Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बसन्त

 

विधि के पागलपन भरे , बड़े अनोखे ढंग ।
टेसू खिले जमीन पर , लाल गगन का रंग ।। 21

 

नीलम नीरज से नयन , अधरन खिले गुलाब ।
पलक पृष्ठ झुक झुक पड़े , आनन खुली किताब ।। 22

 

मुखड़े पर सरसों खिली , टेसू फूले गाल ।
अधर कमल की पांखुरी , तन फूलों की डाल ।। 23

 

दृग वातायन झाँकता , मन अबोध सुकुमार ।
उर आँगन में अंकुरित , हुआ कहाँ से प्यार ।। 24

 

सजल स्पर्श सनेह का , लाया सुखद समीर ।
देह तरंगित हो उठी , ज्यों यमुना का नीर ।। 25

 

मन समीर डोला फिरे , मिली नेह की गन्ध ।
चटकिं कलियाँ देह की , टूट गये सब बन्ध ।। 26

 

प्रियतम का पवन परस , निर्मल मन का छोर ।
लो बसन्त फिर आ गया , फूल खिले चहुँ ओर ।। 27

 

यौवन सरिता उफनती , तोड़ देह के कूल ।
मुक्त हँसी से झर। रहे , हरसिंगार के फूल ।। 28

 

शीत शरद ऋतु की गयी , किन्तु न आये कन्त ।
बिना बुलाये आ गया , बैरी अतिथि बसन्त ।। 29

 

खिल खिल कर जूही हँसी , शरमायी कचनार ।।
बेला घूँघट में खिली , चौंका हरसिंगार ।। 30

 


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---------------------------------- डॉ. रंजना वर्मा

 

 

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