Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

यादो का कोई घरौंदा नहीं होता

 

यादों का कोई घरौंदा नहीं होता है,
ना ही कोई सरहद
वो तो पक्षी हैं, कभी डाल -डाल कभी पात -पात ।

 

कभी उड जाये मस्त गगन में, कभी गहरे समुन्दर में, कभी बादलों की ओट से, कभी पतियों की सरसराहट से ।

 

कभी एक टक आसमां को निहारते हुए,
अक्सर पलको के कोरों से, अश्क बहने लगी
मेंरी हाथ बरबस अश्को तक पहुँच गई ।

 

अश्कों को बहुत रोकी, फिर भी रोज चली आती हैं,
यह अहसास करा जाती है, मुझ पर वश नहीं है तेरा ।
खामोश रहकर भी, अक्सर आखों से कह जाती है,
यादों का कोई घरौंदा नहीं होता ।

 

 

डॉ सीमा सिंह सेंगर

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ