25 जून की दोपहर मंजरी के विवाह से फुर्सत मिली तो घर के लोग घेर कर बैठ गए. चुहल-हंसी और ठहाके चलते रहे. बडकी भौजी ने टहोका दिया, "रमा बाबू मिरवा का भी सुन लीजिये. कुछ कहना चाहती है."
हाँ-हाँ बोल बेटा. क्या कहती हो?
कुछ नहीं. बस देख रही हूँ क़ि आपके दिल में केवल मंजरी के लिए ही जगह है.
सो क्यों?
वो ये क़ि हम लोग भी हैं यहाँ पर, लेकिन आपने किसी से कुशल-क्षेम तक न पूछा.
ओह, तो ये बात है! अब हम केवल मी
रा से ही बात करेंगे.
मैंने उस दिन पहली बार अपने बगल में बैठाया. सर पर हाथ फेरा तो उसकी आँखें बंद हो गई. और मेरी गोद में सर रखकर पड गई. सब हंस पड़े, देखो तो लग ही नहीं रहा क़ि दो बच्चों की माँ है. चाचा का गोद क्या मिला, जैसे स्वर्ग मिल गया. ...................
आज सुबह तडके ही खबर मिली क़ि मीरा अब नहीं रही. मात्र गैस की समस्या हुई थी. रात के तीन बजे थे. उसके पति अनिल आनन्-फानन लेकर मिर्ज़ापुर के लिए निकले. चार किलोमीटर बाद मीरा वाकई स्वर्ग लोक चली गई.
बनारस से शिक्षक संघ के सम्मलेन से लौटते हुए आँखें बंद हो गई. देखा क़ि मीरा मेरी गोद से उठी है और हाथ हिलाते आकाश की और चली जा रही है. मै उसे पकड़ने को लपकता हूँ तो वह प्रकाश पुंज बिखेरते हुए अंतर्धान हो गई.
उस पूतात्मा को शत-शत नमन.
डा० रमा शंकर शुक्ल
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