डाॅ. शशि तिवारी
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम 2015 एस.सी./एस.टी. के खिलाफ अत्याचार के रोकथाम के लिए है इसमें और कठोर प्रावधानों को सुनिश्चित् किया गया है। यह अधिनियम मूल अधिनियम में एक संशोधन है एवं अनु.ज./अ.ज.जाति अधिनियम 1989 के साथ संशोधन प्रयासों के साथ लागू किया गया था। यूं तो इस वर्ग की रक्षा के लिए कई प्रावधान हैं। लेकिन इस एक्ट में जो एक कड़ा प्रावधान ‘‘बिना जांच किए ही आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी हो जाती थी।’’ इसका विगत् वर्षों में बेजा फायदा भी उठाया गया। निरीह लोगों को इस एक्ट का भय दिखा, केरियर खत्म करने, जेल में डलवा देने जैसी घटनाओं में काफी तीव्र गति से बढोत्तरी हुई। इसमें व्यक्ति को गिरफ्तार के पहले सफाई देने का भी कोई भी मौका नहीं मिलता था, न ही कोई सुनवाई सीधे-सीधे पहले गिरफ्तारी। मूलतः यह निःसंदेह यह न केवल एक तरफा था बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्वान्त के भी विरूद्ध था एवं प्रथम दृष्ट्या विपरीत भी था।
‘‘अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम’’ सितम्बर 1989 को राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त हुई एवं 1989, 30 जनवरी 1990 को लागू हुआ था।’’ भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 ‘‘अस्पृश्यता उन्मूलन’’ समाहित है। इस एक्ट 1989 की धारा 18 में अग्रिम जमानत पूर्णतः प्रतिबंधित है। आरोपित अभियुक्त 438 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत जमानत हेतु आवेदन नहीं कर सकता हैं। हकीकत में इसमें ही संशोधन हुआ न कि एक्ट में। इस अधिनियम में 5 अध्याय एवं 23 धाराऐं हैं।
एस. सी. एस. टी. एक्ट की धारा 3 में दण्ड का उल्लेख हैं। न्यूनतम सजा 12 माह एवं अधिकतम मृत्यु दण्ड केन्द्र सरकार में धारा 23 के अंतर्गत नियम बनाने का अधिकार है। स्वतंत्रता के पश्चात 50 वर्षों तक कांग्रेस एवं 10 वर्षों तक भाजपा एवं शेष अन्य सरकारे दलितों के नाम पर केवल और केवल राजनीति ही करती दिखी। इनमें से कुछ ने इनका मसीहा तो कुछ ने निहितार्थ के चलते अपने को ठेकेदार समझ दलित को दलित ही रहने दिया गया। लोगों को दिखावे के लिए मंत्री भी बना दिया ताकि इस वर्ग के लोग कुछ कह न सकें। लेकिन किसी ने भी सच्चा प्रयास इनके उत्थान के लिए नहीं किया न ही कभी स्थिति का रिव्यू किया गया। नतीजन इस वर्ग में ही कुछ विशेष ही लगातार लाभ ले मुख्य धारा में अग्रिम पंक्ति मे ंतो आ गये लेकिन अंतिम छोर पर खड़ा दलित, दलित ही रहा 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के एवं अफसर द्वारा अधीनस्थ कर्मचारी के काम न करने पर गोपनीय चरित्रावली में टिप्पणी लिख दी जिसके विरूद्ध प्रभावित व्यक्ति के एस.सी./एस.टी.एक्ट के तहत् मुकदमा दर्ज करा दिया जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तब न्यायालय के समक्ष यह हकीकत आई कि लगभग 80 फीसदी मामलों में एस.सी./एस.टी. एक्ट को दुरूपयोग हुआ एवं दुश्मनी निकालने का ही यह एवं अचूक हथियार साबित हुआ। इसी को लेकर 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में केवल इतना कहा कि गिरफ्तारी के पहले जांच, यदि सरकारी कर्मचारी है तो सक्षम अधिकारी की अनुमति ली जावें।
सरकार द्वारा पुर्नयाचिका में भी न्यायाधीश ए. के. गोयल एवं न्यायाधीश यू.यू.ललित ने कहा जो लोग विरोध कर रहे है उन्होने शायद फैसले को पूरी तरह से पढा ही नहीं एवं कुछ लोग अपने फायदे के लिए दूसरों को गुमराह कर रहे है। सुप्रीम कोर्ट एम.सी./एस.टी.एक्ट के खिलाफ नहीं है लेकिन किसी बेगुनाह को भी गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए। यहां यक्ष प्रश्न उठता है कि क्या अब सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक दलों के हिसाब से फैसले सुनाए? क्या अब सरकारें केवल अल्पसंख्यक/अ.ज.अजजा. के लिए ही है? यदि किसी सरकार ने एक तरफा कोई कानून बना दिया जिसमें भारत के नागरिक का संवैधानिक अधिकारों का हनन होता है तो उसे संसद ने ही क्यों ठीक नहीं किया? या केवल लोगों को बांट वोट बैंक प्रमुख रहा? क्यों सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सरकार या जनता सवाल उठाए? एक ओर जहां कानून बनाने का अधिकार संसद को है तो दूसरी और उसकी व्याख्या का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को है इसमें मेरी मर्जी किसी भी सरकार/संध/संगठन की नहीं थोपना चाहिए। हर हाल में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का मान होना चाहिए। यदि यही हाल रहा तो हर वर्ग अपना संगठन बना यदि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरूद्व उतरे तो यह न लोकतंत्र के लिए ठीक होगा और न ही संवैधानिक होगा। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के विरूद्ध जिन-जिन संगठन के नेताओं मंें जनता को हिंसा के लिए उकसाया है शासकीय एवं प्रायवेट सम्पत्ति को क्षति पहुंचाई है उन्हें चिन्हित कर उनके विरूद्व न केवल कड़ी कार्यवाही करना चाहिए बल्कि उसकी क्षतिपूर्ति भी उन्हीं से ही कराना चाहिए नहीं तो अब यह एक चलन सा हो जायेगा?
निःसंदेह सुप्रीम कोर्ट की भावना संविधान एवं व्यवहारिक तौर पर पूर्णतः तर्क संगत है ‘‘सौ अपराधी छूट जाएं लेकिन एक निरपराधी को सजा न मिलें।’’
आज नेताओं ने अपने लाभ के लिए जनता के बीच जाति धर्म समुदाय के मध्य स्वतंत्रता के पश्चात् से खाई और भी बढाई हैं। यहां फिर यक्ष प्रश्न उठता है। क्यों सरकारें जाति धर्म से ऊपर नहीं उठ पा रही?
क्यों विकास, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी पर जाति की राजनीतिक हावी हो रही है? आखिर क्यों सरकारें दलितों की स्थिति की समीक्षा करने से डरती हैं? कब तक निरीह जनता जाति का दंश मिलती रहेगी? कब एक नया अम्बेड़कर आयेगा।
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