बच्चों को मैंने ही बताया था कि ०५ सितम्बर को शिक्षक दिवस है. यह भी कि इस दिन हमारे देश के प्रथम उप राष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति राधाकृष्णन पैदा हुए थे. छह से १२वी तक के सभी छात्रों के लिए यह बात नयी थी. फिर भी राष्ट्रपति शब्द लगाने के कारण उन्होंने मान ही लिया कि आज का दिन कुछ ख़ास है. लेकिन आधे ऐसे रहे, जिन्होंने मान लिया कि कक्षा नहीं चलेगी और मास्टर लोग भाषण देंगे शायद. तभी तो रोज की अपेक्षा
आज छात्रों की संख्या काफी कम थी. फिर भी उनमे एक जिज्ञाषा थी. उन्होंने पूरी शिष्टता के साथ अपने कमरों की सफाई की और पतंगी कागज़, अशोक के पत्तों, कनेल की डंठलों से सजा दिया.
बच्चे मग्न थे. आज उन पर रोजमर्रा से इतर मौजू काम मिला था. कुछ ऐसा जो वे खुद से कर सकते हैं. वे कमरे क्या सजा रहे थे, एक तरह से खुद को सजा रहे थे. शिक्षक भी कुछ कम खुश न थे. आज उन्हें कक्षा-कक्षा पढ़ना न था. स्टाफ रूम में जमकर गालियों के साथ ठहाकों की गूँज रह-रह सुने पड़ जाती. तीसरी घंटी के बाद प्रधानाचार्य ने हर कक्षा का निरिक्षण किया. पहली बार उन्हें महसूस हुआ कि वे कुछ विशेष हैं. बोल तो कुछ नहीं रहे थे, पर होठों पर मंद-मंद मुस्कान जरूर थी. आखिर में हम सभागार में दाखिल हुए. बच्चों ने सधे हुए कलाकार की तरह सभागार को नया आकार दिया था. सब कुछ व्यवस्थित और सलीके से. कुल २२ के शिक्षक स्टाफ में १४ तो दिख रहे थे, पर शेष का पाता न था. हमने बच्चों को नैतिकता का पाठ पढाया. आदर्श विद्यार्थी बन्ने की नसीहत दी और ढेर सरे प्यार का प्रदर्शन भी. बच्चों ने केक काट कर खुशियाँ मनाई और हमें कलम देकर सम्मान किया.
बाहर निकले तो दो साथी शिक्षक डरे हुए से नजर आये. क्या हुआ?
कुछ नहीं भैया. सोच रहा हूँ कि अपने विद्यालय में अमन चैन कब आयेगा.
क्यों?
अब देखिये एक गुट ने कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया है. वे तो हमें भी रोक रहे थे. भैया घुटन होती है. हम बच्चों को कौन सा सन्देश देने लायक हैं.
बस यही भाव हमारे भीतर के शिक्षक को ज़िंदा रखे है. यह आने वाले सबेरे की निशानी है, अँधेरा और बाधा तो कोई बात नहीं.
डा० रमा शंकर शुक्ल
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