डा० भवदेव जी अपने पुत्र सलिल जी पर खफा थे कि हिंदी दिवस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनाया तो चार पहिया वाहन क्यों नहीं भेजा. आधा दर्जन वक्ता सहियाकर मनाकर थक गए. मै पहुंचा तो सलिल जी को कुछ उम्मीद जगी. मुझे एकांत में लेजाकर बुढाऊ को समझाने का अनुरोध करने लगे. हिम्मत न होती थी, फिर भी सरे आम किसी की इज्जत न उछलने पाए, इसलिए मजबूरी थी. मैंने पैर छुआ तो डाक्टर साहब ने मगन होकर आशीर्वाद दिया.
सूत्र मिल गया.
सर, कब चलेंगे? छह तो बज गए.
बजने दो, यह कोई तरीका है? डाक्टर साहब ने गुस्से में फुँफकारा.
क्या हुआ सर? कोई बात हो गई क्या?
अब तुम बताओ कि नामवर को दिल्ली से बुलाते तो खर्चा-पानी, वाहन आदि मुहैया कराते कि नहीं?
बिलकुल. ये तो करना ही पड़ता.
नाश्ता-भोजन करते कि नहीं?
क्यों नहीं!
होटल का किराया वहन करते कि नहीं?
वो तो करना ही पड़ता.
तो क्या मै नामवर से कम हूँ? एक ठो चार पहिया साधन भी नहीं उपलब्ध कराया इन लोगों ने.
प्रभु जी ने आँख मारी. मैंने कहा सर, यदि बुरा न मानें तो एक बात कहूं?
हाँ-हाँ, तुम बोलो.
सर मै स्कूटर ले आया हूँ. उसी से चले चलिए.
ओह तो तुम स्कूटर से आये हो? पहले क्यों नहीं बोले. चलो लेकिन एक शर्त है. ठीक ६-३० पर यदि कार्यक्रम न शुरू हुआ तो मै लौट आऊँगा.
और डाक्टर साहब हमारी स्कूटर पर सवार हो गए
डा० रमा शंकर शुक्ल
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