Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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घर का भोजन

 

विवेक एक गंभीर और पढ़ा-लिखा आदमी. उसने पुराणों-शास्त्रों को पढ़ा. देश-विदेश के कई लेखकों के विचार जाने. महीनों चिंतन किया . उसने पाया की यौन मामलों का सम्बन्ध कहीं भी अधर्म से नहीं है. उसके भीतर पत्नी के इतर दूसरी स्त्रियों से दैहिक रिश्ते बनाने की लालसा शेष थी. इस बीच रिद्धि मायके चली गई. विवेक ने उन महिलाओं और लड़कियों से मेल-जोल बढ़ाना शुरू किया, जिसके प्रति उसके मन में अनुराग भाव पहल
े से मौजूद था, किन्तु अनुराग का स्वरुप स्पष्ट न था. शीघ्र ही उसने पाया की वह अनुराग देह-दहलीज में परिवर्तित हो सकता है. विवेक को कुछ प्रयास करने पड़े. एक एक कर सभी देह उसके सामने बिछती चली गई. उसके सामने अलग-अलग सौंदर्यों का बेपर्द यथार्थ खुलता, आवेग के बादल घहराते, घनघोर बारिश होती और गीली धरती की आकुलता शांत होते हुए नंगी आँखें ख़ुशी से चमक उठती.
वह प्रकृति के इस नए रूप से आह्लादित था. उसके भीतर एक सुकून पसर जाता. मालूम होता कि उसने एक नया आविष्कार कर लिया. देह लीला में कभी कोई अवरोध न आया. किसी ने कोई हस्तक्षेप न किया. मन में कभी पछतावा न हुआ. पर धीरे-धीरे उसके भीतर एक उदासी अंखुवाने लगी. उसने देखा कि उसके भोग के लिए अनेक देह हैं. ये देह अपने समूचे सामर्थ्य के साथ उसे खुश रखना चाहती हैं. फिर भी उदासी कम होने की बजाय बढती जा रही है. अब देह सामने होती तो वह लिहाज के कारण उसका हक़ देता, पर उल्लास का अनुभव न होता.
एक रात वह किसी देह के पास न गया. बाहर मौसम नम था. भींगी-भींगी हवा चौतरफा लगी खिडकियों से आकर चुहल करने लगी. पर देह वाटिका उसे खींच न सकी. बैठा रहा बैठा. अपने में डूबा हुआ. एक विरक्ति ने उसे चिकोटी काटी. विवेक झुंझलाया और उसे धक्का मारकर बाहर कर दिया. तीन दिन तक वह गुमशुम रहा. चौथे दिन जब वह बाजार से लौटा तो घर का दरवाजा खुला मिला. हैरान होकर घुसा तो देखा रिद्धि सब्जी काट रही है.
विवेक का मन पुलकित हो उठा. दौड़ कर उसकी गोंद में नन्हे बच्चे की तरह लोटने लगा. जहाँ पाया, चूमने लगा. रिद्धि ने मुस्कुरा कर पूछा, "क्या बात है भाई, आज बहुत प्यार उमड़ रहा है?"
विवेक बोला, कुछ नहीं. बस होटल का खाना खाते-खाते तबियत खराब होती जा रही थी. घर के भोजन का कोई जोड़ नहीं हो सकता.

 

डा० रमा शंकर शुक्ल

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