“उत्तर प्रियदर्शी का मनोवैज्ञानिक पक्ष”
सच्चिदानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’ द्वारा लिखित ‘उत्तर प्रियदर्शी’ नामक नाट्य-काव्य सम्राट अशोक के जीवन में घटित घटना पर आधारित है। इसका कथानक प्रियदर्शी के उत्तरी रूप से संबंधित है। कवि ने एेतिहासिक घटना को मनोवैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत किया है। “उत्तर प्रियदर्शी में अज्ञेय ने उस मनोवैज्ञानिक संबंध सूत्र को खोजने का प्रयास किया है, जो अशोक के नरक-निर्माण, कलिंग विजय, दर्पस्फीत अहंता और उसके मोह-भंग के बीच रहा होगा और जिसके विषय में इतिहास मौन है।”1
प्रस्तुत नाट्य-काव्य का कथानक इस प्रकार रहा है- जब सम्राट अशोक पूर्व जन्म में बालक थे और पथ की धूल से खेल रहे थे, तब गौतम बुद्ध उधर से भिक्षा माँगते हुए निकले।2 यह देखकर बालक ने भी एक मुट्टी धूल उठाकर उन्हें दे दी।3 बुद्ध ने धूल ग्रहण कर उसे फिर धरती पर ही डाल दिया। इसी दान के फलस्वरूप कालांतर में वह जंबू द्वीप का राजा सम्राट अशोक हुआ। कलिंग विजय के पश्चात् की कथा में विजयी अशोक के अहंकार का चित्रण किया गया है। एक ओर विजय की प्रसन्नता तो दूसरी ओर से शत्रुओं के प्रेतों का उपद्रव। उसे नियन्त्रित करने के लिए प्रेतों के यमराज राजा के नरक-लोक से प्रेरित सम्राट अशोक ऊँची दीवारों से घिरे एक नरक निर्माण की योजना बनाता है। जिसमें उसके आदेशानुसार प्रेत-शत्रुओं को यन्त्रणा दी जा सके। इस कार्य हेतु राजा अशोक पाशविक वृत्तिवाले दीर्घकाय ‘घोर’ नामक व्यक्ति को नरक निर्माता और शासक के रूप में नियुक्त करता है और एकांत में उसे आदेश देता है कि यदि वह स्वयं भी नरक की सीमा में आये तो उसे भी अन्य दुष्टों की भाँति कठोर यंत्रणा दी जाये।4
एक भिक्षु नरक-सीमा में प्रवेश करता है। नरक के गण इसे पकड़कर खौलते कडाह में फेंक देते हैं, आग बुझ जाती है, कडाट ठंड हो जाता है और उसके बीच कोकनद कमल खिल उठते हैं। इस चमत्कार की सूचना मिलते हीं अशोक नरक की सीमा में प्रवेश करता है। यह देख घोर के आदेश से नरक के गण राजा पर कशाघात करते हैं, जिससे वह चीत्कार उठता है और घोर की सत्ता को चुनौती देता है। किंतु घोर उसकी प्रतिश्रुति का स्मरण दिला कर उचित दंड भोगने का आह्वान करता है। घोर के प्रहार से पीडि़त प्रियदर्शी भिक्षु के सामने गिर पड़ता है। अंत में भिक्षु के धर्मोपदेश से राजा के मन में करूणा जाग उठती है और वह बंधन मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार प्रस्तुत नाट्य-काव्य के प्रथम चरण में मन की अहंकार से क्रूरता तथा क्रूरता से विश्वास की ओर गमन-यात्रा का वर्णन है तो “दूसरे चरण में मन अपनी अहंता एवं क्रूरता की व्यावहारिकता के लिए अन्य लोगों को यंत्रणा या यातना देने का संकल्प करता है तथा एक अन्य साधन भी ढूंढ़ निकालता है। साध्य-साधन जब भी परस्पर टकराएँगे, तो तनाव बढ़ेंगे। मन के अंदर (प्रियदर्शी-घोर) टकराहट होती है, साधन साध्य पर हावी हो जाता है। एेसी स्थिति में मन दुष्प्रवृत्तियों (क्रूरता, क्रोध एवं अहंकार) के कारण पराजित होता है- पुन: उसे (क्रूर मन को) करूणा (भिक्षु) का आश्रय लेना पड़ता है। इस स्थिति को प्राप्त कर क्रूर-अहंता मन शांत हो जाता है”,5 जिस प्रकार अंत में अशोक के मन में करूणा उत्पन्न होती है।
अशोक के प्रसंग को आधार बनाकर कवि ने मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषण करते हुए आज के मानव की यंत्रणा को उद्घाटित किया है। “किस प्रकार व्यक्ति विजय (सफलता) में दंभी (अहंकारी) होता है, उसके अहंकार की तब उपेक्षा होती है, उसे जब अपमानित किया जाता है, तो उसके भीतर एक नया बोध जन्म लेता है।”6 दर्पस्फीत अहंता से वशीभूत अशोक शत्रु-प्रेतों को यातना देने के लिए जिस नरक की सॄष्टि करता है स्वयं भी एक दिन उसे उसी स्वरचित नरक की यातना भोगने पर विवश होना पड़ता है। स्वयं नाट्य-कवि का अभिमत है; “विजय लाभ पर पहले अहंकार, फिर अहंकार के ध्वस्त होने पर नये मूल्य का बोध नयी दृष्टि का उन्मेष, क्या सही तर्क-संगति और सहज मनोवैज्ञानिक क्रम नहीं है?”
यह मनोवैज्ञानिक पक्ष घोर एवं प्रियदर्शी के कथनों से अधिक स्पष्ट हो जाता है। जैसे प्रियदर्शी का यह कहना है कि-
“मैं नहीं सुनूँगा।
नहीं सहूँगा।
नरक चाहिए, मुझको।
इन्हें यंत्रणा दूँगा मैं,
जो प्रेत-शत्रु थे मेरे तन में
एक फुरहरी जगा रहे हैं
अपने शोषित की अशरीर छुअन से!
उन्हें नरक
मेरा शासन है अनुल्लंघ्य!
यंत्रणा!
नरक चाहिए।”7
इस प्रकार अशोक की क्रूर प्रवृत्ति को आधुनिक मानव की मानसिकता से जोड़ते हुए डा. रमेश गौतम लिखते हैं- “आधुनिक संवेदनाओं की जटिलता में उलझा हुआ मनुष्य अपने अहंकार तथा अंतर में विध्यमान नरक से उसी प्रकार मुक्ति नहीं पाता जिस प्रकार सम्राट अशोक अपने अंतर के नरक को भोगता हुआ प्रयास करने पर ऊपर नहीं उठ पाता क्योंकि वह मात्र एेतिहासिक पात्र नहीं, आधुनिक मानव का प्रतीक भी है।”8
अशोक के चरित्रोद्घाटन के साथ घोर के द्वारा मनोवैज्ञानिक स्थिति-उद्घाटन में कवि को अधिक सफलता मिली है। जब अशोक द्वारा घोर को नरक का अधिकारी बना दिया जाता है तो वह अपने अंतर को उद्घाटित करते हुए कहता है-
मैं वज्र
निष्करण!
अनुल्लंघ मेरे शासन में
दया घृणा!
ममता निष्कासित
मैं महाकाल!
मैं सर्वतपी!
धराधीश ने मुझे दिया यह राज्य-प्रतिश्रुत होकर
इस घाटी में उसका शासन”
स् स् स् स्
“प्रियदर्शी भी
परकोटे के पार!
रह परमेश्वर!
फटके इधर कि एक झटक में
मेरा पाश बँधेगा-मेरा शासित होगा।”9
प्रियदर्शी के नरक पाश में ग्रस्त होने की संभावना मात्र से दंभी घोर के मन की प्रतिक्रियाओं को कवि ने सफलतापुर्वक उभारा है। घोर के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट होता है कि एक बार किसी को अनधिकार प्राप्त हो जाने पर व्यक्ति कितना दंभी हो जाता है और उस अधिकार का किसी भी सीमा तक जाकर दुरुपयोग कर सकता है।
नरक की सीमा में प्रवेश किये प्रियदर्शी के उपर जब कशाधात किया जाता है तो अशोक चीत्कार उठता है और घोर की सत्ता को चुनौती देता है, तब घोर उसकी प्रतिश्रुति को स्मरण कराते कहता है:-
“और प्रतिश्रुति तेरी?
तेरा शासन राजा,
क्या मुझको हो अनुल्लंघ है?
बँधा हुआ है तू भी!
नरक
स्वयं तूने माँगा था!
‘मुझको नरक चाहिए।’ ले,
प्रियदर्शी, परमेश्वर!
अपनी स्फीत अहंता का
यह पुरस्कार! ले। नरक!”10
नरक की यंत्रणा से गुजरने के बावजूद भी प्रियदर्शी को यह प्रतीति नहीं होती कि उसके भीतर का नरक ही उसके बाहर का नरक है, जो उस पर हावी हो रहा है। भिक्षु द्वारा ही उसका बोध कराया जाता है-
“यम की सत्ता
स्वयं तुम्हीं ने दी उसको
तुम हुए प्रतिश्रुत
एक समान अकरूणा के बंधन में
नरक तुम्हारे भीतर है वह।”11
किसी स्थिति को भोगकर ही मानव मन उससे उभर सकता है। “यदि मनुष्य निजी अनुभूति के स्तर पर ही किसी भोगी हुई स्थिति से उद्वार नहीं पा सकता, तो किसी बाहरी आदेश या उपदेश के द्वारा तो यह और भी असंभव है। यदि वह बाहरी उपदेश से प्रेरित होकर एेसा करने में समर्थ हो पाता है, तो भी उसे पीड़ा और प्रायश्चित की अनुभूति से होकर गुजरना पड़ता है। दोनों स्थितियों में अंतर्मन्यन की पूरी प्रक्रिया घटित होती है।”12 प्रियदर्शी को भीतर से सहज अनुभूति के मार्ग से आदर्श भावना को उदित होना चाहिए था, वह भिक्षु के माध्यम से प्रणत होता है प्रियदर्शी के मन में करूणा जागृत होने पर वह कह उठता है-
“कल्मष-कलंक घूल गया! आह!
युद्धांत यहाँ यात्रांत हुआ!
खुल गया बंध! करूणा फूटी!
आलोक भरा! यह किंकर
मुुक्त हुआ! गत शोक।”13
जब हृदय में करूणा जागृत होती है तो अहंकार स्वयं ही समाप्त हो जाता है। मनुष्य ने असद मार्ग पर चलकर जिस नरक का निर्माण किया है उससे प्रेम और करूणा द्वारा ही मुक्ति मिल सकती है।
डा. वर्मा कहते हैं- “यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि किसी परिस्थिति से गुजर कर ही व्यक्ति उससे ऊँचा उठ सकता है। दर्पस्फीत अहंकार ग्रस्त मन नरकीय विकृतियों का कारण बनता है, किंतु जब उसे स्वयं ही अपने द्वारा सृष्ट नरक की ज्वाला में जलना पड़ता है तो उसका विकार भस्म हो जाता है और वह निर्मल और निष्कलुष हो जाता है।”14
इस प्रकार अशोक का इतिहास वृत्त स्वयं इस बात का उदाहरण है कि किस प्रकार असद् वृत्तियों से सद्वृत्तियों को और आगे बढ़ा जा सकता है। इस नाट्य-काव्य के माध्यम से कवि का लक्ष्य एेतिहासिक घटना को प्रस्तुत करना ही नहीं है, बल्कि पात्रों के चरित्रांकन के माध्यम से मानवीय मनोवृत्तियों का मनोवैज्ञानिक ढ़ंग से चित्रण करना रहा है। अत: ‘उत्तर प्रियदर्शी’ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक सफल रचना साबित होती है।
संदर्भ ग्रंथ :
1. डा. हरिश्चंद्र वर्मा ट्ट नई कविता के नाट्यकाव्य ट्ट पृ सं ट्ट 342
2. अज्ञेय ट्ट उत्तर प्रियदर्शी ट्ट पृ सं 19-20
3. अज्ञेय ट्ट उत्तर प्रियदर्शी ट्ट पृ सं ट्ट 21
4. अज्ञेय ट्ट उत्तर प्रियदर्शी ट्ट पृ सं ट्ट 46
5. डा. हुकुमचंद राजपाल ट्ट हिंदी नाट्य-काव्य पुनर्मुल्यांकन ट्ट पृ सं ट्ट 194
6. डा. हुकुमचंद राजपाल ट्ट हिंदी नाट्य-काव्य पुनर्मुल्यांकन ट्ट पृ सं ट्ट 189
7. अज्ञेय - उत्तर प्रियदर्शी ट्ट पृ सं ट्ट 40 - 41
8. डा. रमेश गौतम - हिंदी नाटक: मिथक और यथार्थ ट्ट पृ सं ट्ट 599
9. अज्ञेय - उत्तर प्रियदर्शी ट्ट पृ सं ट्ट 46
10. अज्ञेय - उत्तर प्रियदर्शी ट्ट पृ सं ट्ट 58 - 59
11. अज्ञेय - उत्तर प्रियदर्शी ट्ट पृ सं ट्ट 61 - 62
12. डा. हरिश्चंद्र वर्मा ट्ट नई कविता के नाट्यकाव्य ट्ट पृ सं ट्ट 325
13. अज्ञेय - उत्तर प्रियदर्शी ट्ट पृ सं ट्ट 64 - 65
14. डा. हरिश्चंद्र वर्मा ट्ट नई कविता के नाट्यकाव्य ट्ट पृ सं ट्ट 343
डॉ.राजश्री मोकाशी
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