कृशकाय राजू तब १०वी में पढ़ रहा था. उसकी पाही उसके गाँव से ५० किमी दूर थी. पिता ने अपनी सभी पाकेट खंगालने के बाद उसे २२ रुपये दिए. बस से आने-जाने का दस-दस रूपया किराया और रास्ते में पानी पीने को दो रूपया.
राजू साइकिल लेकर चल पडा. नदी पहुंचा तो किसी के कराहने की आवाज आई. वह कराह की आवाज की दिशा में चल पड़ा. देखता है कि झोपड़ी में एक मुशहर कथरी ओढ़े तड़प रहा है. राजू ब्राह्मण था. पिता का जीवन बहुत
कट्टर. निम्न जातियों के साथ सभी तरह की घूषित वर्जनाओं का पालन करने वाले व्यक्ति. यहाँ तक कि अपनी विरादरी में भी खान-पान के मामले में हमेशा विचार रखते थे. राजू पिता से सहमत तो न था, पर डरता जरूर था. लेकिन यहाँ तो पिता हैं नहीं. वह पास पहुंचा और आवाज दी. कथरी के भीतर से उसी करह के साथ एक महीन सी आवाज आई, कौन है भैया.
काका क्या हुआ.
बुखार है भैया दस दिनों से.
काकी और घर के लोग नहीं हैं क्या?
हैं तो. रोटी नहीं है. मेरे चक्कर में वह भी कई दिनों से कहीं न निकली. मजूरी नहीं करेंगे तो खाने को कौन देगा!
किसी डाक्टर को दिखाया?
अरे भैया. टेट में कौड़ी नहीं तो कौन डाकदर देखेगा. हमारी दवाई आधा तो रोटी ही हो जाये. पहले ऊ तो ससुरी मिले. बाकी और आगे-पीछे है ही कौन. न बेटा न बेटी.
राजू की आँख भर आई. उसने पाकेट में से २० रुपये निकालकर बीमार के दे दिए. कहा, काका अभी तो जा रहा हूँ पाही पर. लौटूंगा तो देखूगा. तब तक रोटी का इंतजाम कर लेना.
राजू चला गया. उसके पास मात्र ०२ रुपये बचे थे. क्या करे. सो उसने साइकिल से ही पाही की और प्रस्थान कर दिया. लम्बी दूरी का आना-जाना उसकी कमजोर देह सह न पाई. सो लौटकर बीमार पड़ गया.
एक सप्ताह बाद मुशहर दरवाजे पर आया. पिता से पूछा बचवा कहाँ हैं. उनके ही प्रताप से आज यहाँ खडा हूँ. उसने हमारी रोटी के लिए २० रूपये दिए थे.
पिता को अब राजू की बीमारी का रहस्य मालूम हुआ. पर वे गुस्साए नहीं. उनकी आँखें भर आई.
डा० रमा शंकर शुक्ल
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY