कविता के माध्यम से आज के भागते हुए रिश्तों को पकड़ने की आपने बेहतर कोशिश की है. प्राचीन काल में आचार्य लोग ईश्वर को पिता के रूप में प्रतिनिध निरूपित करते थे. उन्होंने लिखा है कि
"पितेव सर्व लोकानाम यः करोति सदा हितम
मातेव लालनम चैव यः परमेशं नमामि तं.
एक पिता ही तो ऐसा है तो संसार में हमेशा संतान का हित करता है. चूंकि ईश्वर भी पिता का काम करता है, इसलिए वह प्रणम्य है. जो पिता ऐसा नहीं करते उसके लिए उन्ही आचार्यों ने धिक्कार पत्र भी जारी किया. "माता शत्रु पिता वैरी यो न पाठयति बालकः" अर्थात वह माता शत्रु के सामान है और पिता वैरी के सामान है, जो अपने बच्चों को नहीं पढाता. इसके विपरीत समकालीन रिश्ते किस मुकाम पर पहुँच चुके हैं, इसका एक चित्र आपने अपनी कविता में बेहतरीन ढंग से खींचा है. यह अर्थ प्रधानता से उपजी नयी परिस्थिति है. धन की चाह मानव में इतनी बलवती होती है कि उसकी इन्द्रियां अस्थिर हो जाती हैं. वहां एकांत, शांत, चिंतन और महसूसने के लिए अवकाश नहीं होता. एक हड़बड़ी होती है, जो किसी भी कार्य या रिश्ते को सपराने के लिए होती है. विदित तथ्य है जीने और सपराने या निपटाने में बड़ा फर्क है. सपराना या निपटाना जहाँ बोझ होता है, वही जीना अंतःकरण की प्रेरणा और इच्छा होती है. जहाँ मन रमेगा, वहां अपनत्व होगा, जहाँ दिमाग रमेगा, वहां लिहाज होगा. लेकिन समकालीनता इससे भी आगे जा रही है. अब न मन रम रहा है और न दिमाग लिहाज ही कर रहा है. वह तो बस चल रहा है. अपनी ऊँचाइयों को छूने की लालसा में. चल नहीं रहा है दौड़ रहा है. रिश्ते किस और जा रहे हैं, इसका कुछ अंदाज तब हुआ जब उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ पी.सी.एस. अधिकारी की बेटी ने किसी तरह भाग कर सचिवालय को बताया कि उसके पिता उसके साथ तीन साल से बलात्कार कर रहे हैं. यह है ज़माने की उत्तर आधुनिक तस्वीर. अब इस आलोक में बेटी या बेटे की शिकायत? निराधार है. खासकर तब जब पिता को अपने पितृत्व का रत्ती भर भी बोध न हो. न हो तो भी कोई बात नहीं. बात तो यह है कि उसे पिता होने से ही दर लगाने लगे. नारायण दत्त तिवारी का प्रकरण अभी बहुत दिन बीते नहीं हुआ. शेखर को उन्हें पिता साबित करने में आधी उम्र गुजर गई. आखिर हम जी किस युग में रहे हैं.
डा० रमा शंकर शुक्ल
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY