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निर्वाण और बुद्धत्व ने बाबा का मिशन भटकाया

 

लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

 

 

06 दिसम्बर, 1956 में भारत के संविधान के सम्पादक या कहो रचियता बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेड़कर की मृत्यु हुई। जिसे उनके बौद्ध-धर्मानुयाई-निर्वाण प्राप्ति कहते हैं। सोशल मीडिया पर बाबा साहब के अनुयाइयों की ओर से यह भी लिखा जाता है कि बाबा साहब की मृत्यु, सामान्य मृत्यु नहीं थी, बल्कि उनकी मौत संदिग्ध थी।

निर्वाण क्या है?
सबसे पहले निर्वाण और मोक्ष में क्‍या अन्‍तर है? सामान्यत: दु:खों से मुक्त हो जाने पर निर्वाण प्राप्‍त होना माना जाता है। जबकि हिन्दु धर्म में पुनर्जन्‍म से मुक्‍ति‍ को मोक्ष कहते हैं। मोक्ष का अर्थ है ब्रह्मानुभूति भी माना जाता है। बौद्धमतानुसार निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है-'बुझा हुआ'। निर्वाण बौद्ध धर्म का परम सत्य है और जैन धर्म का मुख्य सिद्धांत माना जाता है। हालांकि 'मुक्ति' के अर्थ में निर्वाण शब्द का प्रयोग गीता, भागवत इत्यादि हिन्दू ग्रंथों में भी मिलता है। फिर भी यह शब्द बौद्धों द्वारा ही अधिकतर प्रयोग किया जाता है। अतः निर्वाण शब्द से क्या अभिप्राय है, इसका निर्णय बौद्धों के वचनों द्वारा हो सकता है।

बोधिसत्व नागार्जुन ने माध्यमिक सूत्र में लिखा है कि 'भवसंतति का उच्छेद ही निर्वाण है', अर्थात् अपने संस्कारों द्वारा हम बार-बार जन्म के बंधन में पड़ते हैं, इससे उनके उच्छेद द्वारा भवबंधन का नाश हो सकता है।
रत्नकूटसूत्र में बुद्ध का यह वचन है कि राग, द्वेष और मोह के क्षय से निर्वाण होता है। बज्रच्छेदिका में बुद्ध ने कहा है कि निर्वाण है, उसमें कोई संस्कार नहीं रह जाता।

माध्यमिक सूत्रकार चंद्रकीर्ति ने निर्वाण के संबंध में कहा है कि सर्वप्रपंचनिवर्तक शून्यता को ही निर्वाण कहते हैं। यह शून्यता या निर्वाण क्या है! न इसे भाव कह सकते हैं, न अभाव। क्योंकि भाव और अभाव का ही नाम तो निर्वाण है, जो अस्ति और नास्ति दोनों भावों के परे और अनिर्वचनीय है।

माधवाचार्य ने भी अपने सर्वदर्शनसंग्रह में शून्यता का यही अभिप्राय बतलाया है-'अस्ति, नास्ति, उभय और अनुभय इस चतुष्कोटि से विनिमुँक्ति ही शून्यत्व है'। माध्यमिक सूत्र में नागार्जुन ने कहा है कि अस्तित्व (है) और नास्तित्व (नहीं है) का अनुभव अल्पबुद्धि ही करते हैं। बुद्धिमान लोग इन दोनों का अपशमरूप कल्याण प्राप्त करते हैं। उपर्युक्त वाक्यों से स्पष्ट है कि निर्वाण शब्द जिस शून्यता का बोधक है, उसका अभिप्राय है-मैं भी मिथ्या, संसार भी मिथ्या। एक बात ध्यान देने की है कि बौद्ध दार्शनिक जीव या आत्मा की भी प्रकृत सत्ता नहीं मानते। वे एक महाशून्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं मानते।

बौद्ध धर्म में निर्वाण : बुद्ध ने निर्वाण को मन की उस परम शांति के रूप में वर्णित किया जो तृष्णा, क्रोध और दूसरी विषादकारी मन:स्थितियों (क्लेश) से परे है। ऐसा प्राणी जिसने जीवन में शांति को पा लिया है, जिसके मन में सभी के लिए दया हो और जिसने सभी इच्छाओं और बंधनों का त्याग कर दिया हो। यह शांति तभी प्राप्त होती है, जब सभी वर्तमान इच्छाओं के कारण समाप्त हो जाएं और भविष्य में पैदा हो सकने वाली इच्छाओं का जड़ से नाश हो जाए। निर्वाण में तृष्णा और द्वेष के कारण जड़ से समाप्त हो जाते हैं, जिससे मनुष्य सभी प्रकार के कष्टों या संसार में पुनर्जन्म के चक्र से छूट जाता है। विद्वान हरबर्ट गींतर का कहना है कि निर्वाण से "आदर्श व्यक्तित्व, सच्चा इंसान" वास्तविकता बन जाता है।

धम्मपद में बुद्ध कहते हैं कि निर्वाण ही "परम आनंद" है। यह आनंद चिरस्थाई और सर्वोपरि होता है जो ज्ञानोदय या बोधि से प्राप्त होने वाली शांति का एक अभिन्न अंग है। यह आनंद नश्वर वस्तुओं की खुशी से एकदम अलग होता है। निर्वाण से जुड़ा हुआ ज्ञान बोधि शब्द के माध्यम से व्यक्त होता है।

भगवान बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा है-'भिक्षुओं! संसार अनादि है। अविद्या और तृष्णा से संचालित होकर प्राणी भटकते फिरते हैं। उनके आदि-अंत का पता नहीं चलता। भवचक्र में पड़ा हुआ प्राणी अनादिकाल से बार-बार जन्मता-मरता आया है। संसार में बार-बार जन्म लेकर प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग के कारण रो-रोकर अपार आँसू बहाए हैं। दीर्घकाल तक दुःख का, तीव्र दुःख का अनुभव किया है। अब तो सभी संस्कारों से निर्वेद प्राप्त करो, वैराग्य प्राप्त करो, मुक्ति प्राप्त करो।'

'निर्वाण' शब्द की उत्पत्ति :
निर्वाण शब्द निः (निर) और वाण की संधि से बना है। निर का अर्थ है "अलग होना, दूर होना या उसके बिना" और वाण का अर्थ है "मुक्ति"।

निर्वाण शब्द का शब्दानुवाद :
1. वाण, का तात्पर्य है पुनर्जन्म का पथ, + निर, का तात्पर्य है छोड़ना या "पुनर्जन्म के पथ से दूर होना."
2. वाण, अर्थात 'दुर्गन्ध', + निर, अर्थात "मुक्ति": "पीड़ादायक कर्म की दुर्गन्ध से मुक्ति."
3. वाण, अर्थात "घने वन", + निर, अर्थात "छुटकारा पाना"="पांच स्कंधों के घने वन से स्थाई मुक्ति" (पंच स्कंध), या "मोह, द्वेष तथा माया" (राग, द्वेष, अविद्या) या "अस्तित्व के तीन लक्षणों" (अस्थायित्व, अनित्य, असंतोष, दु:ख, आत्मविहीनता, अनात्मन) से मुक्ति।
4. वाण, अर्थात "बुनना", + निर, अर्थात "गांठ"="कर्म के पीड़ादायी धागे की गांठ से मुक्ति।"

उपरोक्तानुसार निर्वाण उस अवस्था को कहा जा सकता है, जिसमें दु:ख-तकलीफों या पुनर्जन्म से मुक्ति मिल जाये। जबकि सर्व-विदित है कि बाबा साहब अन्त समय तक अपनी कौम के लिये दु:खी थे। आर्यों के विभेदकारी अत्याचारों और अन्यायों से दु:खी थे। इसके अलावा जैसा कि पूर्व में लिखा गया है कि सोशल मीडिया पर बाबा साहब के अनेकानेक अनुयाई बाबा साहब की मृत्यु को सामान्य मृत्यु नहीं मानते हैं, बल्कि उनका मानना है कि बाबा साहब की मौत संदिग्ध थी। जिसे उनकी हत्या भी माना जाता है। यदि उनकी मृत्यु सहज नहीं होकर हत्या थी तो उनकी मौत को किसी भी दृष्टि से निर्वाण प्राप्ति तो नहीं ही माना जा सकता।

इसके अलावा करीब 6 दशक बाद भी बाबा साहब के अनेक अनुयाई बाबा साहब की आत्मा की शान्ति की कामना करते हुए लिखते पढे जा सकते हैं। श्रद्धांजलि देते समय बाबा साहब की आत्मा को शान्ति मिलने की कामना करते हुए बोलते सुने जा सकते हैं। इससे भी यही बात प्रमाणित होती है कि बाबा साहब की आत्मा आज छ: दशक बाद भी शान्ति या मुक्ति के लिये भटक रही है। फिर भी हमारे सभी बाबा-भक्त 06 दिसम्बर को बाबा साहब का निर्वाण प्राप्ति दिवस ही लिखते, बोलते और मानते हैं। क्या कोई आत्मा जिसे निर्वाण प्राप्त हो गया हो, उसकी आत्मा की शान्ति की कामना करना उचित है या भटकती हुई आत्मा का निर्वाण-प्राप्त माना जाना युक्तियुक्त विचार है?

आत्मा को शान्ति या मुक्ति की प्राप्ति हिन्दू मत है और निर्वाण प्राप्ति बौद्ध मत है। लेकिन चूंकि मैं न तो बौद्ध-धर्मानुयायी हूॅं और न ही हिन्दू धर्मानुयायी। अत: मैं बाबा साहब की मौत को निर्वाण या मुक्ति की कामना नहीं कर सकता। मेरी दृष्टि में 6 दिसम्बर, 1956 को बाबा साहब की या तो स्वाभाविक मौत हुई या उनकी हत्या की गयी। दोनों ही दशा में 6 दिसम्बर, 1956 का दिन उनकी मृत्यु का दु:खद दिन था। इन दोनों ही दशा में बाबा साहब की मौत को निर्वाण के रूप में याद करके मेरी राय में हम बाबा साहब के साथ बहुत बड़ा अपराध कर रहे हैं। क्योंकि-
1. बाबा साहब की मौत को निर्वाण प्राप्ति मानकर, उनकी मृत्यु को सहज होने की मान्यता प्रदान करके, हम मानकर उनके कथित हत्यारों को मुक्त करते आ रहे हैं।
2. यदि बाबा साहब की मृत्य हत्या नहीं भी तो भी वे अन्त समय तक अपनी कौम के दु:खों, आर्यों और कांग्रेस तथा जगजीवन राम के कारण इतने व्यथित और परेशान थे कि उनके जीवन में दूर—दूर तक कहीं भी शान्ति नहीं थी। ऐसे में बाबा साहब के निर्वाण प्राप्ति की कल्पना करना ही निराधार है। और
3. बाबा साहब को निर्वाण प्राप्ति मानकर हम इस तथ्य को मान्यता प्रदान कर देते हैं कि बाबा साहब के जीवन में सम्पूर्णता प्राप्त हो गयी थीे और अनार्य वंचित समाज के उत्थान के लिये करने को कुछ भी शेष नहीं रह गया था।
आज 59 वर्ष बाद मुझे तो ऐसा लगता है, बल्कि ऐसा सत्यानुभव होता है कि बाबा साहब की मौत या हत्या, जो भी हुई हो के तत्काल बाद, बाबा साहब के तत्कालीन दुश्मनों द्वारा जानबूझकर बाबा साहब को निर्वाण प्राप्ति होने की अफवाह फैलाई गयी। इस कृत्य में बाबा साहब के निकट सहयोगी दुश्मन और भावातिरेक संवेदनाशून्य भी शामिल रहे होंगे। जिसके दो मकसद रहे होंगे :-
1. यदि बाबा साहब की हत्या हुई/की गयी तो निर्वाण प्राप्ति जैसा महान शब्द बाबा के बौद्ध—धर्मनुयाईयों के दिलो दिमांग में बिठा देना, जिससे बाबा को निर्वाण प्राप्त मानकर उनकी हत्या के बारे में कोई कल्पना भी नहीं कर सके। और
2. बाबा सहब की निर्वाण प्राप्ति के माध्यम से बाबा के अनुयाईयों के मध्य यह संदेश संचारित करना कि बाबा सारे दु:खों से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त हो गये। जिससे सार्वजनिक रूप से यह सन्देश प्रसारित हो कि बाबा साहब का सबसे बड़ा दु:ख था-वंचित समाज। जिसके प्रति यदि वे सन्तुष्टि और मुक्ति का भाव लिये निर्वाण को प्राप्त हो गये हैं तो उनके अधूरे मिशन को आगे बढाने की कोई अब जरूरत नहीं है।
बाबा साहब के अवसान के बाद उक्त दोनों ही बातें हुई। उनकी कथित हत्या पर तत्काल और आज तक सार्थक तरीके से कोई उंगली नहीं उठाई गयी। बाबा को निर्वाण प्राप्त महात्मा घोषित कर दिया गया। जिसके कारण बाबा के सामाजिक न्याय के मिशन को रोककर कर निर्वाण प्राप्ति का मिशन शुरू हो गया। अर्थात् बाबा को बुद्धत्व प्राप्त हुआ हो या नहीं, लेकिन बाबा के अनुयाई जन्मजातीय विभेद की लड़ाई को भूलकर नमो: बुद्धाय की ओर प्रवृत्त हो गये। बाबा को महापुरुष से बुद्धत्व प्राप्त भगवान बनाने की चेष्टा की गयी। बाबा के कार्यों और उपलब्धियों को जानने के बजाय बाबा की मूर्ति की पूजा शुरू हो गयी। यदि कांशीराम का उदय नहीं हुआ होता तो बाबा को भारत रत्न देना तो बहुत बड़ी बात आज बाबा का कोई नाम लेने वाला भी नहीं होता। मगर दु:खद तथ्य अब मायावती सहित बहुत सारे बौद्ध फिर से बाबा साहब को निपटाने में लगे हुए हैं।

यदि देश के वंचित अनार्यों को वास्तव में बाबा साहब को सच्ची श्रृद्धांजलि देनी है तो हमें बाबा साहब के निर्वाण तथा बुद्धत्व प्राप्ति की झूठी अफवाह से खुद को मुक्त करके उनके सामाजिक न्याय के मिशन को आगे बढाना चाहिये। बाबा द्वारा दिये गये संविधान को जानना, समझाना, मानना, लागू करवाना और संविधान को बचाना हमारा सबसे बड़ा धर्म होना चाहिये। अन्यथा हमें बाबा साहब के नाम का जप करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। फासिस्टवादी विचारधारा के मनुवादी संविधान को तहस-नहस करने में लगे हुए हैं और बाबा के अनुयाई नमो: बुद्धाय तथा मूलनिवासी की भ्रामक धारणा में उलझ गये हैं। जबकि हम अनार्यों की समस्या नस्लीय विभेद की नहीं होकर, जन्मजातीय विभेद की है। कड़वा सच तो यह है कि निर्वाण और बुद्धत्व ने बाबा का मिशन भटकाया है। बिना निर्वाण बाबा को निर्वाणी घोषित कर दिया और बाबा के नाम के साथ बुद्धत्व को जोड़कर बाबा को केवल और केवल बौद्धों का नेता बना दिया है।

 

 

@ डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

 

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