परिवार नाम की संस्था जिस प्रकार अति महानगरीय और अति उत्तर आधुनिक स्वरुप ग्रहण कर रही है, वर्तमान परिवेश की विद्रूपता शायद उसी कारण से पल्लवित हो रही है. भाई बलजीत की पत्नी रानी के होठों को किशोरावस्था में सेक्स के समय चूमता है तो उसे महसूस
होता है की वह अपनी माँ का होठ चूम रहा है. यह उसकी हीन ग्रंथि में दबा माता-पिता के प्रति घृणा और बदले की भावना का प्रतिबिम्ब है. वह हर किसी से बदला लेना चाहता है. लेकिन उसमे कोई आवेश नहीं है. कोई आवेशित बदला नहीं, बल्कि एक सहज बदले की भावना है, जो अमरजीत की पत्नी को भोगने की आकांक्षा में भी सहज है. वह भी अमरजीत की मौजूदगी में. दूसरी ओर अमरजीत पत्नी के भोक्ता के बहन के साथ भी वही भोग करता है. लेकिन यहाँ कोई प्रतिरोध नहीं है. जबकि परी को गैर मर्द द्वारा बलात्कृत होना एक विवश असह्य मानसिक यातना है. खासकर तब जा पास में पति भी हो और विनिमय के सिद्धांत का अनुपालन कर रहा हो. भाई के भीतर उपेक्षा की सहज प्रतिक्रिया किस कदर विकृत है की वह न केवल परी को भोगता है, बल्कि अपनी बहन के भोक्ता की ह्त्या के रूप में परिणित हो जाता है.
उसे जेल होती है. उसे फांसी हुई या नहीं, स्पष्ट नहीं है, पर इस कृत्य की घृणा चौतरफा है. भीड़ भाई का बदला बहन से लेना चाहती है. ऐसे भाई की बहन के बारे में समाज का जो रवैया हो सकता है हुआ. कोई विद्यालय उसे अपने यहाँ दाखिला नहीं देना चाहता. पिता-माता ने अपने परभाव वाले एक विद्यालय में उसे ड़ाल दिया. वह समाज और लड़कियों के लिए किस तरह अशप्रिश्य है की कोई उसके साथ रहने को तैयार नहीं. वार्डेन ने उसे अपने विद्यालय में क्यों स्वीकार कर लिया, यह तो बाद में पता चलता है. दर-असल वह लड़की और उसी तरह के एक और आतंकी कृत्य वाले भाई का खामियाजा भुगत रही शबनम को वार्डेन ने स्कूल मालिक और उसके मेहमानों का मनोरंजन करने का साधन बनाने और अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उपयोग किया.
गौरव की यह कहानी भारतीय सामाजिक नैतिक मानदंडों और सरोकारों को बहुत दूर छोड़ते हुए वर्तमान संभव यथार्थ की बारीक पड़ताल है. जहाँ तक मुझे प्रतीत होता है की यहाँ प्रस्तुत कोई भी यौनिक घटना और प्रतिहिंसा किसी भी प्रकार से अस्वाभाविक है.
वैसे यह कहानी एक व्यापक बहस की मांग कर रही है.
डा० रमा शंकर शुक्ल
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