उक्त आदेश यद्यपि कलकत्ता हाईकोर्ट के न्यायाधिकारक्षेत्र में ही लागू होना है, लेकिन यह आदेश सूचना अधिकार कानून के तहत सूचना प्राप्ति हेतु आवेदन करने वाले कार्यकर्ताओं पर भ्रष्ट और दबंग लोगों की ओर से होने वाले हमलों और परोक्ष प्रताड़नाओं को रोकने की दिशा में कुछ सीमा तक अवश्य ही सहायक सिद्ध होगा।

यद्यपि सूचना अधिकार कानून के मार्फत भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ने वालों के लिये यह आदेश अपने आप में पर्याप्त नहीं है। फिर भी कलकत्ता हाईकोर्ट के इस आदेश का खुले मन से स्वागत किया जाना चाहिये और देशवासियों को आशा करनी चाहिये कि आने वाले समय में या तो खुद केन्द्र सरकार इस प्रकार का कानून बनाकर सूचना अधिकार के तहत काम करने वाले देशसेवकों को सुरक्षा प्रदान करेगी या फिर सुप्रीम कोर्ट की ओर से इस प्रकार का आदेश प्राप्त होगा, जो सम्पूर्ण राष्ट्र में लागू होगा।

 

कलकत्ता हाईकोर्ट में याचिका पेश करने वाले अविशेक गोयनका ने केन्द्र सरकार के एक विभाग में अपनी पहचान गुप्त रखते हुए केवल पोस्ट बोक्स नंबर लिखकर एक आरटीआई याचिका दायर की थी, लेकिन आवेदन पर पता न लिखे होने के आधार पर उसकी आरटीआई अर्जी को अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद अविशेक गोयनका ने इसी बात को मुद्दा बनकार कलकत्ता हाईकोर्ट में अपने आवेदन को वैध ठहराने के लिए याचिका दायर की, जिस पर सभी पक्षों की सुनवाई के बाद उक्त निर्णय सुनाया गया है।

 

कलकत्ता हाईकोर्ट के समक्ष याचिकाकर्ता अविशेक गोयनका की ओर से यह तर्क पेश किया कि आरटीआई कार्यकर्ता मानव अधिकारों के लिए लड़ते हैं। वे भ्रष्टाचार और सरकारी अधिकारियों व राजनेताओं की अवैध गतिविधियों के विरुद्ध अकेले काम करते हैं। ऐसे में सदैव उनके जीवन को खतरा बना ही रहता है। उन्होंने कोर्ट को बताया कि आरटीआई कार्यकर्ता केवल तब ही मीडिया में जगह बना पाते हैं, जब उनकी हत्या की जा चुकी होती है। जब वो कोई शिकायत करते हैं तो पुलिस और कानून से खास मदद नहीं मिलती|

 

इसलिए सूचना पाने के लिये ऐसे कार्यकर्ताओं की पहचान उजागर नहीं होनी चाहिए। अगर वो केवल पोस्ट बॉक्स नंबर देंगे तो उनकी सुरक्षा ज्यादा संभव हो पाएगी। इस याचिका के आधार पर सुनाया गया यह फैंसला फिलहाल पश्‍चिम बंगाल और अंडमान निकोबार द्वीपसमूह में ही लागू किया जाएगा। अन्य राज्यों को इसके पालन की छूट होगी।

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि केवल सूचना अधिकार कानून के तहत सूचना प्राप्त करने के लिये कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ ही हिंसक हमले होते हैं, बल्कि हर उस व्यक्ति के विरुद्ध हिंसक हमले होते हैं, जो कि किसी भी क्षेत्र में व्याप्त गैर-कानूनी गतिविधियों, भ्रष्टाचार, अत्याचार, अन्याय, नाइंसाफी या अफसरों या जनप्रतिनिधियों या ठेकेदारों या दबंगों की मनमानियों के खिलाफ आवाज उठाने का प्रयास करता है।

 

मैं भारत सरकार के समक्ष करीब तीन दशक से इस मुद्दे को अनेक बार उठा चुका हूं। ‘‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)’’ नामक संगठन 1993 से अन्याय के विरुद्ध लगातार कार्य कर रहा है और आज देश के 21 राज्यों में ‘बास’ के करीब साढे पांच हजार आजीवन सदस्य सेवारत हैं। सदस्यों को हर जगह पर दबंगों की दबंगई का सामना करना पड़ता है। जिस किसी भी जनप्रतिनिधि, ठेकेदार या अफसर के काले कारनामे उजागर किये जाते हैं तो कार्यकर्ताओं को डराने-धमकाने का पूरा प्रयास किया जाता है। आश्‍चर्यजनक तथ्य तो यह है कि पुलिस तो बदनाम है ही, लेकिन सबसे अधिक आईएएस अफसरों को इस बात से पीड़ा होती है कि सामाजिक कार्यकर्ता काले कारनामों के विरुद्ध क्यों कार्य करते हैं। इससे ये बात स्वत: सिद्ध होती है कि जिन अफसरों के पास जितनी ताकत है और जितने वित्तीय अधिकार हैं, वे उतने ही अधिक भ्रष्टाचार में लिप्त पाये जाते हैं। इस कारण उनको ही ऐसे लोगों से सबसे अधिक परेशानी होती है।

अत: आज सबसे बड़ा विचारणीय सवाल ये है कि जिस बात को देश के एक हाई कोर्ट ने कानूनी मान्यता प्रदान कर दी है, उस विषय पर तत्काल भारत सरकार को कानून बनाकर सूचना अधिकार कार्यकर्ताओं तथा भ्रष्टाचार, अत्याचार, शोषण और किसी भी प्रकार की नाइंसाफी तथा गैर कानूनी गतिविधियों के विरुद्ध काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और गैर-सरकारी संगठनों के कार्यकर्ताओं को कानूनी सुरक्षाकवच उपलब्ध करवाना चाहिये। इस बारे में जागरूक लोगों और मीडिया को भी अभियान चलाना होगा, तब ही भारत सरकार इस कानून को बनाने की पहल करने को बाध्य होगी। अन्यथा देशहित और जनहित में नि:स्वार्थ भाव से काम करने वाले कार्यकर्ता हर दिन पीड़ित और शोषित होते रहेंगे।

 

 

 

 

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

 

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