यादों का कोई घरौंदा नहीं होता है,
ना ही कोई सरहद
वो तो पक्षी हैं, कभी डाल -डाल कभी पात -पात ।
कभी उड जाये मस्त गगन में, कभी गहरे समुन्दर में, कभी बादलों की ओट से, कभी पतियों की सरसराहट से ।
कभी एक टक आसमां को निहारते हुए,
अक्सर पलको के कोरों से, अश्क बहने लगी
मेंरी हाथ बरबस अश्को तक पहुँच गई ।
अश्कों को बहुत रोकी, फिर भी रोज चली आती हैं,
यह अहसास करा जाती है, मुझ पर वश नहीं है तेरा ।
खामोश रहकर भी, अक्सर आखों से कह जाती है,
यादों का कोई घरौंदा नहीं होता ।
डॉ सीमा सिंह सेंगर
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