ये अँधेरा रात का नहीं है
ये अँधेरा खैरात का नहीं है
इस अँधेरे में जमा है
अबोध नागरिकों का खून
अब वक्त बहुबात का नहीं है.
अब तलक खामोश जो बैठे रहे
क्षुद्रताओं में जो सभी ऐठे रहे
फायदा वे गीध इसका लेते रहे
खा गए मांस, महज कंकाल ही बचा है.
हमारा है देश, किसी के बाप का नहीं है.
डा० रमा शंकर शुक्ल
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY