लेखक : डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
"केवल जज ही बेहतर जज को चुन सकते हैं, क्योंकि जज ही उनके बारे में बेहतर जानते हैं।"
बेशक सरकार की ओर से प्रस्तावित न्यायिक चयन आयोग में अनेक खामियां हो सकती थी, लेकिन संविधान की समीक्षा के नाम पर सुप्रीम कोर्ट की उपरोक्त राय लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था को ध्वस्त करने वाली दिशा में आगे बढ़ रही है। यह राय संसद की सर्वोच्चता नष्ट करने वाली है। जनता की राय जो संसद के मार्फत अभिव्यक्त होती है-इस आधारभूत लोकतांत्रिक सत्य का मजाक उड़ाने वाली है।
केवल जज ही सही और बेहतर जज चुन सकते हैं। यह विचार सम्पूर्ण संवैधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था को धता बतलाकर कथित न्यायिक बौद्धिकता की मनमानी और अधिक सही कहें तो न्याय की आड़ में तानाशाही स्थापित करने का आर्यन चिंतन है। जिसमें देश की जड़ों से जुड़े और भारत से सच्चे न्यायिक प्रतिनिधियों को कोई जगह नहीं है। जिसका जीता-जागता उदाहरण देश का सबसे बड़ा राज्य राजस्थान है। राजस्थान हाई कोर्ट में संविधान लागू होने से आज तक एक भी अजा या अजजा का ऐसा विधिवेत्ता कोलेजियम को नजर नहीं आया, जिसे जज नियुक्त किया जा सकता! आखिर क्यों? कोलेजियम की कथित न्यायिक और निष्पक्ष चयन प्रक्रिया के पास क्या इसका कोई न्यायसंगत जवाब है?
केवल यही नहीं इस निर्णय के कारण अब बहुत से नये सवाल खड़े होंगे।
1. अब डॉक्टर कहेंगे कि डॉक्टर ही श्रेष्ठतम डॉक्टर का चयन कर सकते हैं। लोक सेवा चयन आयोगों को इसकी समझ नहीं होती है।
2. राजनेता ही बेहतर सांसद और विधायक चयन कर सकते हैं। अनपढ जनता को इसकी समझ नहीं होती है।
3. पुलिस महानिदेशक ही पुलिस प्रशासनिक अफसरों के चयन का दावा करके संघ लोक सेवा आयोग के चयन सिस्टम को अनुचित करार दे सकते हैं।
4. रेलवे, बिजली, लोकनिर्माण, दूर संचार, कस्टम और अन्य तमाम तकनीकी विभागों के उच्चतम अफसर खुद ही अपने विभाग में अधीनस्थ अफसरों की नियुक्ति अपने हाथ में ले सकते हैं।
5. खेल संघों पर क्यों राजनेताओं का कब्जा है? खिलाड़ी ही क्यों न खिलाड़ियों का चयन करें?
क्या ऎसे अनेकों सवाल खड़े नहीं होंगे?
कुछ दिनों पूर्व सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों की ओर से निर्णीत किया गया कि भगवान (पत्थर की मूर्ति) को किस मन्त्र से जगाया जाए, इसका निर्णय केवल पुजारी ही कर सकने को अधिकृत है। अर्थात सुप्रीम कोर्ट पत्थर के भगवान और भगवान के पुजारी को मान्यता दे चुके हैं। उस पुजारी को जिसका चयन योग्यता नहीं जन्म और मनुवादी सिस्टम से तय होता है, जो आर्य ब्राह्मणों की दैन है। इससे मनुवादी व्यवस्था को संविधान की संरक्षक न्यायपालिका का न्यायिक समर्थन मिल गया। उसी विचार को आगे बढ़ाते हुए बहुसंख्यक आर्य जज खुद ही आर्य जजों को नियुक्त करने का सर्वोच्च अधिकार बलात् अपने कब्जे में रखने का निर्णय सुनाने में सफल रहा है।
क्या सुप्रीमकोर्ट के इसी निर्णय के प्रकाश में और साथ-साथ संविधान की 5वीं अनुसूची के समर्थन के होते हुए इस देश के असली मालिक---आदिवासी----को जल, जमीन और जंगल से जुड़े समस्त निर्णय करने का स्वाभाविक और वास्तविक जो हक है, उसमें सरकार तथा न्यायपालिका दखल नहीं देंगी? क्योंकि---
1. जल, जमीन और जंगल अर्थात भारत की भूमि पर एक मात्र भारत के वास्तविक मालिक आदिवासी का हक है।
2. जल, जमीन और जंगल के बारे में केवल और केवल आदिवासी को ही सर्वाधिक और श्रेष्ठतम पुश्तैनी ज्ञान होता है।
3. आदिवासियों से सम्बंधित सभी विषय केवल आदिवासी ही निर्णीत करेगा। आखिर सुप्रीम कोर्ट के ही शब्दों में इस देश के वास्तविक मूलवासी अर्थात आदिनिवासी केवल आदिवासी ही हैं।
उपरोक्त के साथ-साथ दलितों-पिछड़ों के मामलों में आर्यों को निर्णय लेने हक क्यों हो? महिलाओं से सम्बंधित विषयों पर पुरुषों के बजाय केवल महिला संसद को ही अंतिम निर्णय करने का हक क्यों नहीं होना चाहिए?
यदि उपरोक्त सवालों से न्यायसंगत समाधान सुप्रीम कोर्ट के उक्त न्यायिक सर्वोच्चता के मनमाने सिद्धांत से निकल सकते हैं, तब तो सुप्रीम कोर्ट की बात सही मानी जा सकती है, अन्यथा संविधान की समीक्षा के नाम पर सुप्रीम कोर्ट को समान नागरिक संहिता जैसी मनुवादी और सामन्ती प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाली बात कहने का कोई हक नहीं है!
कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट का न्यायिक सर्वोच्चता को संविधान से ऊपर स्थापित करने वाला यह निर्णय संसदीय लोकतन्त्र और संवैधानिक ढांचे लिए खतरा है।
: डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
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