साठोत्तरी मिथकीय नाट्य-काव्य
‘नाट्य-काव्य’ एक एेसी विधा है जिसमें काव्यात्मकता और नाटकीयता का सम्मिश्रण देखा जाता है। ‘नाट्य’ एवं ‘काव्य’ दो पृथक विधाएँ हैं, इनके तत्व भी अलग-अलग हैं। किंतु नाट्य-काव्य में इन विधाओं का संयोजन दिखाई देता है। दोनों एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक दिखाई देते हैं। डा. राजपाल कहते हैं “हिंदी में एेसी रचनाएँ नाट्य-काव्य हैं, जो मूलत: काव्य है तथा संवेदना की तीव्रता की अभिव्यक्ति के लिए उनमें नाटकीय आधार अपनाया गया है।”1 भारत में इस परंपरा का कारण कवि और नाटककार का सम्मिलित व्यक्तित्व रहा है। नाट्यकाव्य का अविर्भाव भले हीं आधुनिक युग में हुआ हो, मगर उसकी जडें या प्रारंभिक सूत्र हमें वेद, उपनिषद, पुराण आदि ग्रंथों में मिलते हैं। प्रारंभिक कविताओं में नाटकीय तत्व विध्यमान थे उसी प्रकार नाटक भी कवितामयी थे। ऋग्वेद में इस प्रकार के उत्कृष्ट नमूने उपलब्ध हैं, जैसे “ऋग्वेद के दशम मण्डल में उर्वशी और पुररवा के प्रेम प्रसंग को लेकर लिखे गये सूक्त में मार्मिक तथा गत्यात्मक कार्यव्यापार से युक्त आख्यान भावपूर्ण संवादात्मक शैली में निबद्ध हुआ है, जो उत्कृष्ट नाटकीय कविता का निदर्शन है। इसी मण्डल में यम-यमी का मार्मिक-संवाद-सूक्त भी नाटकीय कविता का सुंदर उदाहरण है।”2 वेदों से प्रेरणा लेकर संस्कृत साहित्य में भी एेसी बहूतसी रचनायें लिखी गई हैं। “कालिदास के रघुवंश का दूसरा सर्ग, जिसमें नंदिनी पर आक्रमण करनेवाले मायावी सिंह और राजा दिलिप के मार्मिक संवाद, जो नाटकीय कविता का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तूत करता है। रघुवंश के छटे सर्ग का इंदूमती स्वयंवर का चित्रण भी नाटकीय कविता की दृष्टि से उल्लेखनीय है।”3 हिंदी साहित्य संस्कृत साहित्य से प्रभावित रहा है। अत: हिंदी साहित्य की आरंभिक रचनाओं में, भक्तिकाल और रीतिकाल के कुछ ग्रंथों में भी नाटकीय कविता के श्रेष्ठ नमुने उपलब्ध हैं। यह परंपरा ही आधुनिक युग में ‘नाट्य-काव्य’ नामक नयी विधा के आविर्भाव में मूल स्त्रोत रही है। इसके नामकरण के संबंध में विद्वानों में भले हीं विवाद रहा हो, मगर इसके स्वरूप पर प्रकाश डाला जाय तो ‘नाट्यकाव्य’ नाम ही समीचीन प्रतीत होता है।
आधुनिक युग में एेसी बहूतसी रचनायें लिखी गयी जो ‘नाट्य-काव्य’ की कोटी में शामील होती हैं। जैसे- करूणालय, पृथीकल्प, उत्तर-प्रियदर्शी, काठमहल आदि, जो विविध विषयों के धरातल पर जैसे वैज्ञानिक, एेतिहासिक, काल्पनिक, मिथकीय आदि रहे हैं। इनमें अधिक से अधिक रचनायें मिथकीय रही हैं।
‘मिथक’ शब्द अंग्रेजी के ‘मिथ’ शब्द से गढ लिया गया है। “मिथ’शब्द काृ उद्भव यूनानी ‘मुथास’ से हुआ है, जिसका अर्थ ‘मौखिक कथा है।”4 हिंदी में मिथक के लिए पुरावृत्त, पूराकथा, कल्पकथा, देवकथा. धर्मगाथा, पुराणकथा, पुराख्यान आदि अनेक शब्द प्रयुक्त किये जाते हैं। विचारकों के बहूत बडे वर्ग के मतानुसार ‘मिथक अतिप्राकृत संसार की कथाएँ हैं।5 ‘उनमें प्रधानतया देवी-देवताओं के वृत्त होते हैं, जिसका धार्मिक महत्व होता है।’6 ‘मिथक जातीय अतीत का सबसे बडा खजाना है।’7 मिथक का सर्जक आदिम मानव था। आदिम मानव जिन वस्तुओं को जान न सका, एेसी वस्तुओं पर उसने अतिमानवीय शक्ति या किसी दैवी-शक्ति का आरोपण किया। जिससे मिथकों का जन्म हो गया। मिथकों का संसार “देवी शक्तियों का संसार है।”8 मिथक को मात्र कपोल कल्पित कथा भी नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: मिथक का क्षेत्र इतना व्यापक है कि मिथक को संपूर्णत: परिभाषित नहीं किया जा सकता। इन कथाओं का “प्रारंभिक रूप है किसी कवि द्वारा इन आदिम मौखिक कथाओं को लेखनीबद्ध करना। लेखनीबद्ध होकर ये कथाएँ किसी भी साहित्य की अनुपम निधी बन जाती है।”9 भारतीय संस्कृति के मिथक एक युग से दूसरे युग में पदार्पन करते आ रहे हैं। मिथक प्रत्येक युग की वास्तविकता को नये-नये संदर्भों के साथ अभिव्यक्त करता है जटिल से जटिल यथार्थ को सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान करता है। “कभी-कभी किसी युग में ठीक वैसे ही संदर्भ आ खडे होते हैं जैसे किसी पूर्व युग में प्रस्तुत हुये थे और हम अतीत में प्रवेश करके अपने संदर्भ से नये संकल्प के साथ साक्षात्कार करते हैं।”10 मिथक अतीत और वर्तमान के बीच का वह सेतु है जिस पर खडे होकर युगीन समस्याओं पर दृष्टि डाली जा सकती है। इस प्रकार मिथकों के धरातल पर लिखे गये नाट्य-काव्यों के माध्यम से पाठक की मानसिकता को अतीत से जोड़कर जीवन के शाश्वत तथ्यों से परिचित करवाके नई पीढि को चारित्रिक शिक्षा देने का उद्धेश्य कवि का रहा है।
मिथकीय धरातल पर लिखे गये नाट्य काव्यों में जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित ‘करूणालय’ (1913) को ही प्रथम मिथकीय नाट्य-काव्य कहा जा सकता है। इसका कथानक ‘एेतरेय ब्राह्मण’ के शुन:शेफ के आख्यान पर आधारित है। कवि ने प्रचलित कथ्यांश को आधार बनाकर युगानुरूप परिवर्तन करके परंपरित अंधविश्वासों, रूढि़यों एवं मान्यताओं पर प्रकाश डालते हुए नर-बली जैसी समस्या को उठाया है।
करूणालय के पश्चात् मिथकीय धरातल पर लिखे गये नाट्य-काव्यों में मैथिलीशरण गुप्त द्वारा लिखित लीला, भगवतीचरण वर्मा द्वारा रचित तारा, कर्ण और द्रौपदी, उदयशंकर भट्ट कृत विश्वामित्र और दो भाव नाट्य, निराला कृत पंचवटी प्रसंग, धर्मवीर भारती कृत अंधायुग आदि रचनायें मिलती हैं।
साठोत्तर युग में मिथकीय पृष्ठभूमि पर बहूत से नाट्य-काव्य लिखे गये, जिनके माध्यम से वर्तमानकालीन जटिल समस्याओं का उद्घाटन कवियों ने किया हैं। साठोत्तरी कवियों ने मिथक को शस्त्र बनाकर युगीन संदर्भों पर वार किया है। इस संदर्भ में नरेश मेहता द्वारा लिखित ‘संशय की एक रात’ नाट्य-काव्य मिथक रामायणी कथा से जुडा हुआ है। इसमें लंका-युद्ध के पूर्व की रात की घटना को चित्रित किया है। प्रस्तुत रचना में राम सतयुग के राम न होकर, आधुनिक युग की समस्याओं से ग्रसीत साधारण मनुष्य के रूप में चित्रित राम नजर आते हैं। कवि ने युद्ध की अनिवार्यता को लेकर राम के मन का अंतद्र्वंद्व प्रस्तुत करके युद्ध की समस्या और उससे संबंधित प्रश्नों पर चिंतन व्यक्त किया है।
रावण के साथ होनेवाला युद्ध अथवा शांति में किसे अपनाएँ इससे राम संतप्त हो जाते हैं। निराला ने ‘राम की शक्तिपूजा’ में राम को रावण की विजय के भय से संशयित दिखलाया है; जबकि ‘संशय की एक रात’ के राम का संशय सर्वथा भिन्न है। उनके संशय के मूल में कायरता न होकर सिता-प्राप्ति हेतु युद्ध में होनेवाले जन-विनाश का वे कारण नहीं बनना चाहते;
“व्यक्तिगत मेरी समस्याएँ
क्यों एेतिहासिक कारणों को जन्म दें।”11
वे स्वयं को सभी अप्रिय घटनाओं का उत्तरदायी मानते हुए कहते हैं:
“हाय
आज तक मैं निमित्त ही रहा
कुल के विनाश का
लेकिन
अब नही बनूँगा कारण
जन के विनाश का।”12
राम का संशय, उस विवेकी व्यक्ति का संशय है जो जनहित और जनरक्षा जैसे उदात्त लक्ष्य के प्रति स्वयं समर्पित होता है। इसीलिए वे संघर्ष के द्वारा सीता तक को प्राप्त नहीं करना चाहतें। युद्ध की विभिषिका से युद्ध न करने का राम का संकल्प मानवतावादी दृष्टि को भले हीं दर्शाता हो, किंतु कई बार अधिकार, न्याय एवं स्वप्न के रक्षार्थ भी युद्ध को स्विकारना पडता है। अंत में लक्ष्मण, हनुमान आदि के विचारानुसार परिषद का निर्णय युद्ध के पक्ष में होता है, जिसे राम भी स्वीकार करते हैं। यहाँ पर कवि ने जीवन में कर्म की महत्ता को प्रस्थापित करते हुए, भगवतगीता के निष्काम कर्म की धारणा का सहज बोध कराया है।
युद्ध एवं शांति भारत की ही नहीं, विश्व की सनातन समस्या बन चुकी है। कहीं वैयक्तिक स्वार्थों के लिए तो कहीं जन हितार्थ युद्ध होता है। दोनों में से कोई भी कारण युद्ध के मूल में रहा हो, किंतु जन-विनाश तो अवश्य होता ही है। शांति बनाए रखने का प्रयास भी हर युग में होता आ रहा है। चाहे वह रामायण कालीन युग हो या महाभारत कालीन। महाभारत का युद्ध अपमान के बाद प्रतिशोध और विनाश की स्थिति को उद्घाटित करता है। इसी का चित्रण ‘अश्वत्थामा’, ‘महाप्रस्थान’, ‘एक प्रश्न मृत्यु’ आदि साठोत्तरी नाट्य-काव्यों में हुआ है। लक्ष्मीनारायण भारद्वाज कृत ‘अश्वत्थामा’ नामक नाट्य-काव्य का कथानक कृष्ण और अश्वत्थामा के संवादों से स्पष्ट होता है। अश्वत्थामा, महाभारत युद्ध में कौरवों के विनाश का कारण कृष्ण की कुटनीति को मानता है। दोनों एक-दूसरे पर दोषारोप करते हैं। प्रस्तुत रचना में अश्वत्त्थामा की मन:स्थिति का चित्रण धर्मवीर भारती कृत ‘अंधायुग’ में स्थित अश्वत्थामा की मन:स्थिति से भिन्न नहीं है। दोनों रचनाओं में अन्याय, अत्याचार से प्रतिशोध की ज्वाला में धधकते हुए अश्वत्थामा सभी समस्याओं के मूल में कृष्ण को देखता है। युद्ध से विनाश का दायित्व वह कृष्ण पर डालता है। अपमान, प्रतिशोध में कौरवों-पांडवों के बीच का युद्ध एवं सर्वस्व नष्ट हो जाने पर ‘निर्वेद’ की स्थिति का चित्रण ‘महाप्रस्थान’ नाट्य-काव्य में चित्रित हुआ है। नरेश मेहता ने युद्धोपरांत पाण्डव दल के महाप्रस्थान की चर्चा करते हुए व्यक्ति, जीवन, समाज, राजा, राज्य एवं व्यवस्था तथा व्यक्तित्व संबंधी विचार प्रस्तुत किये हैं। अंधायुग में युद्ध के बाद पुण्यहत अस्त-व्यस्त कौरव नगरी की श्रीहीनता का वर्णन मिलता है, जिसमें युधिष्टिर के गहन अवसाद का चित्रण बडे मार्मिक ढंग से किया गया है। नरेश मेहता ने भी ‘महाप्रस्थान’ में उससे मेल-जोल रखते अनुभवों को लिया है-
“उस पर राज्य प्राप्ति का अनुभव
जल को मुट्टी से कसने के जैसा
वीर्यहीन, अपदार्थ रहा।
यह राज्यारोहन था
या था शवसाधन
कापालिक का?”13
युगबोध की सार्थक अभिव्यक्ति का यह सशक्त नाट्य-काव्य रहा है। युद्ध की अनिवार्यता को आत्मसात कर नारी मन की गहराइयों को सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान करने का कार्य डा.विनय ने ‘एक प्रश्न मृत्यु’ नामक नाट्य-काव्य में किया है। डा.विनय ने कर्ण के जीवन-चरित को उद्घाटित करते हुए कुंती की अंतस पीडा का चित्रण किया है। धनुर्धारी अर्जुन और दानवीर कर्ण दोनों के मध्य भयंकर युद्ध के मूल में वह स्वयं को पाती है। कर्ण-जन्म के सत्य को उसी समय उद्घाटित कर देती, तो अपने हीं बेटों के बीच का यह युद्ध टल सकता था मानती है:
इसने बड़े मूल्यगत-हास के बीच
कब से जी रही हूँ मैं
इस समय विद्रोह कर देती तो संभव था
आगे की अनैतिक श्रृंखलाएँ न बनतीं
युद्ध नहीं होता यह
अपने पुत्रों कीे प्राणरक्षा का प्रश्न
अपने ही पुत्रों के सामने न होता।”14
वह अपने अनैतिक व्यवहार (सूर्य से कर्ण-जन्म) को स्वीकार कर सत्य को उद्घाटित नहीं कर पाई उसका उसको पश्चाताप होता है। इतना ही नहीं, कर्ण से पांडवों की रक्षा का वचन ले कुंती युद्ध को टालने का भरसक प्रयत्न करती है। अंतत: युद्ध होता ही है, जिसमें कर्ण मारा जाता है। कुंती युद्ध में होने वाले नरसंहार का समस्त दायित्व अपने पर लेती है। अभिनय की दृष्टि से भी यह सफल रचना रही है।
साठोत्तरी युग में 1962 के भारत-चीन युद्ध से जोडा जानेवाला दुष्यंत कुमार द्वारा लिखित ‘एक कंठ विषपायी’ नामक नाट्य-काव्य ‘दक्ष-यज्ञ-विध्वंस’ के प्रसंग पर आधारित है। दक्ष द्वारा यज्ञ में शंकर को आमंत्रित न करने पर भी सती का यज्ञ में पहुँच जाना, पति के सम्मान की रक्षा के लिए आत्मदाह कर लेना, क्रोधित शिव के गणों द्वारा यज्ञ का विध्वंस और शिव का सती के शव को कंधे पर उठाये घुमना तथा देवलोक को युद्ध की चुनौती देना इस नाट्य-काव्य का मिथकीय सूत्र रहा है। ‘अंधायुग’ का अश्वत्थामा जिस प्रकार प्रतिहिंसा में धधकता रहता है और कृष्ण पर युद्ध का दायित्व आरोपित करता है उसी तरह शिव भी प्रतिहिंसा में युद्ध का एेलान कर इसका दायित्व देवों पर डालते हैं:
“आह!
देवों ने रची यह
दुरभिसंधि विरूद्ध,
और इसका अर्थङ्ग
केवल युद्धङ्ग
केवल युद्धङ्ग!!15
अपमानित व्यक्ति प्रतिशोधात्मक दृष्टि से संघर्ष अथवा युद्ध का मार्ग अपनाता है। इसकी पुष्टि शिव के प्रतिशोध की भावना से होती है। अंतत: विष्णु की चतुराई से युद्ध टल जाता है। इस प्रकार साठोत्तरी युग में जो ज्वलंत युद्ध की समस्या रही है उसीको केंद्रबिंदु बनाकर अनेक नाट्य-काव्य लिखे गये। इसके लिए कवियों ने मिथकीय पृष्ठभूमि का वरण किया जो अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुआ है।
साठोत्तरी कवियों ने आधुनिक युग की नारी समस्या को उद्घाटित करने के लिए मिथकीय धरातल पर अनेक नाट्य-काव्य लिखें, जिनमें ‘सीता’ के जीवन प्रसंगों के माध्यम से नारीवादी दृष्टिकोण का भी परिचय दिया हैं। प्रवाद पर्व, अग्निलीक, खण्ड-खण्ड अग्नि आदि नाट्यकाव्यों में ‘सिता’ को आधुनिक युग की विद्रोही नारी के रूप में चित्रित किया है। दीविक रमेश द्वारा लिखित ‘खण्ड खण्ड अग्नि’ नामक नाट्य-काव्य में सीता की अग्नि-परीक्षा जैसे प्रसंग के धरातल पर नारी की मन:स्थिति का चित्रण किया है, जो हर युग में किसी-न-किसी अग्नि परीक्षा से गुजर रही है। प्रस्तुत रचना में राम, सीता को पर परूष (रावण) के यहाँ रहने के कारण अस्वीकार करने का अपना निर्णय स्पष्ट करते हैं। राम के इस देहवाद16 के कारण सीता व्यंग्य भी करती है और नियंत्रित आक्रोश भी प्रकट करती है। किंतु अंत में उसे अपनी पवित्रता को स्थापित करने के लिए अग्नि-परीक्षा से भी गुजरना पडता है। जिसमें वह सफल भी हो जाती है। पर राम पर आक्रोश प्रकट करते हुए कहती है:
“क्षमा नहीं किये जाओगे राम
सीता सी नारियों से
किसी भी युग में।”17
नरेश मेहता लिखित ‘प्रवाद पर्व’ की सीता एक साधारण धोबी द्वारा उसकी पवित्रता पर उँगली उठाने से, राम उसका परित्याग करता है। तब वह इस प्रकार आक्रोश प्रकट करती है:
“इतिहास के निर्माता
घर-परिवार की भाषा में
बातें नहीं किया करते
उन्हें तो दुर्गों, प्रासादों और युद्धों का व्याकरण ही
कण्ठाग्र होता है।”18
इस रचना में राजा, प्रजा और शासन व्यवस्था में पारिवारिक संबंध किस सीमा तक महत्वपूर्ण होते हैं, इसका प्रभावपूर्ण ढ़ंग से चित्रण किया है। भारत भूषण अग्रवाल कृत ‘अग्निलीक’ की सीता, खण्ड-खण्ड अग्नि तथा प्रवाद पर्व की सीता से भी अधिक विद्रोही है। वह अपनी ओर हुए अन्याय को आँखे मुँद कर नहीं सहती, बल्कि राम द्वारा परित्याग करने से आहत होकर वाल्मीकी से कहती है:
“मैं दु:खी नहीं हूँ, मैं गरज रही हूँ
जो मेरे पति हैं
हाय वे मेरे पुत्रों के पिता भी हैं
नहीं तो मैं आपको दिखा देती
कि नारी क्या कर सकती है।”19
वह वाल्मिकी को भी राम राज्य का चारण कहने से नहीं चुकती:
“आप नहीं समझेंगे गुरूदेव;
इस यंत्रणा को आप नहीं समझेंगे।’
आप भी तो पुरूष हैं-
राम राज्य के चारण!”20
इन नाट्य-काव्यों की तरह ‘रामराज्य’, ‘कैकेयी’, ‘अरूण-रामायण’, ‘जानकी-जीवन’, ‘सीता-समाधी; ‘भूमिजा; ‘शंबूक’ आदि रचनायें हैं जो सीता के मनोभावों की अभिव्यक्ति करते हैं। साठोत्तरी कवियों ने सीता पर हुए अन्याय पर केवल सीता को ही विद्रोही रूप में चित्रित नहीं किया हैं, बल्कि रावण, लक्ष्मण, शंबूक आदियों के माध्यम से भी आक्रोश प्रकट किया है। ‘भूमिजा’ में रावण, राम द्वारा सीता का परित्याग करने पर आक्रोश प्रकट करते हुए राम से कहता है:
“राम! बताओ जग के भ्रम पर
क्यों सीता को त्यागा?
टूटा करते धनुष्य, टूटता-
नहीं ब्याह का धागा।”21
इसी तरह ‘शंबूक’ नाट्य-काव्य में शंबूक राम से प्रश्न करता हुआ पूछता है:
“स्नेह था तो छोड देते
राम तुम भी राज्य
क्यों हुई केवल
तुम्हारे हेतु सीता त्याज्य”22
‘अग्निलीक’ नाट्य-काव्य में एक रथवान राम को स्वार्थी राजा कहता है:
“उन्हें तो अपना खोया राज्य पाना था!
जिसके लिए वे चौदह बरसों तक जंगलो में भटके थे
वह अब आँखों के आगे था!
भूल का नहीं, दयानिधान,
उन्होंने राज्य का मोल चुकाया है।”23
सीता उन नारियों का प्रतिनिधित्व करती है जो पुरूषों द्वारा शोषित होती आ रही हैं, चंद मुट्ठीभर स्त्रियाँ अपनी ओर हुए अन्याय, अत्याचार के विरोध में विद्रोह भी करती हैं। इस समस्या पर अनेक योजनाओं आदि के द्वारा समाधान ढूंढा जा रहा है। किंतु नये-नये रूपों में यह समस्या आज भी वैसे ही बनी रही है। डा.विनय जी ने भी नारी चेतना को लेकर ‘एक पुरूष और’ नामक नाट्य-काव्य में कुछ इस तरह मेनका के माध्यम से उदधृत किया हैं:
“मैं ही अकेली नहीं टूटी
टूट रहा है पूरा युग
कैसे बच रह सकती है मेरी नैतिकता
इस युग में जिसमें गर्भाधान
एक मजबुरी हो, सुख नहीं।”24
प्रस्तुत रचना मेनका द्वारा विश्वामित्र का तपोभंग करने के प्रसंग पर आधारित है। मेनका और विश्वामित्र के माध्यम से नर-नारी संबंधों का पुनर्मूल्यांकन करते हुए पाप-पुण्य, वैध-अवैध, नैतिकता-अनैतिकता के मध्य द्वंद्वमय मनुष्य का चित्रण किया है। मनुष्य के अस्तित्व संकट को दर्शाया है।
दिनकर द्वारा लिखित ‘उर्वशी’ नामक नाट्य-काव्य में उर्वशी-पुररवा की प्रेमकथा को रूपायित करते हुए काम की समस्या को नये धरातल पर प्रस्तुत किया है। पुरूष और नारी का शाश्वत संबंध इस काव्य का मूल कथ्य रहा है।
इस तरह निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आधुनिक युग में अन्य विधाओं की तरह नाट्य-काव्य नामक विधा का भी पर्याय मात्रा में विकास दिखाई देता है, जिनमें विविध विषयों को लेकर रचनायें लिखी गई हैं। साठोत्तरी युग में मिथकीय धरातल पर अधिक से अधिक नाट्य-काव्य लिखे गये। लेखक का उद्धेश्य पौराणिक प्रसंगों की पुनरावृत्ति न होकर उनके माध्यम से वर्तमान कालीन जटिल समस्याओं को उद्घाटित करने का रहा है। जिसमें रचनाकारों को पर्याप्त सफलता मिली है, अगर कहें तो गलत नहीं होगा।
संदर्भ ग्रंथ :
1. डा.हुकुमचंद राजपाल, हिंदी नाट्य-काव्य पुनर्मूल्याम्कन - पृ सं ट्ट 14
2. डा.हरिश्चंद्र वर्मा, नयी ट्ट पृ सं - 98
3. डा.हरिश्चंद्र वर्मा, नयी ट्ट पृ सं - 98
4. डा.जगदीश चतुर्वेदी ट्ट मिथकीय कल्पना और आधुनिक काव्य ट्ट पृ सं ट्ट 6
5. कह्ळ्ण्ल् ग्य्ज् ळ्ण्ज् ळ्ग्न्ज्ल् ब्झ् ल्व्भ्ज्य्फ्ग्ळ्व्य्ग्न् ष्ब्य्न्छ ग्फ्छ ल्ण्ग्य्ज् ग्न्ल्ब् ळ्ण्ज्य्ज्झ्ब्य्ज् ळ्ण्ज् च्ण्ग्य्ग्च्ळ्ज्य्त्ल्ळ्त्च्ल् ब्झ् ळ्ण्ज् य्ज्न्त्ञ्त्ब्व्ल् च्ब्प्भ्न्ज्स् ट्ट उफ्च्ह्च्न्ब्भ्ग्ज्छत्ग् ब्झ् ल्ब्च्त्ग्न् ल्च्त्ज्फ्च्ज्, श्ब्न्.II, ठ. छब् - 220
6. दळ्ग्फ्छग्य्छ ईत्च्ळ्त्ब्फ्ग्य्ह् ब्झ् झ्ब्न्ध्ब्य्ज्, कह्ळ्ण्ब्न्ब्ञ्ह् ग्फ्छ न्ज्ञ्ज्फ्छ उद्- मध्ययुगीन हिंदी साहित्य का लोक तात्विक अध्ययन ट्ट पृ सं ट्ट 39
7. डा.शंभुनाथ ट्ट मिथक और आधुनिक कविता ट्ट पृ सं - 4
8. डा. पुष्पा गर्ग ट्ट आधुनिक कविता और मिथक ट्ट पृ सं ट्ट 23
9. डा. मालती सिंह ट्ट मिथक: एक अनुशीलन ट्ट पृ सं ट्ट 55
10. रामकमल राय ट्ट नरेश मेहता कविता की उध्वर्वयात्रा ट्ट पृ सं ट्ट 77
11. नरेश मेहता ट्ट संशय की एक रात ट्ट पृ सं ट्ट 29
12. नरेश मेहता ट्ट संशय की एक रात ट्ट पृ सं ट्ट 4
13. नरेश मेहता ट्ट महाप्रस्थान ट्ट पृ सं 14
14. डा. विनय ट्ट एक प्रश्न मृत्यु ट्ट पृ सं ट्ट 56
15. दुष्यंत कुमार ट्ट एक कंठ विषपायी ट्ट पृ सं ट्ट 87
16. दिविक रमेश ट्ट खण्ड-खण्ड अग्नि, भूमिका ट्ट पृ सं ट्ट 8
17. दिविक रमेश ट्ट खण्ड-खण्ड अग्नि, भूमिका ट्ट पृ सं ट्ट 78
18. नरेश मेहता ट्ट प्रवाद पर्व ट्ट पृ सं ट्ट 79
19. भारत भूषण अग्रवाल ट्ट अग्निलीक ट्ट पृ सं ट्ट 42
20. भारत भूषण अग्रवाल ट्ट अग्निलीक ट्ट पृ सं ट्ट 42
21. रघुवीर शरण ‘मित्र’, भूमिका ट्ट पृ सं ट्ट 17
22. जगदीश गुप्त ट्ट शंबूक ट्ट पृ सं ट्ट 57
23. भारत भूषण अग्रवाल ट्ट अग्निलीक ट्ट पृ सं ट्ट 16
24. डा. विनय ट्ट एक पुरूष और ट्ट पृ सं - 73
डॉ.राजश्री मोकाशी
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