डा० रमा शंकर शुक्ल.
यश का सुख अनाम किन्तु बेहद प्यारा लगता है. रूप-रस-गंधहीन यह सुख क्या नहीं करा सकता.
दुनिया में इमानदारों की कमी नहीं है , लेकिन इस सुख के खातिर वे बे-ईमान बनने से नहीं हिचकते. उनके लिए ईमानदारी एक थाती से ज्यादा मायने नहीं रखती. जिसे पहनकर वे अक्सर महफ़िलों में, एकेडमिक सेमिनारों में, सामाजिक आयोजनों में शब्दों से चमकाकर प्रधार्षित करते हैं. लेकिन थाती भोगने की कम सहेजने की चीज अधिक होती है. कोई अपने पूर्वजों की निशानी को यूं ही सबके सामने थोड़े ही रख देता है. अब गांधी जी को ही ले लीजिये. उनका चस्मा गत दिनों संग्रहालय से चोरी चला गया. कोई पहनता होता तो टूट जाता. क्या पता, जो उसे लगता, उसकी भी दृष्टि भी गाँधी जी जैसी हो जाती. इसलिए केंद्र सरकार ने उसे किसी को पहनने को न दिया. सहेज कर रखा. उनकी लाठी, खडाऊं, लोटा, बर्तन, चरखा सब. ये सामान बाहर हुए तो सरकारों को खतरा हो जायेगा. कोई नहीं चाहता कि गाँधी जी का चश्मा वापस मिले. वैसे भी देश की ख़ुफ़िया एजेंसियां और पुलिस वालों को चोरी गयी चीज मिलती ही कहाँ है. देश का खरबों रुपये विदेश में जमा है, किसको मिल पाया आज तक? हाँ, इतना जरूर है कि चोरी जितनी बड़ी होगी, जांच एजेंसी उतनी ही ऊंची हैसियत वाली होगी. कल्लू मियां, गरीब तिवारी, चित्थाद गड़ेरिया के घर चोरी होगी तो सिपाही जांच करेगा और गांधी जी का चश्मा गायब होगा तो सीबीआई जांच करेगी. चोरी का सामान मिलना दोनों जगह नामुमकिन है. अब आज गांधी जी सदेह जिन्दा होते तो हैं नहीं कि लाठी टेकते चश्मा वापस लाने की जिद में सत्याग्रह करने बैठ जाते. तब क्या होता. पुलिस उन्हें शांति भंग की आशंकाअ में गिरफ्तार कर लेती.
मै तो कहता हूँ कि अच्छ ही है कि गाँधी जी आज के चोरों और आज की चोरियों को देखने के लिए जिन्दा नहीं हैं. वरना क्या पता कि "अंग्रेजों भारत छोडो" की लड़ाई लड़ने वाले महात्मा की लम्बी उम्र का रहस्य जानने के लिए केंद्र सरकार सीबीआई जाँच बैठा देती.
एक अन्ना हजारे हैं तो गांधीवादी. क्या गति हो रही है उनकी! गाँधी जी का तरीका अपनाकर देश सुधारने चले, केंद्र सरकार ने गलत मन. राष्ट्र विरोधी माना. अनशन करने लगे तो एक थो जगह न मिली. और फिर मिले कहाँ. अन्ना समझ ही नहीं पाते. अरे जब देश में कहीं जगह बची हो तब तो आपको अनशन के लिए कोई दे. छोटा सा देश है और सवा अरब आबादी. बड़ी मुश्किल से तो सरकारें इस पैदावार को छल्ली लगाकर सलटा रही हैं. आखिर अपने देश की भी तो कोई पहचान है! भूख, प्रीती और प्रजनन के मामले में है कोई जोड़ हमारा? लेकिन नहीं. अन्ना जी जिद पर अड़ गए. कहते हैं न कि जब बूढ़े सठिया जाते हैं तो किसी की नहीं सुनते.
सुनते हैं कि क़ानून में विश्वासघात बहुत बड़ा जुर्म है. अन्ना यही चिल्ला रहे हैं. मै कहता हूँ कि अन्ना जी आप चाणक्य नीति पढ़िए. राजा का सबसे बड़ा हथियार छल ही होता है. विश्वासघात न करे तो जनता उतर कर पीटने लगेगी. अब सरकार ने यदि आपको तत्काल माहौल संभालने के लिए आपके कहे के अनुसार सिविल सोसाइटी और संसदीय समिति बना दी तो इसका मतलब यह नहीं कि आप की बात मान ली गई. योग्यता भी तो कोई चीज होती है कि नहीं? कहाँ पांच मंत्रियों का मसौदा और कहाँ पांच सामान्य जनता का मसौदा. आप में इतनी योग्यता होती तो आप भी मंत्री न हो गए होते! फिर भी सरकार की दरियादिली देखिये कि उसने आपकी बातों को सम्मान दिया. आपको सुना. अब आपको चुप हो जाना चाहिए था. लेकिन नहीं आप तो और जोर से चिल्लाने लगे. अपने मसौदे को "मच वेटर मच वेटर" कहने लगे. और तो और जनता को संसद से ऊपर बत्ताने लगे. कैसे ऊपर है भाई. आपके कहने से ऊपर हो जायेगी जनता. ऊपर होती, मालिक होती तो नौकर से अच्छा जीती-खाती कि नहीं. नौकर एक रात केवल होटल के एक कमरे में रहने पर दस लाख खर्च कर रहा है और आप २८ रुपये में. फिर भी मालिक बनने का दंभ भर रहे हैं आप. और उन्हें यह अधिकार भी तो जनता ने ही दिया है. वोट मने माँत होता है. यानि उन नौकरों के मत यानी विचार में वे योग्य हैं. आप लाख गलत ठहराओ, जनता मान लेगी. या विरोधी नौकर ही मान लेंगे. अरे हम जैसे घर में लड़ते हैं लेकिन बाहर वालों के सामने एक रहते हैं वैसे ही संसद भी एक घर है. वहां पक्ष-विपक्ष लड़ेंगे, पर घर में फूट थोड़े ही होने देंगे. क्या आपको उस घर में एक भी आदमी ऐसा मिला जो आपकी बात को सही मान रहा हो. लंका की बात छोडिये. वहां अगर विभीषण था तो जरूरी नहीं कि हमारी भी लंका में कोई विभीषण हो. आपको इतने से ही समझ लेना चाहिए था.
अब अन्ना चीख रहे हैं. उनके समर्थन में हम भी चीख रहे हैं. देश के विद्वान् कहते हैं कि चीखने का अगला पडाव मौन होता है. पुराने ज़माने में जो तपस्या करते हुए अर्जित ज्ञान को जुबान से छात्रों को समझाता था, उसे ऋषि कहते थे. ऋषि सच का व्याख्यान देता था. अब उनके सच का कौन कितना पालन करता था, किसी से छिपा नहीं है. हम तो कहते हैं कि उनके सच से हमारे जमाने का सच उनसे ज्यादा अच्छा और पूर्ण है. बाद में जिस दिन उसने पूर्ण को जान लिया] उसी दिन मौन हो गया. उसी को लोग मुनि कहने लगे. अन्ना भी अभी बोल रहे हैं. चीख रहे हैं, एक दिन सत्य जान लेंगे और मौन हो जायेंगे. चीख मै भी रहा हूँ, पर संभव है कि मेरी ध्वनि संसद तक कभी न पहुंचे. काहे कि जब दिल्ली में रहकर लाखों लोगों के साथ अन्ना चीखे और संसद नहीं सुन पाई तो मै क्या खाकर अकेले अपनी चीख वहां तक पहुंचाऊंगा.
फिर भी मै लोकतांत्रिक देश का स्वतंत्र नागरिक हूँ. अभिव्यक्ति हमारा मौलिक अधिकार है. मै मांगूंगा केंद्र सरकार से कि "अन्ना को मुनि की उपाधि दो. अन्ना जी उसके वास्तविक हकदार हैं." आखिर सरकार का कामकाज तो यही है न कि सबसे अधिक उत्पात मचने वाला यदि शांत बैठ जाए तो उससे समझौता कर लो. उसे वापस मुख्य धरा में बुला लो. नक्सलियों से समझौता करते हो कि नहीं. क्या वे देश के लिए, क़ानून के लिए कम घातक हैं. वो तो छोडिये. नक्सली अपने देश के हैं. आपने रूबी अपहरण काण्ड में विदेशी आतंकियों तक से समझौता किया है. अन्ना को आप नक्सली कह ही रहे हो तो उन्हें चुप कराने के लिए समझौता करने में क्या हर्ज है? अन्ना ने कम उत्पात मचाया है क्या? बाप रे इतना चीखे हैं कि अमेरिका तक के कान कलबला गए. स्विस बैंक ने मीडिया को रिपोर्ट देकर सफाई दी कि भारत से ज्यादा काला धन पाकिस्तान वालों का उसके पास जमा है. लेकिन वहां के लोग तो नहीं चीख रहे हैं. निश्चित ही वहां वाले ऋषि का स्तर पार कर "मुनि" के स्तर में प्रवेश कर गए हैं. हमें बेचैनी से उस समय का इन्तजार है जब अन्ना जी भी मौन धारण कर लेंगे. तब सरकार उनसे समझौता करे. उन्हें मुनि की उपाधि से विभूषित करे. मुख्य धारा में वापस लाये. अन्ना जी स्वयं न आना चाहे, समाज से संन्यास लेना चाहें तो कोई बात नहीं. अपने अनुयाइयों को तो भेज दें. आखिर इतनी मजबूत थाती उन्हें भी तो सहेज कर रखने की दरकार होगी. वैसे भी हमारे देश में बापू हैं, माता हैं, मदर हैं, पर मुनि की उपाधि किसी को नहीं मिली है. अन्ना जी को मिलनी ही चाहिए.
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