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मन लगा यार अमीरी में

 

डॉ. शशि तिवारी


जब तक इस देश में गरीबी है तब तक ही अमीरी भी है। हकीकत में अमीरों का अस्तित्व गरीबों की नींव पर ही टिका है। जब देश में गरीब ही नही रहा तो अमीर भी कैसे रहेगा? संसार चलाने व समझने के लिए द्वेतवाद का होना जरूरी है और जब द्वेत ही नही बचा तो अमीर भी किसे कहोगे? कहने को तो बात दर्शन की है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दर्शन का भी अपना विज्ञान होता है जिस देश में गरीबी के नाम पर सरकारें बनती बिगड़ती हो, गरीबी के नाम पर राजनीति होती हो, गरीबी के नाम पर ढेरों योजनाएं चलती हो, गरीबी के नाम पर इफरात में अनुदानों का लेन-देन होता हो, घपले, भ्रष्टाचार होते हो, अचानक सभी के अमीर हो जाने से न केवल पूरा राजनीतिक परिदृश्य बदल जायेगा बल्कि इन योजनाओं की आड़ में चलने वाली दुकानों के भी अस्तित्व पर खतरा खड़ा हो जायेगा। अब अमीर अपनी अमीरी का रौब किस पर गाठेंगे?

विदेशियों की नजर में भारत शुरू से ही नंगे भूखों का देश रहा है। आने वाले विदेशी पर्यटक भी ऐसे लोगों की तस्वीर उतराना ही उनकी पहली प्राथमिकता में होती है और ये इन खीची गई तस्वीरों को पुरूस्कार के लिए भी रखते है और जीतते भी है। अब तो भारतीय लोग भी पुरूस्कार की होड़ की दौड़ में जुट गए है फिर बात चाहे नंगे-भूखों की तस्वीर की हो या मूवी की हो। इस थीम को ही ले हाल में एवार्ड प्राप्त मूवी ‘‘स्लम डाग मिलेनियर’’ ही क्यों न हो यह तो मात्र एक उदाहरण है। भारत में आज ऐसे लोगों की प्रदर्शनी और एवार्ड और अपने को प्रतिष्ठित करने का जरिया बन गई है। जब से योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अपनी कुबुद्धि का नमूना दिया है तब से ही यह देश-विदेशों में चर्चा का एक मुद्दा सा बन गया है। हाल में योजना आयोग द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर किये अपने हलफनामें में गरीबी की नई परिभाषा के अनुसार ‘‘दिल्ली, मुम्बई, बैंगलूर, चैन्नई जैसे शहरों में रहने वाला परिवार अगर हर माह 3890 रूपये खर्च करता है तो उसे गरीब नहीं माना जायेगा। इसी तरह मकान के किराए और आवाजाही पर 49.10 रूपया खर्च करता है, स्वास्थ्य पर 39.70 रू., शिक्षा पर 29.60 रूपये, कपड़ों पर 61.30, जूते-चप्पल पर 9.6 रूपये और निजि खर्च के तौर पर 28.80 खर्च करता है तो वह गरीब नहीं है। इसी तरह योजना आयोग के अनुसार शहरों में प्रतिदिन 32 रूपया और गांव में प्रतिदिन 26 रूपया खर्च करने वाला परिवार गरीब नहीं है।

यही नही योजना आयोग बाकायदा प्रतिदिन एक आदमी के खर्च का ब्यौरा भी देता है। मसलन एक दिन में एक व्यक्ति 5.50 रूपये दालों पर, 1.02 रूपये चावल, रोटी, 2.33 रूपये दूध पर, 1.55 रूपये खाद्य तेलों पर, 1.95 रूपये सब्जियों पर, 44 पैसे फलो, 70 पैसे चीनी, 78 पैसे नमक-मसालों एवं 3.75 रूपये ईंधन पर खर्च करता है तो आरामदायक जीवन जी सकता है।

योजना आयोग का यह निर्लज, बेशर्मी, बेहया दिमाग का दिवालियापन भरा तर्क न तो भारतीयों की आंखों में धूल झोंकने में सफल हुआ और न ही विदेशी, फंडिग एजेन्सियों के, उल्टे दोनों बिरादरी के सामने नंगे हुए सो अलग। चूंकि अब बात देश के मान-अपमान से, देश के बाहर से प्राप्त और मिलने वाले विभिन्न प्रकार के अनुदानों से जुड़ा है, अनुदान देने वाली एजेन्सियों के विश्वास के साथ विश्वासघात से जुड़ा है। अब यह गरीबी का मामला भारत का ही न हो विश्वव्यापी हो गया है। यहाँ अब भारत की ही विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह हमारे योजना आयोग के अधिकारियों के कारण खड़ा हो गया है।

यहाँ कुछ यक्ष प्रश्न उठ खड़े हुए है मसलन योजना आयोग ने 2004-05 की कीमतों को ही क्यों आधार माना? जबकि 2011 में महंगाई कई गुना बढ़ गई है? सुप्रीम कोर्ट में गलत हलफनामा प्रस्तुतीकरण को ले सरकार ने अभी तक इस मामले को संज्ञान में क्यों नहीं लिया? क्या सरकार झूठे हलफनामें को ले पुनः सुप्रीम कोर्ट की डांट-फटकार का इंतजार कर रही है? क्या हम इंतजार कर रहे है कि विदेशों से गरीबों के नाम पर मिलने वाली राशि को लेकर ये भी एक मुकद्मा भारत सरकार पर करें?

2005 से आज तक गरीबों की भलाई को लेकर चलाई जा रही योजनाओं में कितनों ने कितने अरबों, खरबों का चूना लगाया है? यदि इसकी ही जांच सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से हो तो लोग 2 स्पेक्ट्रम घोटालें को भूल जायेंगे, चूूंकि, अब तक इनका उपयोग लाभ केवल अमीरों अर्थात् 32 रूपये और 26 रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करने वालों ने ही उठाया। इस तरह गरीबों के नाम पर मिल रही मदद का भारत सरकार के अधिकारियों ने वे़जा दुरूपयोग किया है। योजना आयोग के नवीनतम हलफनामे के प्रकाश में आज भारत में कोई गरीब नहीं है। सड़क के किनारे, रेल्वे प्लेटफार्म, मंदिरों, मस्जिदों के सामने बैठे भिखारी भी प्रतिदिन 50-150 रूपया कमाते हैं।

योजना आयोग की सोच से सोचा जाएं तो यह हर्ष की बात है कि अब भारत में कोई गरीब नहीं है, जिस गरीबी को हटाने के लिए जुझारू, विश्वविख्यात राजनीतिज्ञ, चिंतक, विचारक भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी जिन्होंने न केवल ‘‘गरीबी हटाओ’’ का नारा दिया बल्कि राजनीति में गरीबों के लिए अभिनव योजनाएं भी चलाई, सफलतापूर्वक चुनाव भी जीते लेकिन अफसोस, गरीबी नहीं हट सकी। जो काम राजनीतिज्ञ नहीं कर सके वही काम योजना आयोग ने एक झटके में कर दिखाया अर्थात् भारत को गरीब विहीन कर दिया। अब विदेशी लोगों की हिम्मत नहीं कि वो भारत को नंगा, भूखा, गरीबों का देश कहे, गरीबों के नाम पर चल रही राजनीति में अब अचानक शून्य की स्थिति उत्पन्न हो गई है। अब राजनीति के लिए नए मुद्दों को तलाशना होगा?

योजना आयोग की इस कुत्सित चाल के पीछे बड़े-बड़े शातिर दिमाग चल रहे है मसलन गरीबों के नाम पर भारत सरकार द्वारा दी जा रही विभिन्न क्षेत्रों में सब्सिडी को खत्म कर अपने शासकीय खजाने के घाटे की एक मुश्त भरपाई कर, खजाने को लबालब भर जन प्रतिनिधियों और अधिकारियों को और मौज उड़ाने के लिए रास्ते साफ हो, घन की कमी को तो उनकी अर्न्तआत्मा कभी भूल से भी न कचोटे और जीवन पर्यन्त तक मौजा ही मौजा रहे।

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