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वक़्त

 


डा० रमा शंकर शुक्ल

 

 

मंदा मेरी जीवन संगिनी. पूरे बीस वर्षों से हमारा साथ. जैसे केवल मेरे लिए ही बनी हो. एक रहस्य की पोटली सी मेरे अस्तित्व के साथ बंधी चली जा रही. माँ-बाप सभी जीवित, पर कभी सपने में भी उसने उनके पास जाने का नाम न लिया. मायका दूर भी नहीं. दो-तीन मील के फासले पर वे लोग, पर मंदा के लिए उनका घर जैसे अनंत दूरियों पर मुह मोड़े खडा हो.
पिता के प्रति कभी उसे चिंतित होते न देखा. लेकिन माँ की तबियत के बारे में जब भी सुना, बेचैन हो गयी. शाम को लौटने पर उसे बीमार जैसा पाया. उस पर एक घबराहट सी तारी रहती. अब तक दसियों बार फोन कर कुशल-क्षेम जान चुकी होती, पर तसल्ली का नामोनिशान नहीं.
प्रयाग में यमुना के किनारे गंगा के संगम पर हम बैठे एकटक रेती को निहार रहे थे कि अचानक उसने ही ध्यान भंग किया, "बाबू वो देखो. गंगा".
"हाँ तो!"
वो मेरी माँ है. कितनी दुबली हो चुकी है न?"
मेरे सामने फिर रहस्य खडा हो गया, "मंदा तू माँ को इतना प्यार करती है तो उससे मिलने क्यों न चली जाया करती हो?"
उसने आँखें बंद कर ली. एक गहरी सांस लेकर बोली, "ना बाबू. मंदा कहीं न जायेगी. जमुना गंगा के पास जाती है क्या भला? ऐसे ही किसी प्रयाग के संगम पर मिल लिया करेंगे....... मिल ही तो लेते हैं जब तब. जब-जब कोई माँ क्षीणकाय होगी, मृत्यु के करीब, जमुना उससे किसी प्रयाग में सहारा देगी. तुम मेरे प्रयाग हो". और वह फिर आँखें बंद कर अशब्द हो गई.
मायके को लेकर मंदा सदैव मेरे लिए एक रहस्य बन जाती है. आज संवाद का सिलसिला शुरू भी हुआ तो कुछ पल बाद फिर खामोश हो गया.

दूर विस्तीर्ण संगम का पाट निरभ्र आकाश की चाँदनी से नहा रहा था. बालुका कण चांदी की बून्दियों की तरह चमक रहे थे. छिछले जल स्तर से कोई कीड़ा बाहर निकल कभी-कभी विचित्र सी आवाज निकालता और फिर खामोश हो जाता. तभी एक टिटिहरी ट्वीट-ट्वीट करती पास से गुजर गई. मंदा जैसे सोते से जागी हो. दौड़ कर पानी के करीब पहुँची. बालू को पूरी अंजलि में भर लिया और मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी. "जानते हो बाबू. यह है हमारा रिश्ता. यानि सभी रिश्ते. अभी भींगे हैं न, देखना कुछ देर बाद सूख जायेंगे. सूख ही न जायेंगे, उड़कर हमारी आँखों में करकेंगे. थोड़ा तेज हवा बही तो आँख भी फोड़ देंगे............... हुंह, हमारे रिश्ते." और उसने एक झटके से उसे जमीन पर फेंक दिया."
मंदा का चेहरा वितृष्ण हो गया. जैसे खुद से वार्ता कर रही हो, "वक्त के अपने-अपने सच होते हैं. संवेदनाओं की तरह. हर संवेदना के सच की एक उम्र होती है. किसी ख़ास प्रकरण, घटना, उम्र के साथ पैदा होती है और कुछ घंटों, दिनों, महीनों और वर्षों में परिस्थितियों और द्वंद्व के साथ समाप्त हो जाती है. बरसात के दीवाने कीट पतंगों की तरह क्षणजीवी. खिसियाये बादलों के बर्फ खण्डों के घुलन सी. खेतों में अन्खुआकर फिर से पौधों की शक्ल लेने सरीखा."
मेरे लिए रिश्तों का यह दर्शन एकदम नया था. मंदा के साथ इतने वर्ष गुजारे, पर उसे कितना समझ पाए हैं. हमेशा छौनों की तरह मेरे इर्द-गिर्द परिक्रमा में लगी रहने वाली मंदा एकदम दार्शनिक सी आत्मालाप कर रही है. घर की चार दीवारी में जैसे उसके विचार अब तक कैद रहे हों. आज खुला आकाश पाया तो फ़ैल कर आकाश होने लगा.
"बाबू, गंगा को देख रहे हो न!"
"हाँ"
"मेरी माँ ऐसी ही है...............तुम आज भी कह सकते हो कि हर नदी का विलय अंततः समुद्र में होता है? "
"अ..... हाँ. क्यों नहीं?"
"तो फिर इस गंगा को समुद्र में पहुंचाओ तो जाने."
"अरे मंदा, यह कहाँ संभव है. गंगा अब केवल बरसात में समुद्र में मिल पाती है"
"बाबू तुम भी न! बरसात में भी गंगा समुद्र में नहीं मिलती. बादल का पानी गंगा के घर भीड़ लगाता है और समुद्र में जाकर मौज करता है. उसके साथ हमारी अपशिष्ट और नीचता भी समुद्र तक जाकर मौज करती है. समुद्र भी दुखी और गंगा भी."
थोड़ी देर मौन रह एक लम्बी सांस के साथ फिर बोली, "ये नदियाँ संवेदनाओं की तरह हैं बाबू. संवेदनाओं के सच हमारे भीतर एक नदी की तरह है, जो उन्माद की तरह बहती है. पत्थरों, गड्ढों और झाड़ों से टकराते हुए समुद्र से पहले ही सूख जाती हैं. गंगा, सोन, बेतवा या चम्बल ही क्यों न हों, सब सूख जाती हैं. हरिद्वार की जवान गंगा प्रयाग तक पहुंचकर कैसे झुलस जाती है. जैसे ससुराल के सगे साथियों ने विलय के पूर्व ही जला डाला हो. वो तो जमुना का ढाढस न होता तो गंगा को कौन जान पाता. गंगा के लिजलिजे हांथों को पकड़ जमुना उसे बंगाल की खाड़ी नहीं अस्पताल ले जा रही है, जहाँ भर्ती होने के बाद कोई ज़िंदा नहीं लौटता. जमुना को यह सब पता है. पर संगदिली माँ को एकमुश्त मरते हुए भी तो नहीं देख सकती. कोई अपने प्रियजन को जिन्दगी के आखिर क्षण मरने की खातिर यूं ही नहीं छोड़ देता. पुरजोर कोशिश करता है कि उसकी मौत छटपटाते हुए नहीं, बल्कि मुस्कुराते हुए अचानक हो जाए."
".............................
......................."
"जानते हो बाबू. मृत्यु का अपना तर्कशास्त्र होता है और जिन्दगी का अपना. दोनों एक दूसरे की सौतन हैं. एक से लड़ो तो दूसरी प्यार करने लगती है. मौत से लड़ो तो जिन्दगी अपनी हो जाती है. और जिन्दगी से लड़ो तो मौत तड़ाक से खींच ले जाती है. विचित्र है न जीवन की यह गति! जो जिन्दगी अहर्निश छकाती है हम उसी के साथ रहने के लिए कौन-कौन से पैतरे नहीं खेल डालते. जबकि बेचारी मौत हर टेंशन अपने ऊपर लेकर हमें पूर्ण निर्द्वंद्व कर देती है. क्या अपने सामान्य व्यवहारों में रिश्तों के निर्वहन का यही चलन नहीं झलकता!"
मंदा आज खुली भी तो कितनी रहस्यमय और दार्शनिक सी. वह रुक-रुक बहुत कुछ कहती गयी. "मै जमुना हूँ बाबू. मंदा तो नानी ने नाम दे दिया था. चित्रकूट गई थी, राम के पाँव पखार रही थी इसलिए. लेकिन असल जीवन तो जमुना का ही जी रही हूँ. मेरी माँ गंगा है. माँ-बेटी होते हुए भी हम बहनों जैसे ही जिए हैं. हर विपदा को मिलकर हमने काटे हैं. भूख, नीद, बीमारी और भेड़ियों की भूखी निगाहों का खौफ- सब कुछ. हमें न हमारी देह माँ-बेटी समझा पा रही थी और न हमारी उम्र. एक भरी-पूरी जवान तो दूसरी की शुरुआत.............." मंदा रुक गयी. एक चुप्पी संगम के विस्तार सी फ़ैल गयी या फिर हम ही संगम की नीरवता में विलीन हो गए.
. .. . . . . . . . . .
विस्तर पर औंधे मुह सोई मंदा अबोध बालिका सी लगी. आज जाने क्यों आँखों से नींद गायब है. यानी कि मंदा के भीतर एक बाढ़ है! वह बंद है. बहुत कुछ समाया है उसमे. खुलेगा तो बहुत कुछ बहा ले जाएगा.
आँखों के आगे बीस साल का विस्तार संगम के पाट जैसा फ़ैल गया. शुरुआती दिनों में लताओं की तरह लिपटी रहने वाली मंदा का धीरे-धीरे सूखते जाना. खुशियों के पत्तों का एक-एक कर झरते जाना. आखिर क्यों? क्या उम्र की ढलान के कारण! न, नहीं. मेरी व्यस्तता के कारण. विवाह के बाद वाकई मैंने उसे समय ही कहाँ दिया. लोगों को खुश करने में ही तो चुकता गया. माँ, भाई, बहन, भाभी आदि की जिन्दगी संवारने में कब हम जवानी की तरंगें खो डाले, पता ही न चला. मंदा ने भी तो कभी न टोका. जब भी घर की बात आई, वह पहले नंबर पर कूद गई. कर्ज चढ़ते गए, घर और घर वालों की उम्मीदें फलती-फूलती गयीं और हमारी उम्र और कामनाएं ढहती गयीं. फिर भी अच्छा बेटा, अच्छा देवर, अच्छा भाई, अच्छा चाचा का विश्वास न हासिल कर पाया. तो अब क्या करें! भीतर से जैसे आवाज आई हो, अब अच्छा पति और पिता बनने का भी प्रयास कर लो भाई.
हाँ, सच में. मंदा जब कभी दुखी हुई तो इसी बात को लेकर. किसी को सुख पहुँचाने में उसने कहाँ रोक लगाईं. इस बीस साल में दो-चार बार ही तो वह दुखी हुई है. लेकिन बाप रे, वही दो-चार बार कितने भारी पड़े थे. पूरे सप्ताह या फिर पखवारा घर कितना पराया और जहरीला हो गया था. बिना शब्दों के इतना बड़ा युद्ध! महज खामोशी के सहारे. खामोशी मंदा का सबसे बड़ा हथियार. बहुत पूछने-पुचकारने के बाद एक बार ही तो बोली थी, "तुम्हारे पास मेरे लिए भी फुरसत है?"
"काहे? क्या मै तुम्हे समय नहीं देता? रहता तो घर पर ही हूँ न! सोता भी हूँ. पूरा वेतन तुम्हारे हाथ में रख देता हूँ. कौन सा ऐसा सुख है जो तुम्हे नहीं मिल रहा?"
"बाबू, क्या एक औरत का सारा सुख यही है?"
"तो तुम्ही बता दो कि और क्या है? क्या बाकी रह गया है जो मै नहीं दे पाया हूँ तुम्हें?"
"जाने दो. तुम पुरुष हो. नहीं समझ पाओगे."
बड़ी खिसियाहट हुई थी उस दिन. "अच्छा, औरत की समझ ज्यादा बड़ी होती है! है न? एक ही आदमी हर कुछ तो नहीं कर डालेगा न? नौकरी, घर, बाहर, सामाजिकता और लिखना-पढ़ना, सब कुछ. और तुम्हारे लिए समय भी. हमें जीने दो. इस तरह का जहरीला माहौल बनाती रही तो एक दिन पागल हो जाऊंगा. वैसे ही घर वाले इस दशा में ला दिए हैं के डिप्रेशन की दवा न लूं तो सो भी नहीं सकता."
उस दिन के बाद मंदा औपचारिक हो गई थी. हमारी किसी भी सुविधा में कटौती न करती, पर अधिकाँश समय बच्चों के साथ गुजारती. बच्चे भी कैसे हो गए हैं. माँ को माँ समझने की बजाय हम उम्र समझ कर लड़ते हैं. वह झल्लायेगी, खिसियायेगी, पर उन्ही लोगों के साथ लगी रहेगी. इसके अलावा समय मिला तो दूर के मेरे रिश्तेदारों बबली-रज्जू के विवाह, जय की पढ़ाई और नौकरी के सपने बुनेगी.
आज थोडा वक्त मिला तो कैसे वह खुलते-खुलते रह गयी. शायद कोई आशंका थी, जिससे उसने बहुत कुछ अनकहा छोड़ दिया.
सच में, एक स्त्री को केवल धन और वैभव नहीं सुखी रख सकता. रख सकता तो क्या मंदा के घर रोटी के लाले थे?
वहाँ भी कहाँ किसी के पास वक्त था. पिता केवल जनक थे. पैदा कर ऐसे गए कि लौटे तो मंदा सत्रह की हो चुकी थी. बेटी की बाल लीला जीए होते, उसकी बीमारी में रात भर जागे होते उसकी जिद पर हलाकान हुए होते तो रिश्ते की गरमाहट महसूस होती.
मंदा को हमेशा लगा कि यह पिता नाम का आदमी मोहल्ले के भूखे भेड़ियों जैसा ही उसे भूखी नज़रों से देखता है. उसने देखा कि पिता कभी माँ के पास न बैठे. माँ ने पूरा जीवन जैसे सुनियोजित तरीके से निर्मित कर लिया हो. उसने भी व्यस्तता के कई काम जुटा लिए. इस व्यस्तता में वह बेटी को भी अक्सर भूल जाती. लेकिन गैरों में अपनेपन की खुशियाँ कितने दिन! कई बार आहत हो कर लौटी और अंकवार में भर कर फूट-फूट रोई. माँ का दर्द बेटी में प्रवाहित होता रहता. होता रहता. और एक दिन सांझ को जब मिलने पहुंचा तो मंदा की आँखें सूजी हुई और लाल थीं. हमेशा गंभीर और संयमित रहने वाली मंदा उस दिन पूरी तरह टूट चुकी थी. अभी बैठा ही था कि वह गोद में ढह गई. और आंसुओं का ऐसा सैलाब निकला कि मेरा रोम-रोम थर्रा उठा. हिचकियों के बीच उसने कहा "बाबू, मुझे ले चलो. मै तुम्हारी झोपडी में स्वर्ग महसूस करूंगी. ना मत कहना. मै तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ."

 

 

 

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