वर्तमान के प्रतिष्ठित लेखक व स्वनामधन्य कवि डॉ कीर्ति वर्धन की दृष्टि समष्टि मे व्यष्टि व व्यष्टि में समष्टि देखने में समर्थ है| वे विचारक भी हैं और युगदृष्टा भी| उनकी दृष्टि वस्तुतः दिव्यता से परिपूर्ण है| वे अतीत, वर्तमान व आगत तीनों का प्रतिनिधित्व करने में न केवल सक्षम है, बल्कि अपने सृजन में इन तीनों को एक साथ लेकर चलने में समर्थ भी है|समीक्ष्य कृति में वे श्रेष्ठ समकालीन मुक्तकों के विशिष्ट रचयिता के रूप में प्रस्तुत हुये हैं| उनके मुक्तकों मे कहीं सांस्कृतिक चेतना है तो कहीं सामाजिक जाग्रति|कहीं विडंबनाओं का चित्रण है तो कहीं समकालीन विकृतियों पर आघात| कहीं धर्म है तो कहीं नवीनतम मूल्य, कहीं अध्यात्म है तो कहीं नैतिकता| अर्थात्, कीर्ति वर्धन के मुक्तकों में विविधपर्णी सुमनों की सुवास और रौनक है| हर मुक्तक मे गहन कथ्य है व एक सरलता विद्यमान है|
मैं नदिया हूँ, तुझसे मिलकर खारी हो जाऊँगी,तेरे वजूद में समाकर, क्या मैं नदी रह पाऊँगी?मिलने की चाह तो है तुझसे, ऐ समन्दर सुन,तब मिलूँगी जब तुझे, गंगा सागर बना पाऊँगी|
यह यथार्थ है कि कीर्ति वर्धन जी साहित्य की प्रायः समस्त विधाओं में सृजन कर रहे हैं| पर संतोष का विषय यह है कि वे सार्थक उत्कृष्ट व स्तरीय साहित्य सृजन कर रहे हैं|यह सुखद एहसास का विषय है कि इस कृति में जो मुक्तक समाहित हैं, उनमें लिये गये विषय/ कथ्य हमारे जीवन के आसपास से ही लिये गये हैं| हम कह सकते हैं कि “कीर्ति वर्धन का दृष्टि संसार” के समस्त मुक्तक समकालीनता बोध से परिपूर्ण है जिनमें एक उर्जा है, गतिशीलता है, ताजगी है, परिपक्वता है, गहनता है, उच्चता है और एक अनन्ता है|
अनेक रंग होकर भी, इन्द्रधनुष की बात हो,फूल भाँति भाँति के, बस खुशबू की बात हो|मन्दिर- मस्जिद, चर्च से, धर्म की चर्चा चले,देश सबसे पहले हो, बस मानवता की बात हो|
निसंदेह हर मुक्तक में मुक्तककार की अनुभवपरकता दृष्टिगोचर होती है| मुक्तककार की संजीदगी से ही वास्तव में मुक्तक प्रभावी बनता है| और यह संजीदगी हमें इस कृति के हर मुक्तक में सहृदयता/ प्रचुरता के साथ नजर आती है| वास्तव में मुक्तक महज चार पंक्ति की एक काव्य रचना मात्र नही है, बल्कि अपने आप में एक पूरा दर्शन / संदेश समाहित किये हुये सम्पूर्ण कविता होती है| इस कसौटी पर हर मुक्तक खरा व चोखा उतरता है| इस विशिष्टता के लिये डॉ कीर्ति वर्धन अभिनंदन के अधिकारी हैं|
मुमकिन है हर दौर में, मिलकर रहना,मुमकिन है हर हाल में, नफरत का निपटना|उससे भी जरूरी आदमी का, फकत आदमी बन, समाज की बेहतरी हो, सियासत का सिमटना|
कीर्ति वर्धन जी के रचना संसार से न केवल मैं सुपरिचित हूँ, बल्कि उनका प्रशंसक भी हूँ| उनके व्यक्तित्व के समान ही उनके सृजन में भी एक सरलता- सादगी, मधुरता दृष्टिगत होती है| चाहे गीत हो, गजल, नयी कविता, दोहे या मुक्तक, कीर्ति वर्धन जी के हर सृजन में एक नयी खुशबू और दृष्टि का अहसास होता है, एक रौनक के दर्शन होते हैं| मैं तो बस यह ही कहना चाहूँगा कि वास्तव में कीर्ति वर्धन कि सृजन पाठक के अंतरमन को आह्लादित कर देता है| वे अपने सृजन/ रचनाधर्म के संबंध मे कितनी विनम्रता से लिखते हैं, जरा देखें-
टूटे हुये शब्दों को, अक्सर जोड देता हूँ,गीत- गजल, चौपाई, अच्छा सा रूप देता हूँ|कागज पर बिखर जायें, शब्द- इधर उधर,उठाकर- सजाकर, कविता बना देता हूँ|
इस कृति मे रिश्तों- नातों के बिखराव, आत्मकेंद्रिता, राष्ट्रवाद की अनदेखी, मानवीय प्रकृति, दर्शन आदि पर भी सतत् कलम चलायी गयी है, जो अपने आप मे विशिष्ट व मौलिक है| वे सामाजिक सरोकारों से परिपूर्ण है| वे कवि होने से पहले अपने आप को एक सच्चे नागरिक के रूप में प्रस्तुत करते हैं व सद्भाव, सहिष्णुता, बंधुत्व, करूणा, नेह, ढाई आखर व आंतरिक शुचिता के पक्षधर हैं, जो कि हमें उनके मुक्तकों में स्फष रूप में परिलक्षित होता है| मुक्तककार संवेदनशील भी है और भावुक भी| इसीलिए हमें हर मुक्तक मे एक सकारात्मक आद्रता दृष्टिगोचर होती है, जिसे कृति व कृतिकार का धनात्मक पहलू ही माना जायेगा| इस संदेश को बार बार प्रणाम करने को मन करता है–
पत्थरों से भी तुम, प्यार करना सीख लो,बच्चों पर भी तुम, एतबार करना सीख लो|पत्थर के दिलों में, पानी का मीठा समन्दर,बिन स्वार्थ किसी के, काम आना सीख लो|
सादा पर आकर्षक मुखपृष्ठ प्रभावित करता है| साहित्यभूमि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित यह कृति उत्तम छपाई का प्रतिनिधित्व करती है| भारतीय संस्कृति व एक अंतर्निहित अनुशासन के पथ पर गमन करने वाले कलमकार डॉ अ कीर्ति वर्धन की इस कृति और उनके रचना संसार की व्यापक यशस्विता हेतु मैं मंगलभाव अर्पित करता हूँ|
प्रो. डॉ शरद नारायण खरे
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