Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

घूमकर बेटे ने दी जब गालियाँ।

 

घूमकर बेटे ने दी जब गालियाँ।
बाप ने हँसकर बजा दीं तालियाँ।।

 

एक ट्रक गुजरा कभी जो रोड पर,
सर से पाँँ तक काँप उट्ठी डालियाँ।

 

रौद डाला है उन्हें भी तोड़कर,
पक न पायीं थीं अभी जो बालियाँ।

 

बढ़ के अब ख़ूँख़ार नाले हो गये,
जो हुआ करती थीं सँकरी नालियाँ।

 

जो भजन गा-गाके पहुँचे मंच पर,
साज़ पर अब गा रहे कब्बालियाँ।

 

लोग कतराते थे जाने से कभी,
कैबरों में लगती हैं अब पालियाँ।

 

हाथ में जिनके कटोरे थे ‘विशद’,
आज चमचों से बजाते थालियाँ।

 

डॉ रंजन विशद

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ