रुत बदल रही है।
उम्र ढल रही है ।।
जन्म मिला था धरती पर तो था कितना रोये
क्षुधापूर्ति के लिये जगे दिन रेन बहुत सोये
बीती मस्ती परिवर्तन की हवा चल रही है ।
रुत बदल रही है ।।
रहीं निगाहें आसमान पर नजर न की नीची
अरमानों की बगिया कितनी मेहनत से सींची
समय ग्रीष्म में बहुत तपी अब बर्फ गल रही है ।
रुत बदल रही है ।।
कतरा कतरा बहा लहू का सागर लहराया
कभी न् देखा स्वेद कणों को जीवन महकाया
हर पग पर अब हिम बूंदों की हिम पिघल रही है ।
रुत बदल रही है ।।
पंखुरियाँ मुरझाईं फिर भी है सुगन्ध बाक़ी
नयनों में है अब तक गत की वह मधुरिम झाँकी
अब आँखों के आगे अपनी चिता जल रही है ।
रुत बदल रही है ।।
------------------------------- डॉ रंजना वर्मा
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