Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

विविध

 

 

डॉ. रंजना वर्मा

 

 

टला नहीं निज पन्थ से , हुआ नहीं गतिमान ।
पी अंजुरी भर चांदनी , तारा हुआ महान ।। 31

 

आँखों में आशा किरन , साँस साँस मधुगन्ध ।
हाथों में गंगाजली , लिखती प्रणय प्रबन्ध ।। 32

 

चुटकी भर सिंदूर ने , ऐसा रचा वितान ।
रोम रोम झंकृत हुआ , फूटा जीवन गान ।। 33

 

पीली सरसों सी हुई , पीली पीली देह ।
क्या मैं करूँ बसन्त का , पिया नहीं जब गेह ।। 34

 

चन्दन सा तन गन्ध मय , आँचल बसी सुवास ।
रंग महल सी देह में , नैना करें प्रकाश ।। 35

 

प्रिय अपने संग ले गये , जीवन के सब रंग ।
अब तो हर पल झेलनी , है जीवन की जंग ।। 36

 

मधु बसन्त पतझर हुआ , तुम बिन तन निष्प्राण
त्रिविध समीरण लू बना , जीवन हुआ मसान ।। 37

 

यादें हैं कचनार सी , खिल खिल उठे समीर ।
बजी प्रेम की बाँसुरी , मन - यमुना के तीर ।। 38

 

हुईं भावनाएं मुखर , जैसे सुमन सुगन्ध ।
अलियों की गुनगुन सदृश , चले बिखर मधु छंद ।।39

 

आँगन के इस ओर हम , तुम आँगन के पार ।
वैमनस्य ने खींच दी , क्यों मन में दीवार ।। 40

 

रत्न - प्रसूता है धरा , इस का हम को गर्व ।
भारत में आनन्द - मय , हों नित नूतन पर्व ।।41

 

कब कब दुर्घटना हुई , कहाँ आ गयी बाढ़ ।
धन के लालच में हुए , सब सम्बन्ध प्रगाढ़ ।। 42

 

तब न सुरक्षा कर सकी , अब करती उपचार ।
मृतकों की कीमत लगी , देने अब सरकार ।। 43

 

पेट पकड़ माँ रो रही , पत्नी छाती कूट ।
पाने हेतु मुआवजा , स्वजन मचाते लूट ।। 44

 

गीली गीली रात से , निकली सीली भोर ।
पीली पीली धूप भी , गयी गगन की ओर ।। 45

 

उत्तर के नागर सभी , ताप रहे हैं आग ।
चिथड़ा कथरी ओढ़ के , रात रही है जाग ।। 46

 

गीली गीली सर्दियाँ , लगीं कंपाने हाड़ ।
बार बार शीतल पवन , खड़का रहा किवाड़ ।। 47

 

निर्धनता ऐसी मिली , जैसे तपती रेत ।
सूरज तपता शीश पर , भूख जगाये खेत ।। 48

 

जर्जर काया ठूंठ सी , ऐसी दिखे विपन्न ।
प्यास लरजती आँख में , नहीं पेट में अन्न ।। 49

 

पिछले जन्मों में किया , ना जाने क्या पाप ।
जो इस जीवन में मिला , निर्धनता अभिशाप ।। 50

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ