Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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रात गलती रही दिन सुलगता रहा

 

रात गलती रही दिन सुलगता रहा
उम्र ढलती रही ख़्वाब उगता रहा ।
जिंदगी बिन कोई शर्त जीते रहे
खग हृदय आस के बीज चुगता रहा ।।
--------------------------- अपनी क्षमताएं जान भी लीजे
क्रोध में काम मत कभी कीजे ।
है अँधेरा प्रकाश की कीमत
मान अपमान सम समझ लीजे ।।
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सदा होता रहा है देश में सम्मान नारी का
मगर अब हो रहा अपमान है हर पग बिचारी का ।
सभा में कौरवों के चीर द्रुपदा की बढ़ाई थी
इसी से तो जगत में नाम है बाँके बिहारी का ।
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पत्थर की दुनियां है सारी अब इसमें भगवान कहाँ
जहाँ स्वार्थ में डूबे हैं सब अपनी ही पहचान वहाँ।
ऐसे में भी मातृभूमि की खातिर प्राण लुटा दे जो
दीपशिखा सा जलने वाला है कोई इंसान यहाँ ।।
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चरण माँ बाप के छूकर नमन जो रोज़ करते हैं
हैं मिटते पाप सारे आशिषा के फूल झरते हैं ।
बसे माता पिता के चरण में ही तीर्थ हैं सारे
जरूरत ईश की क्या शीश जब ये हाथ धरते हैं ।।
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कभी शीतल पवन, आंधी, कभी तूफान जैसी है
कभी नफरत कभी शोहरत कभी अरमान जैसी है ।
कभी हँसती कभी खिलती कभी बरबाद होती है
बदन में आत्मा रहती किसी मेहमान जैसी है ।।
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तेरी मासूम पलकों पर सिहरते ये अधर रख दूँ
तेरे कदमों में साथी अपनी सारी रहगुज़र रख दूँ ।
तू बाँहों में मुझे लेकर भुला दे मेरे ग़म सारे
लिपट जाऊँ लता जैसी तेरे सीने पे सर रख दूँ ।।
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उजले सुथरे लोगों के दिल अंदर कितने काले हैं
अमर बेल से रिश्ते सारे खून चूसने वाले हैं ।
किस पर करे भरोसा कोई किस कन्धे पर हाथ रखे
स्वार्थ - सुरा पी कर जब सारे लोग हुए मतवाले हैं ।।
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जब जब ख़ुशी के फूल है अश्कों में ढल गये
सींचे हुए सब खून के रिश्ते बदल गये ।
दावा था जिन्हें साथ निभाने का उम्र भर
वादे गमों की आंच में सारे पिघल गये ।।
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हम अमावस में रौशनी तलाश करते हैं
राख के ढेर में चिनगी की आस करते हैं ।
टोक देते हैं मगर तल्ख हवा के झोंके
फ़िज़ा खामोश, नज़ारे निराश करते हैं ।।
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फूल खिलते हैं बिखर जाते हैं
नगर बसते हैं उजड़ जाते हैं ।
रहे - हयात में मिलते हैं लोग
मोड़ आते ही बिछड़ जाते हैं ।।
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तन के उजले हैं मन के काले है
रंग संसार के निराले हैं ।
हमने ही दूध पिलाया है उन्हें
आस्तीनों में नाग पाले हैं ।।
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देखो धरती अम्बर में है कितनी दूरी
रहते समक्ष फिर भी मिलने में मजबूरी ।
कल्पना क्षितिज की इसीलिये तो होती है
यों चाह मिलन की सपनो में होती पूरी ।।
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हर सुबह आस की स्वर्ण किरण जल जाती है
सन्ध्या ढलती तो आशा भी ढल जाती है ।
उम्मीद नहा कर गहन निशा के सागर में
यों बार बार पागल मन को छल जाती है ।।
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गुमसुम है मन , कलम मूक है क्या बोले
घड़ी घड़ी जब यों धरती अम्बर डोले ?
बहुत किया अन्याय ज़माने ने भू पर
इसीलिये हैं उसने रुद्र - नयन खोले ।।
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प्रकृति से छेड़ करना आदमी का पाप होता है
न जीवों को मिटाओ उन्हें भी सन्ताप होता है ।
न काटो पादपों को, मत करो बारूद की वर्षा
प्रकृति का कोप जीवन के लिए अभिशाप होता है ।।
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बहुत दिनों तक सहती रही न कुछ बोली
आज क्रोध से भर तीसरी आँख खोली ।
है प्रदूषणों ने इतना बेहाल किया
हुई बहुत बेचैन तभी धरती डोली ।।
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बगिया बगिया गुल खिलते हैं पर मुरझाना पड़ता है
भोर हुए बुझ जाता है पर दीप जलाना पड़ता है ।
रचा गया जो मिट जायेगा है यथार्थ यह जीवन का
नश्वर जग के सम्बंधों को किन्तु निभाना पड़ता है ।।
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स्वार्थ - धूल से दूषित जीवन सदाचार अवरुद्ध हो गये
रुग्ण, वृद्ध, मृत काया देखी भाव हृदय के शुद्ध हो गये ।
सब कुछ था जीवन में लेकिन मन में केवल शांति नही थी
सत्य ढूंढने को निकले सिद्धार्थ गेह से बुद्ध हो गये ।।
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बना पराये महल अटारी चौड़ा जिस का सीना है
बेच करता शर्म फिर भी अधिकार न कोई छीना है ।
भूख प्यास सहने वाले सन्तोषी की क्या बात करें
गंगा जल से पावन उस का महका हुआ पसीना है ।।
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आंसू कपोल पर बहता है उड़ जाता है
पथ पर चलत्ते चलते राही मुड़ जाता है ।
दो हृदय धड़कते हैं जब एक ताल लय पर
पल भर में रिश्ता जन्मों का जुड़ जाता है ।।
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गीत के साथ साथ साज बदल जाता है
समय के साथ सर से ताज बदल जाता है ।
करवटें लेता है जब वक्त तो इन्सानो का
ज़िन्दगी जीने का अन्दाज़ बदल जाता है ।।
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जो भी हाथ बढ़ाये बढ़ कर बड़े प्यार से मिल
प्यार मात्र वो बन्धन जिसमे बन्ध जाते हैं दिल ।
बांध न रिश्ता नफ़रत से है तीखी एक छुरी
नफ़रत के तूफ़ानों से जातीं इमारतें हिल ।।
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आतंकियों के अब न अनाचार हों कहीं
जुल्मो सितम की और न बौछार हो कहीं ।
बारिश हो नहीं खून की गूँजें नहीं चीखें
इन्सां की ज़िन्दगी का न व्यौपार हो कहीं ।।
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देश की रक्षा में अपने सर कटा कर जो गये
प्रगति के पथ की सभी बाधा हटा कर जो गये ।
एक पन्ना नाम का उन के भी हो इतिहास में
अन्य के हित अपनी हस्ती को मिटा कर जो गये ।।
_____________________ - डॉ. रंजना वर्मा

 

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