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शरद यादव का अवसान या पुनरोदय?

 

लेखक: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
भारतीय राजनीति में शरद यादव किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। अनेक लोगों का मानना है कि बहुत से राजनीतिक उतार-चढावों के बावजूद भी वर्तमान भारत में सामाजिक न्याय की अवधारणा के सच्चे अनुयाईयों तथा संसदीय परम्पराओं के समर्थकों में शरद यादव जिंदा मिशाल हैं।



 

 

पूर्व में भाजपा की साझी बिहार सरकार में मौन धारण करने के बाद, अचानक हृदय परिवर्तन हो गया या कोई राजनीतिक बदलाव, लेकिन इस बार शरद यादव, नीतीश कुमार से अलग हो गये। पिछली साझी बिहार सरकार के समय शरद यादव जनता दल (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे। अत: तब उनके लिये भाजपा के साथ साझी सरकार चलाने का विरोध करना अधिक सुगम था, लेकिन तब वे चुप रहे (?) इस बार जब उनसे राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी छिन गयी, तब भाजपा का विरोध करना, उन्हें क्यों उचित लगा (?), यह तथ्य अपने आप में अनेक सवालों को जन्म देता है? राजनीति के जानकार अनेक लोगों का मानना है कि अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी छिन जाने के कारण ही शरद यादव का यह कूटनीतिभरा निर्णय है। जिसके तहत वे संघ-भाजपा से दूरी बनाकर जनता दल के गठन के समय प्रारम्भ की गयी सामाजिक न्याय की लड़ाई को आगे बढाने को कृतसंकल्प बताये जाते हैं।

 

 

इस क्रम में 4 दिसम्बर, 2017 को उनकी राज्यसभा की सांसदी तो छिन ही चुकी है। आने वाले तीन महिनों में दिल्ली स्थित बंगला भी खाली करना पड़ेगा। ऐसे में शरद यादव का अपने ही दल के विरोध में शुरू किया गया राजनीतिक अभियान और खुद उनका राजनीतिक जीवन क्या मोड़ लेगा? यह वर्तमान राजनीति के दांव-पेचों के जानकारों के लिये गम्भीर विषय हो सकता है। क्योंकि भारत की वर्तमान राजनीति के हालात शरद यादव जैसे राजनेता के अवसान या पुनरोदय दोनों ही दिशाओं के मार्ग प्रशस्त करते हैं। यह शरद यादव के राजनीतिक कौशल पर निर्भर करता है कि उनके द्वारा कब और क्या निर्णय लिये जाते हैं?

 


डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'

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