तब हम छोटे थे. गाँव में हम दर्जन भर बच्चो का झुण्ड एक साथ छोटे-छोटे डंडे लेकर निकलते. हमारे पास कुछ और सामान होते. जैसे सीसे का बोतल, महीन धागा वगैरह. मिशन बिच्छू शुरू हो जाता. जमीन पर यहाँ-वहां पड़े पत्थरों को हटाते. लेकिन शायद ही कभी हमें निराश होना पडा हो. आम तौर पर हर पत्थर के नीचे कोई न कोई बिच्छू निकल ही जाते. हम डंडे के छोर से उसका सर दबाते तो बिच्छू अपने डंक कनकाना कर ऊपर को उठा लेते. बस
उसी में शकार्पुन्दी गाँठ वाला धागा पिरो कर खींच लेते. कुछ देर हम उन्हें सड़क पर दौडाते और मन में गर्व होता कि हम कोई गाडी चला रहे हैं. बाद में जब बिच्छू थक जाता तो हम गाँठ खोलकर उसे दो लकड़ी का चिमटा बनाकर उसे बोतल में भर लेते. एक और खेल हमारा होता. एक विशेष प्रकार का सांप होता अवारिया. उसकी रंगत करैत की तरह होती. बहुत तेज भागता. लेकिन होता बहुत सीधा. कभी काटता नहीं था. हम बाल मंडली के लोग उसे छेड़ते. तो वह बेतहाशा भागता. हम उसे घंटों छकाते. लेकिन जब अवारिया गुस्सा जाता तो हमें दौड़ा लेता. किम्वदंती थी कि जब अवारिया गुस्सा जाता है तो बिना कटे नहीं छोड़ता. उस समय हमारी जान सकते में होती.
हम अब गाँव जाते हैं कहीं भी पत्थर रखे हुए नहीं मिलते. यदि मिल भी गए तो उनके नीचे बिच्छू नहीं मिलते. इधर अवारिया भी दिखने बंद हो गए. अब बच्चे उन्हें नहीं खोजते. उनके खेल के साधन बदल गए. पता नहीं क्यों मन उदास हो जाता है. ये हमारे बचपन के शत्रु आज बहुत याद आते हैं. लगता है कि कोई प्यारा मित्र खो गया है. या फिर तब बचपन में जो हमारे सबसे करीब मित्र गाड़ियाँ हुआ कराती थीं, शायद उन्ही के चलते वो पुराने शत्रु गम हो गए. यदि उन्हें हमारी किलकारी आज भी सुनाई देती तो कभी न दूर होते. मशीनों ने हमारी शत्रुता से बदलती मित्रता को असमय में रौद डाला.
डा० रमा शंकर शुक्ल
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