किनारों से जूझती लहरें बगावत कर रही हैं
क्या पता किसी दिन तटबंध अतीत हो जाएँ.
सच है ये मन मुक्त होने को आतुर होता है
पर क्या होगा जब जीवन का बंधन खो जाए.
हर मुक्ति अगले बंधन का फकत प्रयास है
प्राण का क्या होगा जब सधी देह सो जाए.
इस तड़प का यूं अर्थ न लगाइए जनाब
तलब शुकून की है, दिल आइना रो न जाए.
डा० रमा शंकर शुक्ल
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