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नीतिवाक्यामृत की महत्ता---राजश्री मोकाशी

 

प्रस्तावना :
जिस तरह पृथ्वी आदिशेष के शीष पर टिकी हुई है, वैसे ही सारे विश्व का व्यवहार नीति पर टिका हुआ है। नीति ही एक मूल मंत्र है, जो सारे विश्व को सुख और शांति का मार्ग दिखा सकता है। इस विश्व में हर मानव नीति से परिचित है, फिर भी पालन करने में कभी-कभी असफल हो जाता है। अपना अस्तित्व भूल जाता है। अंधकार के गर्त में गिर जाता है। साहित्य क्षेत्र में संत सूफी तथा वीर आदि काव्य धाराएँ हैं, वैसे ही नीति काव्य धारा प्रज्वलित रूप में प्रचलित है। जिस प्रकार अमृत की एक बूँद मानव को जीवित रखने में समर्थ है, उसी प्रकार नीतिवाक्यामृत का भी प्रत्येक सूत्र जीवन के लिए महोपयोगी है।
अमर कोश के अनुसार संस्कृत में ‘नय’ तथा ‘नीति’ शब्द एक ही अर्थ के विधायक हैं। दोनों का उदगम भी प्रेरणार्थक धातु ‘नी’ (णीय) से है। व्याकरणानुसार इसमें ‘अय’ प्रत्यय लगने से ‘नी’ के ‘इ’ को गुण तथा ‘ए’ को ‘अय’ आदेश होने पर ‘नय’ शब्द सिद्ध होता है। इसी प्रकार ‘भावे स्त्रियांक्तित’ सूत्र से ‘नी’ धातु में लगे क्तिने प्रत्यय के ‘न’ तथा ‘क’ का लोप होने से केवल ‘ति’ ही शेष रहता है। धातु ‘नी’ के साथ संयोग होने से ‘नीति’ शब्द निष्पन्न होता है। इस आधार पर नीति का अर्थ होगा- लोक एवं परलोक सिद्धि का साधन- “नीयंते संतभ्यंते उपायोदय: एेहिकामुष्मिकार्था वा अनया।”1 ‘नीति’ के लिए अंग्रेजी में ‘एथिक्स’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। एथिक्स यूनानी शब्द ‘टा एथिकस’ से लिया गया है। इसका मूल शब्द ‘एथास’ था जिसका अर्थ है ‘चरित्र’।2
डा.भोलानाथ तिवारी ने ‘नीति’ के संदर्भ में निम्नलिखित व्याख्या प्रस्तुत की है- “समाज को स्वस्थ्य एवं संत्लित पथ पर अग्रसर करने एवं व्यक्ति को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की उचित रीति से प्राप्ति कराने के लिए जिन विधि या निषेध मूलक वैयक्तिक और सामाजिक नियमों का विधान देश, काल और पात्र के संदर्भ में किया जाता है, उन्हें ‘नीति’ शब्द से अभिहित करते हैं। नीति का प्रधान उद्धेश्य नैतिक शिक्षा देना है।”
नीति पदों को कन्नड में ‘तत्व पद’ कहते हैं। तत्व माने कल्पना नहीं है, वह तो सत्य वस्तु है। इस वस्तु के स्वभाव का विचार ही दर्शन है। दर्शन, तत्व रूप में समझानेवाली जिज्ञासा है। यह तत्व पद बुद्धि-प्रधान होते हैं। कन्नड साहित्य में तत्व पदों के लिए विशिष्ट स्थान रह चुका है। डा.तिप्पेरूद्रस्वामी का कहना है कि- “यह तत्व पर अंतरंग की पहचान का मूल तत्व जानते हैं इसलिए इन्हें तत्व पद कहा गया है।”3
उभय भाषाओं में अनेक प्रमुख नीतिकारों को हम देख सकते हैं। कन्नड के गीतिकारों में बसवण्ण, मुप्पिण षडक्षरी, सर्प भूषण शिवयोगी, कडकोळ मडिवाळप्पा, बाललीला महांत शिवयोगी घनमठ नागभूषण शिवयोगी आदि। उसी प्रकार हिंदी के प्रमुख नीतिकारों में बिहारी, वृंददास, घाघ, बैताल, गिरिधर कविराय, दीनदयाल गिरि आदि।
नीतिकाव्य के विषयों के संबंध में उभय भाषाओं के नीतिकारों ने अपने-अपने विचारों को व्यक्त करके व्यक्ति, समाज को सुधारने का, मानव कल्याण के लिए प्रयत्न किया है। नीतिकाव्य के अंतर्गत भगवान, दान, ज्ञान, सज्जनता, सत्संग, प्रेम आदि विषयों को लेकर विचार-विमर्श किया जा सकता है।
ड्ढ भगवान- भगवान को विविधता से पुकारते हुए कन्नड शरण कवियों ने भव-बंधन से छुटकारा प्राप्त करने के अनेक उपाय बताए है। वे भगवान से प्रार्थना करते हैं कि जो पापी है, नीच है, दुरात्मा है उसे माँफ करें, क्योंकि वह अज्ञानी है। इसके संबंध में मिप्पिण षडक्षरी का कहना है कि भगवान भक्त के मनोभिरूचि के अनुसार उसे दर्शन देता है। वे कहते हैं-
“अवरवरा दरूशनके
अवरवरा वेषदलि
अवरवरिगेल्ला गुरू नीनोब्बने
अवरवरा भावके
अवरवरा पूजेगे
अवरवरिगेल्ला शिव नीनोब्बने।”4
प्रत्येक के दर्शन के लिए उन्हीं के अभिरूचि के अनुसार उसी वेष में उन सभी को सिर्फ तुम ही गुरू हो। उनके भाव के अनुसार उनकी पूजा के अनुसार उन सभी के शिव तुम ही हो।
हिंदी के कवि बिहारी भगवान को इस प्रकार पुकारते हैं कि-
“मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोई।
जा जन की झाई परै स्यामु हरित दुति होई।।”5
हे भगवान मेरे हृदय में जो पीड़ा है उसे दूर करो। अनन्यता से भगवान को पुकारने से भगवान प्रसन्न होकर भक्तों के दु:ख-दर्द को दूर करते हैं और रक्षा करते हैं। इस तरह भक्त भगवान से प्रार्थना करता है।
ड्ढ दान- आवश्यकता से अधिक जो है, उसे सत्पात्र को देना ही दान है। दान देना एक सामाजिक मौल्य है। समाज की उन्नति के लिए दान देने की उचित भावना रखना अत्यंत आवश्यक है। दान का नाम सुनते ही हमें बसवण्णा जी की याद आ जाती है। वे कहते हैं कि-
“माडिदेनेंदु मनदल्ली होळेदरे,
एडिसि काडित्तु शिवन डंगुरा।।”6
जब देना चाहते हैं तो दिल खोलकर देना, कभी भी उसका स्मरण नहीं करना है। अगर उसका एहसास रहेगा तो शिव का डमरू डिंढोरा पिटेगा। यह बाह्याडंबर ही हो जाएगा।
भगवान दीन भी दान के बारे में अपने विचारों को इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि-
“देते समय न सोच तू पात्र, कुपात्र, सुपात्र।
दान सदेच्छा से दिया करे सुपात्र कुपात्र।”7
दान का महत्व इस प्रकार है कि, जब देना ही है तो आगे बढकर दे दो, वहाँ उचित-अनुचित मत सोचो। स्वतंत्र बुद्धि से दिया हुआ दान ही श्रेष्ठ है।
ड्ढ सज्जनता- सज्जनता से युक्त व्यक्ति पूर्ण कुंभ के समान है। सज्जन, समाज में मानव से महामानव बन जाता है। सज्जन दूसरों के सहायता से समाज में आन-शान प्राप्त करते हैं, दूसरों की सेवा में अपना जीवन समर्पित करते रहते हैं।
बाललीला महंत शिवयोगी सज्जनता के बारे में कहते हैं-
“केळु सज्जना सादाचारा सद्धर्मगुणा।
शील सम्यज्ञाना वीरशैवदा भक्ति।।
लोल सन्मतिचंद्र वीरांबिकेया मोक्षा वेंबु दोंदेसेयोळ्ळवे।।”8
सुनो सज्जन, सदाचार, सद्धर्मगुण शील, सम्यकज्ञान, वीरशैव भक्ति को अपनानेवाले सन्मतिचंद्र वीरांबिका की मोक्ष। इस तरह नीति बद्ध होने से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
सज्जन के बारे में दीनदयाल गिरि मे विचार यहाँ उदृत है-
“सुजन आपदन मैं करै औरन के दु:ख दूर।
महि गो कनक दिलावहों ग्रसे राहु ससि सूर।।”9
सज्जन आपत्ति में दोसरों के दु:ख दूर करते हैं। सज्जन हमेशा भलाई करते हैं।
ड्ढ ज्ञान- मानव जीवन में ज्ञान का पात्र बहुत ही महत्वपूर्ण है। ज्ञानी अपनी व्यक्तित्व विकास के साथ राड्ढ्र और समाज की अभिवृद्धि करता है। ज्ञान एक एेसा अन्मोल विद्या है, जो किसी से लूट नहें होता, चोर चोरी नहीं कर सकता। ज्ञान के महत्व को शरण कवि सर्पभूषण शिवयोगी इस प्रकार प्रतिपादित करते हैं-
“ज्ञान वोंदिल्ला दिरलु मिककादु
वेनिर्दोडेनु मुक्तियहुदे।।”10
ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं है, जितना सब कुछ होने पर भी ज्ञान और मुक्ति के समान और कुछ नहीं है।
हिंदी के बेताल कवि ज्ञान के बारे में अपने बहुमूल्य विचारों को इस प्रकार प्रकट किए-
हैं-
“सीस बिनू सूनी रैन ज्ञान बिनु हिरदै सूना।
कुल सूना बिनु पुत्र पत्र बिनु तरूवर सूना।।”11
चंद्रमा के बिना रात सूना लगता है, ज्ञान के बिना हृदय सूना लगता है, पुत्र के बिना जीवन सूना है, और वैसे ही पत्ते के बिना पेड सूना सूना है।
ड्ढ प्रेम- ‘प्रेम’ शब्द’ कितना मर्म स्पर्शी रहा है। प्रेम में इतनी अगाध शक्ति है कि बिना बताए सब काम अनायास चलते जाते हैं। प्रेम के सथ जीने का ढंग ही निराला है। कडिकोळ मडिवाळप्पा ने प्रेम, मोह के बारे अपने विचारों को बहुत ही सुंदरता के साथ व्यक्त किया है।
“तन्ना निजवु ता तिळियबेकादरे।
भिन्नभावद भ्रमे बिडबेको।।
तनुमनधनवन्नु उन्नत गुरूविगे।
मन्निसी मोहदी काडबेको।।”12
अपनी सत्यता को जानने के लिए भेद-भाव के भ्रम को छोडना होगा। गुरू को श्रेष्ठ मानकर अपने तन-मन-धन को प्रेम से सर्वसमर्पण करना चाहिए।
प्रेम को लेकर बिहारी ने भी इस प्रकार कहा है-
दृग डरझत टूटत कुटुम जुरत चतुर-चित प्रीत।
परति गाँठि दुरजत-हियै दई दई नई यह रीति।।”13
प्रीति में उलझने ढग हैं, टूटते कुटुंब हैं। जुडते चतुरों के चित्त हैं। पर गाँठ दुर्जनों के हृदय में पडता है। यह तो नई रीति ही है।
निष्कर्ष :
इस तरह कन्नड और हिंदी भाषाओं के नीतिकारों ने अपनी रूचि के अनुसार सारे विश्व के लोगों को सुझा-बुझा कर कल्याण की ओर ले जाने का प्रयास किया है। धर्म, नीति, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि की स्तुति करके जनता के जीवन में नयी रोशनी लाने का महत्वपूर्ण कार्य उभय भाषी शरण, संत, सूफि कवियों ने किया है।

संदर्भ ग्रंथ सूची-
1. श्री.झा तथा चतुर्वेदी : संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ ट्ट पृ सं ट्ट 611
2. वैब्सटर्स इंटरनेशनल डिक्शनरी में एथिकस तथा मोरल शब्द ट्ट पृ सं ट्ट 102
3. डा.एच.तिप्पेस्वामी ट्ट कन्नड कैवल्य साहित्य ट्ट पृ सं ट्ट 1
4. हईकर मंजप्पनवरू ट्ट सुबोधसार ट्ट पृ सं ट्ट 2
5. जगन्नाथ दास रत्नाकर ट्ट बिहारी सतसई ट्ट पृ सं ट्ट 1 दोहा ट्ट 1
6. सं.एम.एस.कलबुर्गी ट्ट बसवण्णनवर टीकिन वचनगळु ट्ट पृ सं ट्ट 235
7. भोलानाथ तिवारी ट्ट हिंदी नीति काव्य धारा ट्ट पृ सं ट्ट 135
8. सं.बसवनाळ ट्ट बाललीला महांत शिवयोगी ट्ट कैवल्य दर्पण ट्ट पृ सं ट्ट 175
9. भोलानाथ तिवारी ट्ट दृष्टांत तरंगिणी ट्ट पृ सं ट्ट 76
10. सं.महांतेश शास्त्री ट्ट कैवय कल्पवल्लरी ट्ट सर्पभूषण ट्ट पृ सं ट्ट 202
11. सं.भोलानाथ तिवारी ट्ट हिंदी नीतिकाव्य धारा ट्ट बैताल ट्ट पृ सं ट्ट 62
12. सं.मल्लिकार्जुन लट्ठे ट्ट कडिकोळ मडिवाळेश्वर वचनगळु ट्ट पृ सं ट्ट 22
13. सं.जगन्नाथ रत्नाकर ट्ट बिहारी रत्नाकर ट्ट पृ सं - 150

 

 

 

 

डॉ.राजश्री मोकाशी

 

 

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