Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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हब्बाख़ातून

 

नाट्यरचना
हब्बाख़ातून
पात्र-परिचय:
यूसुफ शाह: कश्मीर के चक वंश (16वीं शती) का शाहज़ादा।
हब्बाखातून: एक ग्राम-युवती जो यूसुफ की रानी बनती है।अत्यन्त रूपवती तथा कंठ सुरीला।
अबदीराथर: हब्बाखातून का बाप।
सुखजीवन: अबदीराथर का पड़ौसी व पारिवारिक मित्र ।
संत.मसूद: एक पहुँचे हुए सूफी संत।
भगवानदास: अकबर का सेनापति ।
याकूब खाँ: यूसुफ का सहायक।
ज़ाकिर खाँ राजा भगवानदास का सहायक।
बच्ची।


यूसुफ: वाह! क्या दिलकश नजारा है....दूर-दूर तक फैले यह बर्फीले पहाड़।कलकल बहते यह झरने.....दोशीजा के दुपट्टे की तरह लहराते यह धान के हरे-भरे खेत .....चिनार के दरख्तों की यह लम्बी-लम्बी कतारें.......और, और वह गोल-गोल प्याले की शक्ल की छोटी-सी झील......। लगता है कुदरत की सारी कारीगरी यहीं पर सिमटकर आ गई हो। सच, याकूब खाँ, दिल करता है कि कुदरत के इस बेपनाह हुस्न को आंखों में बसा लूँ।
याकूब: वाकई हजूर, यह जगह बहुत ही खूबसूरत है।
यूसुफ: याकूब खाँ, कश्मीर की ऐसी कोई सैरगाह नहीं जिसको हमने न देखा हो.....म-मगर इस जगह की तो बात ही कुछ और है..........।
याकूब: शाहजादे का फरमाना बिल्कुल सही है।......हुजूर शायद नहीं जानते कि यह जगह कश्मीर की निहायत ही खूबसूरत सैरगाह पांपोर है जो जाफरान की खेती के लिए दूर-दूर तक मशहूर है ।.......
(तभी एक गीत की स्वर-लहरी फिज़ा में तैरती हुई शाहजादे के कानों में सुनाई पड़ती है।)

यूसुफ: याकूब खां, कुछ सुना तुमने?...... कैसी सुरीली और पुरकशिश आवाज है......। लगता है कोई दुखियारी कुदरत की इस कारीगरी से बेजार है......। सुनो, गौर से सुनो। कोई बुलबुल जैसे अपने दिल के दर्द को गीत की लड्डियों में पिरोकर हल्का कर रही है .......सुनो......सारी फिजाएँ जैसे गूंज रही हैं.......!
याकूब: वाकई हुजूर, यह गीत नहीं बल्कि मौसीकी का एक शाहकार है......मैं सोचता हूँ, जब गाने वाली की आवाज इतनी पुरअसर है तो फिर गाने वाली खुद कितनी हसीन होगी.......!!
यूसुफ: ठीक सोचा तुमने याकूब।......चलो, चलकर देखें यह मौसीकी का सोता कहाँ से फूट रहा है?
(हल्का संगीत...घोड़ों के टापों की आवाज फिर उभरती है जो धीरे-धीरे मखिम पड़ती है.... गीत की स्वर लहरी फिजा में पुनः गूंजती है......( ससुराल में सुखी नहीं हूँ मायके वालो! मेरा कुछ चारा करो....।
याकूब: हुजूर, वह देखिए, उधर । चिनार के उस दरख्त के नीचे वह औरत गाना भी गा रही है और लकड़ियाँ भी बीन रही है.......। पहनावे से बिल्कुल देहातिन लग रही है ......।
यूसुफ: माशा-अल्लाह। यह औरत तो वाकई हूर है......। कुदरत के इस दिलकश नज़ारे में इसकी मौजूदगी से चार चाँद लग रहे हैं......। याकूब खां, शहर के हुस्न में और देहात के हुस्न में क्या फर्क है, यह आज नजर आ रहा है मुझे । सच, ऐसा नायाब हुस्न इन आंखों ने पहले कभी नहीं देखा......।
(घोड़ों के चलने की आवाज जो थोड़ी देर बाद थम जाती है ....)
याकूब: ऐ औरत, कौन है तू और यहाँ क्या कर रही है? (खामोशी) सुना नहीं, मैं पूछता हूँ कौन है तू और यहाँ क्या कर रही है?
हब्बा: मैं-मैं पास के गांव चंदहार की रहने वाली हूँ......। यहां रोज आती हूँ लकड़ियाँ बीनने........।
याकूब: अच्छा, तो तुम चंद्रहार(पांपोर) की रहने वाली हो.....।मालूम है तुम्हारे सामने यह कौन खड़े? .......जानेगी भी कैसे? देहातिन जो ठहरी! ........
याकूब: यह इस मुल्क के शाहजादे सुलतान यूसुफशाह हैं......। सलाम करो इन्हें।
हब्बा: कुसूर माफ हो सरकार । मैं बिल्कुल भी नहीं जानती थी......। देहातन हूँ ना। ......शाहजादे को मेरा सलाम कुबूल हो......। अच्छा, अब मैं चलती---।
यूसुफ: रुको हमें तुमसे एक बात कहनी है ........।
हब्बा: ज-जल्दी कहिए सरकार, मुझे जाना है। मेरे घर वाले मेरी राह देख रहे होंगे......। यूसुफ: सुनो, तुम जो अभी-अभी यह गाना गा रही थी उसमें तुम्हारा दर्द झलक रहा था......। क्या सचमुच ससुराल वाले तुम्हारी कद्र नहीं करते हैं.....?
हब्बा: (आह भर कर) कद्र.......! इस दुनिया में कौन किस की कद्र करता है सरकार? सब तकदीर का खेल है।
यूसुफ: हम कुछ समझे नहीं......साफ साफ बताओ, तुम कहना क्या चाहती हो?
हब्बा: देखिए न हुजूर, आप घोड़े पर सवार होकर हुक्म चला रहे हैं और मैं ज़मीन पर खड़ी लकड़ियाँ बीन रही हूँ......यही तो है तकदीर का खेल.........!
यूसुफ: सुभान अल्लाह ........मर्हबा । कौन कहता है कि तुम देहातिन हो......ऐसी अक्लमंदी और दानाई तो मेरे वज़ीरों में भी नहीं है .......। अच्छा सुनो, तुम ने चौदहवीं के चांद को कलकल बहते झरने में नहाते हुए कभी देखा है ?
हब्बा: कलकल बहते झरने में चांद को.........।
यूसुफ: हां, चौदहवीं के दिलकश गोल-गोल चांद को जो अपने हुस्न की चांदनी से धरती के चप्पे-चप्पे को ठंडक पहुँचाता है।
हब्बा: हां-हां देखा है, बहुत बार देखा है। म-मगर आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं?
यूसुफ: हम इसलिए पूछ रहे हैं कि तुमने अपने गांव का नाम और अपना काम तो बता दिया, मगर घर का नाम नहीं बताया........। ठीक है, इस बाबत हम अब ज्यादा इसरार भी नहीं करेंगे.....।
हब्बा: ओह, अपना नाम बताना तो मैं सचमुच भूल गई.....म-मेरा नाम......
यूसुफ: तुम्हारा नाम कुछ भी हो। मेरे लिए तुम वही गोल-गोल दिलकश चांद हो जिसके हुस्न की चांदनी झरने की मौसीकी को और भी दिलफरेब बनाती है।
यूसुफ: हाय अल्लाह! आप तो शायरी करने लगे।
यूसुफ: ठीक कहा तुमने.......। मेरी बात वही समझ सकता है जो खुद शापर हो। सच, तुम्हारी यह मीठी आवाज और यह बेपनाह हुस्न दोनों बेश-कीमती ही नहीं, नायाब भी हैं .........।
हब्बा: नहीं-नहीं ......।मैं शायर नहीं हूँ......।मैं तो एक मामूली-सी देहातिन हूँ।अच्छा, अब जाती हूँ......।
यूसुफ: सुनो-सुनो.......चली गई।
याकूब: जाने दीजिए हुजूर, ऐसी देहातिनों को ज्यादा मुंह लगाना ठीक नहीं है.......। आपके महल में तो इस जैसी जाने कितनी हुस्नपरियाँ मौजूद हैं .....फिर इसमें ऐसी क्या खूबी है ......?
यूसुफ: नहीं याकूब नहीं, यह ऐसी-वैसी औरत नहीं लगती......। इसका भोलापन, इसकी पुरकशिश आवाज और बेपनाह हुस्न इस बात का सबूत है कि यह औरत कोई मामूली देहातिन नहीं है, बल्कि खुदाकी नियामत है, उसकी कारीगरी की जीती-जागती तस्वीर है ........।
याकूब: लगता है, हुजूर उस औरत से कुछ ज्यादा ही मुतासिर हुए हैं......।
यूसुफ: हां याकूब, जब हमने उसे पहली नजर में देखा तो हमें लगा कि उसकी रूह
में एक फनकार समाया हुआ है,ऐसा फनकार जो हुस्न और मौसीकी का मुजस्मा हो.....। मैं इस औरत से दुबारा मिलना चाहता हूँ ..........।
याकूब: म-मगर हुजूर, आपके वालिद साहब इस औरत से आपका मिलना शायद पसंद नहीं करेंगे..........।
यूसुफ: (भावुक होकर) तुम जानते हो याकूब, इस दुनिया में अगर मैं किसी से बेहद प्यार करता हूँ तो वह है हुस्न और मौसीकी। इस औरत में यह दोनो बातें अपनी इंतहा पर हैं..........।
याकूब: इंतहा पर हैं ......?
युसुफ: हां, याकूब । अल्लाह की यह नियामत जंगल के मोर की तरह बेनामी की जिन्दगी में नाचती रहे, यह हम गवारा नहीं करेंगे......।इसे हम गले का हार बनाकर अपने महल की जीनत बनायेंगे........। तुम जाकर इस औरत के मां-बाप का पता लगाओ...... जाओ, याकूब, अभी पता लगाओ......।
(संगीत)
(रानी हब्बा की ख्वाबगाह। हब्बा एक गीत की पंक्तियाँ गुनगुना रही हैं।गुलदस्ता सजाया है मैने तेरे लिए, इन अनार के फूलों का लुत्फ उठा ले...मैं हूँ धरती, तू आसमां है मेरा... सिरपोश है तू मेरे राज़ों का, शै हूँ इक प्यारी-सी, तू मेहमान मेरा प्यारा सा, इन अनार के फूलों का लुत्फ उठा ले...)
यूसुफ: (प्रवेश करते हुए, ताली बजाकर)...... सुभान अल्लाह। आफरी सदआफरी.........
हब्बा: ओह आप!
यूसुफ: रुको मत हब्बा........गीत पूरा करो....... वाह क्या बोल हैं.......। गुलदस्ता सजाया है मैने तेरे लिए...... अनार के इन फूलों का लुत्फ उठा ले....... खूब, बहुत खूब!
हब्बा: हाय अल्लाह, आपने सारा गीत सुन
लिया.......?
यूसुफ: सारा नहीं, अधूरा सुना है। जाइए, हम आपसे नहीं बोलते । आप हमारे गीतों को यों छिप-छिपकर क्यों सुनते हैं......?
यूसुफ: छिप-छिपकर.......!! ह-ह-ह-भई, तुम्हारी खूबसुरती और तुम्हारी आवाज को छुपछुपकर देखने-सुनने में ही तो लुत्फ है.......अच्छा छोड़ो...... यह बताओ, तुम्हें याद है करीब दो साल पहले तुम मुझे पांपोर की उस खूबसूरत सैरगाह में मिली थी........।
हब्बा: (हंसते हुए) मेरे सरकार, मुझे सब कुछ याद है.....(भावुक होकर) उन बेशकीमती लम्हों को मैं कैसे भूल सकती हूँ?
यूसुफ: याद है, तुमने कहा था कि मैं घोड़े पर सवार होकर हुक्म चला रहा हूं और तुम जमीन पर खड़ी लकड़ियाँ बीन रही हो, यह तकदीर का खेल नहीं तो क्या है.......?
हब्बा: (हंसते हुए) हां-हां अच्छी तरह याद है, और आपने कहा था कि मैं आपके लिए वही गोल-गोल दिलकश चांद हूँ जिसके हुस्न की चाँदनी झरने की मौसीकी को और भी दिलफरेब बनाती है .......। (दोनों हंसते हैं ..........)
यूसुफ: सच हब्बा, मेरी दिली ख्वाहिश है कि तू गीतों की रानी बने और दुनिया तुझे मौसीकी की मल्लिका का एजाज़ बख्शे...........।
हब्बा: यकीन मानिए सरकार,आपकी ख्वाहिश जरूर पूरी होगी। आपकी खुशी में ही तो मेरी खुशी है।
यूसुफ: हब्बा! (प्यार करते हुए।) हब्बा: मुझे इतना प्यार न दीजिए। सच कह रही हूं ..... इस दिल को मैं संभाल न पाऊँगी। आप इतना प्यार करेंगे तो मैं इन खुशी के आंसुओं को भी रोक न सकूँगी। .....
यूसुफ़: नहीं, आँसू तुमने बहुत बहाए हैं..... अब तुम इस महल में आजाद बुलबुल की तरह चहकोगी और मैं तुम्हारी मीठी तान सुनूंगा.......।
हब्बा: आपने फिर शायरी शुरू कर दी.....। चलिए तैयार हो जाइए, आपको आज कई सारे काम करने हैं.............
यूसुफ़: कई सारे काम?
हब्बा: हां, वजीरों की मजलिस को खिताब करना है, दिल्ली के शंहशाह अकबर ने जो पैगाम भेजा है, उसका जवाब भेजना है । और, और ...... ईरान से मेरी तरबीयत के लिए जो शाही मौसीकार आपने बुलवाए हैं, सुना है कि वह कश्मीर पहुंच गये हैं। उनकी अगुआनी के लिए आपको खास इंतजाम करना है.........
यूसुफ: मगर, एक काम बताना तो तुम भूल ही गई........।
हब्बा: कौन सा काम .........?
यूसुफ: देखो, तुम एक शायरा हो।सारे जहाँ की बातों को तुम लफ्ज़ों में कैद करती हो, जरा सोचो कौनसा काम हो सकता है.........?
हब्बा: बताइए ना.......सच, मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा .......।
यूसुफ: अ-आज मेरे दिल की रानी हब्बा खातून की साल गिरह है...... आज और कोई काम नहीं होगा....... बस सालगिरह ......... देखो, तुम भले ही अपने आपको भूल जाओ मगर हम तुम्हारी हर बात,हर अदा को याद रखेंगे........।
हब्बा: हाय अल्लाह ! मैं तो सचमुच भूल ही गई थी कि आज मेरी सालगिरह है.......। (भावुक होकर) यूसुफ। जाने क्यों कभी-कभी मुझे डर-सा लगता है .....। सोचती हूं कि हमारी मुहब्बत को कहीं जमाने की नजर न लग जाये ......।
यूसुफ: हब्बा, सच्ची मुहब्बत जमाने की हर गर्दिश और हर दुशवारी को खुशी-खुशी सहन कर लेती है........।
हब्बा: सच, आपने मेरे लिए जो कुछ किया उसे मैं ताकयामत भूल नहीं सकती। मुझे कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया।......... मेरे सारे दुःख दूर किए तुम भले ही अपने आपको भूल जाओ मगर हम तुम्हारी हर बात,हर अदा को याद रखेंगे........।
हब्बा: हाय अल्लाह ! मैं तो सचमुच भूल ही गई थी कि आज मेरी सालगिरह है.......। (भावुक होकर) यूसुफ। जाने क्यों कभी-कभी मुझे डर-सा लगता है .....। सोचती हूं कि हमारी मुहब्बत को कहीं जमाने की नजर न लग जाये ......।
जमीन के एक जर्रे को आफ्ताब की किरण बना दिया।.......खेतों में भटकने वाली एक किसान लड़की को महलों की रानी बना दिया ..........।(स्वर में भावुकता)
यूसुफ: अच्छा, अब उठो ...... सालगिरह मनाने की तैयारी करो ......मैंने हुक्म दे दिया है कि मुल्क के सभी नातवानों और अपाहिजों में मुफ्त खाना-कपड़ा बांटा जाए ...... मिश्री और इलायंची भी जगह-जगह बांट दी जाए........।
हब्बा: मिश्री और इलायची?
यूसुफ: हां-हां, मिश्री और इलायची, क्यों कहां खो गई तुम .........?
हब्बा: यूसुफ, मिश्री और इलायची का नाम सुनते ही जाने मेरी यादाश्त कहाँ चली जाती है......। बहुत साल पहले की बात है ....... तब मैं छः साल की रही हूंगी। ........ मेरी सालगिरह का दिन था। मेरे बाबा अब्दीराथर जिन्दा थे तब।...... पड़ोस के सुखजीवन चाचा मेरे लिए मिश्री और इलायची लाये थे......मिश्री और इलायची लाये थे ....... मिश्री और ........॥
(फलैश प्रारम्भ)
(सालगिरह के अनुकूल माहौल।स्त्री, पुरुषों, बच्चों का समवेत स्वर। हास-परिहास ......)
सुखजीवन: मुबारक हो अब्दीराथर, बच्ची की सालगिरह मुबारक हो......। भई, कहाँ छिपा रखा है चाँद के टुकड़े को? ....... थोड़ी मिश्री और इलायची लाया हूं।अपने हाथों से खिलाऊँगा बिटिया को.....।
(समवेत स्वरों में से एक स्वर उभरता है)
बच्ची: मैं यहाँ हूं चाचा (हंसती है) लाइए, मेरी मिश्री और इलायची.......।
सुखजीवन: ऐसे नहीं दूंगा ...... पहले मेरे पास आ.....।माथा तो चूम लूं अपनी लाड़ली
का......आ-आ इधर आ........हां, ऐसे ...... (चूमने की आवाज)। मुंह खोल अब......हां, यह लो........ आया न मजा? देख, अब इन मेहमानों को भी थोड़ी-थोड़ी मिश्री और इलायची खिला दे ...........।
बच्ची: सिर्फ मेहमानों को ....... आपको नहीं? (हंसी)
सुखजीवन: हां हां मुझे भी और अपने मां-बाप को भी.......।
बच्ची: अच्छा, पहले मैं थोड़ी सी और खा लूं, फिर सब को खिलाऊँगी.......
सुखजीवन: भाई, राथर, तुम सचमुच किस्मत वाले हो, यह बच्ची बड़ी होकर लाखों में एक होगी ......। इसके माथे की लकीरें बताती हैं कि यह बच्ची तुम्हारा ही नहीं, अपने वतन का नाम रोशन करेगी........... यह बहुत बड़ी फनकार बनेगी। ..... सच, इस बच्ची की आवाज में आबशारों का संगीत है......।देख लेना मेरी बात गलत नहीं निकलेगी .......
अब्दीराथर: सुखजीवन, यह सब उस खुदाताला की मेहरबानी का नतीजा है ....... जानते नहीं, तुम्हारी भाभी औलाद की खातिर कहाँ-कहाँ नहीँ भटकी।दरवेशों के दामन थामें, पीरों के पैर पकडे,मस्जिदों-मजारों में जाकर सजदे किये ...... तब कहीं जाकर यह कली खिली है ........। मैं तो इसे खुदावंद की रहमत ही। मानता हूँ।
सुखजीवन: राथर, मैं तुम्हारा पड़ौसी भी हूँ और दोस्त भी। ........ अब मेरी एक बात सुन..........
राथर: कौन-सी बात.........?
सुखजीवन: सुनो, अगर तुम इसे खुदा की रहमत का नतीजा मानते हो तो एक काम करो..........किसी पीर-औलिया के पास चलकर अपनी अकीदत का नजराना चढ़ाओ ........(थोड़ा रुककर)......इस बच्ची को भी साथ ले चलो.......। इसके लिए भी कुछ दुआएं मांगो। ....... देख लेना, इन दुआओं से बच्ची की जिन्दगी में बहार छा जायेगी।
राधर: ऐसा कोई पीर-औलिया तुम्हारा नज़र में है?
रमुखजीवन: हां-हां सूफी संत ख्वाजा मसूद का नाम तो सुना होगा तुमने .......?
राथर: हां-हां, वही ख्वाजा मसूद ना, जो अपनी दुआओं से दीन-दुखियों का दुखदर्द दूर करते हैं।....... और, और एक मदरसा भी चलाते हैं........।
सुखजीवन: हां वही ......। झेलम के किनारे पांत-छोक के पास उनका आस्ताना है.....। कश्ती से जाना पड़ेगा ....... पूरा एक दिन लगेगा......।
राथर: ठीक है, तुम्हारी अगर यही मर्जी है तो हम कल ही चले चलते हैं। तुम कश्ती का इंतजाम करो ....... मैं बच्ची को तैयार करता हूँ.......।
(फलैश समाप्त)
यूसुफ: अच्छा, तो फिर तुम ख्वाजा मसूद के पास गई थी?
हब्बा: हां, मेरे बाबा और सुखजीवन चाचा कश्ती में बैठकर उनके आस्ताने पर गये थे .........।हाय, कितनी प्यारी थी उनकी दाढ़ी। ....... बर्फ की तरह सफेद-सफेद और नर्म-नर्म।उनकी आवाज में गजब की बुलन्दी और तासीर थी ....... तासीर थी.........।
(फ्लैश प्रारम्भ)
(संत ख्वाजा मसूद का मदरसा ...... बच्चे पढ़ रहे हैं....)
राथर: सलाम अलैकुम, पीर साहब।
मसूद: अलैकुम सलाम । खुदा के नेक बन्दो, इस फूल-सी बच्ची को लेकर तुम लोग कहाँ से आ रहे हो और कहाँ जा रहे हो?
सुखजीवन: हज़रत, हम लोग पांपोर गाँव से आए हैं। ........ हम दोनों की वहाँ खेती है। ........ हम दोनों पड़ौसी हैं ....... अलग-अलग मजहब होने के बावजूद हम भाइयों की तरह रहते हैं .......।
मसूद: अल्लाह की रहमत के सामने दीन और मजहब कोई मायने नहीं रखते। उसके घर से सभी बराबरी का दर्जा लेकर आते हैं ........ऊंच-नीच, हिन्दु-मुसलमान, अमीर-गरीब .......यह सब तो आदमी की अपनी फितरत का नतीजा है ...... हम सब एक ही खुदा के बंदे हैं ......।बरखुरदार, तुम दोनों भाई-भाई की तरह रहते हो इससे बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती है? ........ अच्छा, यह बताओ यहां आने का तुम्हारा मकसद क्या है?
राथर: पीर साहब, खुदा की मेहरबानी से मेरे आंगन की वीरान बगिया बहुत सालों बाद महकी है........। खूब मन्नतों के बाद मेरे घर एक बच्ची हुई है .......। मेरी ख्वाहिश है कि इस बच्ची के सिर पर आप अपनी रहमत का हाथ फेरें और इसे दुआएं दे ......।
सुखजीवन: जी हां, गरीब नवाज, जैसे यह इसकी बेटी है, वैसे ही मेरी भी है ........। हम चाहते हैं कि आपकी दुआओं से इस बच्ची का हर दुख दूर हो और हर मुश्किल आसान हो .......। आप इस पर रहमत का हाथ फेरेंगे तो इसकी जिन्दगी केसर की तरह महकेगी और सूरज की तरह चमकेगी ......। बड़ी उम्मीदें लेकर आये हैं हम आपके पास.......।
मसूद: रहमत बरसाने वाला तो खुदा ताला है .......। हम तुम तो सिर्फ दुआ ही कर सकते हैं.......। उसकी झोली में कोई कमी नहीं है । नेक-पाक बन्दों पर वह निगेहबानी जरूर करते हैं.....। अच्छा, आओ तुम लोग यहां बैठो। यहां, हाँ इस तरफ ...... बच्ची को इस तख्तपोश पर बिठा दो........।
राथर: बेटी, पीर साहब को सलाम करो.......।
बच्ची: सलाम बाबा .......।हाय अल्लाह,आपकी दाढ़ी कितनी सफेद है।बिल्कुल बर्फ जैसी.......।
मसूद: (हंसते हुए) बेटी,यह दाढ़ी जिन्दगी के बहुत सारे उतार-चढाव और थपेड़े खा-खाकर सफेद हुई है........ इस चेहरे पर अब यही एक चीज तो बची है। ....... दांत कब के गिर चुके हैं और आंखों की बीनाई भी कमजोर हो चुकी है। ...... खैर, छोड़ो.......। अच्छा यह बताओ बेटी, तुमने कभी खूबसूरत गुल पर बैठी बुलबुल को चहकते देखा है?
बच्ची: गुल पर बैठी बुलबुल को?

मसूद: हाँ-हाँ, वही बुलबुल जो बहुत मीठा गाती है।
बच्ची: देखा है। कई बार देखा। हमारी फुलवाड़ी में कई बुलबुलें सुबह-सवेरे खूब चहकती हैं .......।
मसूद: बेटी, तेरी पेशानी बताती है कि तू गीतों की रानी बनेगी, बुलबुल की तरह चहकेगी और गुल की तरह महकेगी......। बच्ची: सच, बाबा?
मसूद: हां, आने वाला जमाना तुझे सदियों तक याद रखेगा। ......मौसीकी के कद्रदानों की तू पुलकन और अपने महबूब के दिल की तू धडकन बनेगी....... तू सब को प्यारी लगेगी.......। सब की हबीब बनेगी। आज से तेरा नाम मैं हब्बा रखता हूँ....... मौसीकी की दुनिया में तू नई शान पैदा करे, तेरा नाम रोशन हो, खुदा से मेरी यही दुआ है ....... जा बेटी जा, खुदाताला तेरी निगेहबानी करेंगे, आवाज की दुनिया में तेरे गीत हमेशा गूंजते रहेंगे...... गूंजते रहेंगे।
(फलैश समाप्त)
यूसुफ: वाकई,ख्वाजा मसूद ने जो पेशनगोई की थी, वह सच निकल रही है.......। तुम्हारे मौसीकी के उस्तादों की भी यही राय है कि तुम एक दिन गीतों की रानी जरूर बनोगी।
हब्बा: सच यूसुफ, बचपन के वोह दिन भी कितने प्यारे थे, कितने मासूम और लुभावने.......।
यूसुफ: अच्छा उठो, अब बहुत देर हो गई है......सालगिरह मनाने की तैयारी करो....।
(हड़बड़ाते हुए याकूब खां का प्रवेश, उसकी आवाज में घबराहट है...)
याकूब: आलीजा-आलीजा.......।
यूसुफ: क्या बात है याकूब? तुम्हारी आवाज में इतनी घबराहट क्यों है?
याकूब: हुजूर, बहुत ही बुरी खबर है .....। मैंने महल का चप्पा-चप्पा छान मारा, पर आप नहीं मिले
....। गुस्ताखी माफ हो, मुझे आपकी ख्वाबगाह तक आना पड़ा---।
यूसुफ: कोई बात नहीं है, याकूब खां । तुम यह बताओ कि माजरा क्या है?
याकूब: हुजूर, अभी-अभी खबर मिली है कि मुगल फौजें राजा भगवानदास की अगुवाई में पीर पांचाल को पार कर बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही हैं।
यूसुफ: क्या? फौजें आगे बढ़ रही हैं ...... इसका मतलब यह हुआ कि हमारे जवाब का अकबर ने इंतजार नहीं किया........।
याकूब: हां, हुजूर.......फौजें कल सवेरे तक कश्मीर की वादी में दाखिल हो जायेंगी ...... हमें कुछ करना होगा, आलीजा........।
यूसुफ: हूँ....... तो दिल्ली के शहंशाह अकबर ने एक बार फिर शेर की मांद में हाथ डालने का खतरा मोल लिया है........। इस बार फैसला होकर रहेगा, याकूब। ईंट से ईंट न बजायी तो हमारा नाम नहीं ....। जाओ याकूब, अपने जांबाज सिपाहियों को जंग के लिए तैयार करो ......। हम जिरह-बख्तर पहनकर अभी आते हैं.......। हब्बा, तुम्हारी सालगिरह मेरे लिए जवांमर्दी का पैगाम लेकर आई है........ मुझे खुशी-खुशी रुखसत करो........।
हब्बा: यूसुफ, मेरी आँख फड़क रही है........। कहीं ऐसा न हो कि यह हमारी आखिरी मुलाकात हो........।मेरी मानो तो मुझे भी अपने साथ ले चलो......यहाँ मैं तुम्हारे बगैर जिन्दा न रह सकूँगी..........।
यूसुफ: नहीं, हब्बा नहीं। तुम्हारी जगह जंग का मैदान नहीं, महलों की ख्वाबगाह है.....।दुश्मन ने घर की ड्योढ़ी पर आकर हमें ललकारा है...... उसे इसका माकूल जवाब मिलना ही चाहिए ....... मैं लौटूंगा और जीतकर लौटूंगा......। मेरा इंतज़ार करना ......। हमारी जीत का और तुम्हारी सालगिरह का जश्न एक-साथ मनेगा अब.......।
हब्बा: (भावुक होकर) मेरे मालिक, यह आंखें तब तक खुली रहेंगी जब तक आप आते नहीं हैं.......। मेरी मोहब्बत आपकी बाजुओं को कूवत बख्शे, आलाताला से यही दुआ है ........। मैं आपके लौटने का मरते दम तक इंतजार करूंगी ........मेरे सरताज,मरते दम तक इंतजार करूंगी....... मरते दम तक इंतजार ..........।
(संगीत)
(आदमियों का शोर, भीड़ का माहौल.)
एक आवाज: अरे-रे, यह देखो .......कोई भिखारिन गली में बेहोश पड़ी है .......।
दूसरी आवाज: हां-हां यह कल शाम से यहाँ पड़ी हुई है ........।
तीसरी आवाज: लगता है बचेगी नहीं........।
चौथी आवाज: हाँ-हाँ, बचेगी नहीं.........।
पहली आवाज: भई, कोई जाकर पानी तो ले आओ ........।
दूसरी आवाज: देखो-देखो, साँस अभी भी चल रही है।
सुखजीवन: हटो-हटो, पीछे हटो....... अरे, यह तो हब्बा है .........।
सभी आवाजें: क्या? यह हब्बा है । इस मुल्क की रानी हब्बाखातून!
सुखजीवन: हाँ-हाँ, हब्बाखातून! इस गांव की बेटी। ....आप सब लोग जरा पीछे हट। मैं इसे अपने घर ले जाता हूँ...... भाईजान, थोडी मदद तो करना इसे उठाने में....., ऐसे-बस, बस-यह रहा मेरा घर......।(हांफते स्वर में) बेटी आंखे खोलो, आंखें खोलो बेटी। देखो कौन है तुम्हारे सामने......?हे भगवान! हब्बा की यह हालत! महलों की महारानी इन फटे-पुराने कपड़ों में..........। नहीं-नहीं परमात्मा इतना कठोर नहीं हो सकता ....... ओफ! हब्बा बेटी, हब्बा, आँखें खोलो......।
हब्बा: (आवाज.में पीड़ा और सूनापन) क-कौन, कौन, उठा लाया मुझे यहाँ?
सुखजीवन: तुम बाहर गली में बेहोश पड़ी थी........मैं तुम्हें अन्दर अपने घर में ले आया हूँ बेटी। मुझे नहीं पहचाना? ....... अपने चाचा सुखजीवन को नहीं पहचाना? ........तुम्हारे बाप अब्दीराथर का दोस्त। तुम्हारा पड़ौसी सुखजीवन चाचा । ले बेटी, थोड़ा पानी पी ले.........। (पानी पीने की कोशिश)
हब्बा: (सिसकती आवाज में) सुखजीवन चाचा, जालिमों ने मेरा सब-कुछ लूट लिया चाचा, सब कुछ। उसे पकड़कर ले गये, ले गये चाचा। ........अब वह कभी नहीं आएगा.........। मेरा यूसुफ अब कभी नहीं आयेगा ....... बाप तो पहले ही खुदा को प्यारा हो गया था, अब महबूब भी छिन गया........।खुदा मुझे भी इस दुनिया से उठा लेता तो अच्छा रहता........।
सुखजीवन: म-मगर बेटी, यह सब हुआ कैसे ? सुलतान यूसुफशाह के महलों की रानी हब्बाखातून भिखारिन के इस भेस में! ........ नहीं, नहीं इन आंखों को यकीन नहीं होता ......... जल्दी बताओ बेटी, मेरा दिल फटा जा रहा।
हब्बा: चाचा, मेरा यूसुफ दिल का राजा था....... फन और मौसीकी का आशिक था वह ..........। सियासत के दाँवपेच उसे कभी रास नहीं आए .......।
सुखजीवन: हां-हां बेटी, यूसुफशाह तो सचमुच दिल का राजा था ......फिर, फिर क्या
हुआ? आगे बोलो बेटी ........
हब्बा: कुछ गद्दार मुशीरों और मनसबदारों ने शंहशाह अकबर की शह पर बंगावत कर दी .........।
सुखजीवन: अच्छा?
हब्बा: हां चाचा, मुगल सिपाहसालार राजा भगवानदास की अगुवाई में पाँच हजार घुड़सवार सिपाहियों ने कश्मीर पर धावा बोल दिया।
सुखजीवन: हाँ-हाँ इसके बारे में हमने सुना था।
हब्बा: चा-चा, मुजफराबाद के मुकाम पर जमकर जंग हुई ........खबर मिली कि दो दिन और दो रात तक तलवारें खनकती रहीं ......... झेलम का पानी खूब लाल हुआ, खूब लाल हुआ-खूब...........
(फ्लैश प्रारम्भ)
(युद्ध क्षेत्र ... युद्ध जारी है। पृष्ठभूमि में युद्ध के अनुकूल शोर एवं वातावरण......)
भगवानदास: जाकिर खां, यूसुफ ऐसी जांबाज़ी से लड़ेगा, हमें मालूम नहीं था....... हमें तो बताया गया था कि उसके पास ज्यादा फौजी ताकत नहीं है। मगर, मगर--- । यहां तो हमारी फौजों पर उसके जांबाज सिपाही कहर बरपा रहे हैं .......।
(युद्ध का शोर, चीख पुकार आदि)
जाकिर: हां, हुजूर, अगर यही हालत रही तो हमें मैदान छोड़ देना पड़ेगा.........।
भगवानदास: नहीं, मैदान छोड़ देने की नौबत हरगिज नहीं आनी चाहिए। इससे पहले कि हमारी फौजों का हौसला पस्त हो, हमें कोई तदबीर निकालनी होगी ........।
जाकिर: हुजूर, वह देखिए, उधर ......। दुश्मन का एक सिपाही हमारे दस-दस सिपाहियों से कैसे अकेले लोहा ले रहा है ........। देखिए हुजूर, झेलम का पानी कैसे लालम लाल हो गया है ........।
भगवानदास: तुम ठीक कह रहे हो जाकर खां, हमें फौरन कुछ करना चाहिए........। यूसुफ की फौजें तो सचमुच कहर ढा रही हैं .......।
जाकिर: मेरे ख्याल में गनीमत इसी में है कि यूसुफ के पास सुलहनामा भिजवाया जाए.....।
भगवानदास: हां, यही ठीक रहेगा इस वक्त........। जाओ, जंग रोक देने का ऐलान करो और यूसुफ को बाइज्जत हमारे पास ले आओ............।
जाकिर: मगर हुजूर, उससे मिलकर हमें क्या हासिल होगा?
भगवानदास: हम उस शेर-दिल सुलतान को शहंशाह अकबर के पास ले जायेंगे और उसे माकूल हरजाना दिलवायेंगे.......। बादशाह सलामत को ऐसे जांबाजो से मिलकर बहुत खुशी होगी। ....... जाओ, यूसुफ तक हमारा यह पैगाम अभी पहुंचाओ ....... अभी ........। ।
(फ्लैश समाप्त)
चाचा: अच्छा, तो यूसुफ शहंशाह अकबर से मिलने दिल्ली गया?
हब्बा: हां चाचा।वह मुगल हाकिमों की बात पर यकीन कर सुलहनामें पर दस्तखत करने के लिए दिल्ली गया.......।
चाचा: फिर, फिर क्या हुआ.........?
हब्बा: (गहरी सांस लेकर) मगर, वह एक फौजी-चाल थी जिसे मेरा भोला-भाला यूसुफ समझ न पाया....... अकबर ने वादा-खिलाफी की और यूसुफ को दिल्ली पहुंचते ही गिरफ्तार कर बिहार की जेल में भिजवा दिया गया।अब वह कभी नहीं आयेगा, चाचा कभी नहीं आयेगा........।
सुखजीवन: हिम्मत रख बेटी, हिम्मत रख, तेरा यूसुफ जरूर आयेगा, जरूर आयेगा।
हब्बा: (रोते हुए) दुश्मन की फौजों ने महल में जो जुल्म ढाए, उसे खुदा ही जानता है.........। मैं तो जान बचाती हुई मुश्किल से महल के पिछले दरवाजे से भेस बदलकर भाग निकली.........। दो दिन और दो रातें हो गई, पैदल चलते-चलते ........|
सुखजीवन: तू फिक्र न कर बेटी........। अब तू अपने गांव आ गई है.......। तेरा बाप अगर आज जिन्दा नहीं है तो क्या हुआ? मैं तो हूँ तेरा सुखजीवन चाचा।
हब्बा: नहीं, चाचा, मेरी सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया है।
सुखजीवन: तू हिम्मत से काम ले बेटी, तेरा यूसुफ आयेगा और जरूर आयेगा.......।
हब्बा: (खांसती है, आवाज डूबने लगती है.........) नहीं चाचा नहीं। मुझे झूठी तसल्ली मत दो........। देखो, देखो मेरी जिन्दगी की लौ अब बुझने वाली है........। याद है ना चाचा, तुम कहा करते थे कि मैं गीतों की रानी बनूंगी.........।
सुखजीवन: हां-हां बेटी, तेरी आवाज में तो अब भी वही जादू और मिठास है........।
हब्बा: (सिसककर) तुम नहीं जानते चाचा, तुम लोगों ने बचपन में जहाँ मेरी शादी की थी, वहां मेरी किसी ने कद्र नहीं की.......
सुखजीवन: म-मगर क्यों?
हब्बा: मैं दिन-भर खूब काम करती.......और रात को जब मैं गाने का रियाज करती तो मेरी सास और वह दोनों मेरे बाल पकड़ कर मुझे खूब पीटते......... चाचा खूब पीटते, चाचा खूब पीटते.......।
सुखजीवन: मगर, वह लड़का दिखने में तो बड़ा शरीफ लगता था........।
हब्बा: (रोते हुए) नहीं चाचा, नहीं.......। वह सब धोखा था.......। मैं सुबह से शाम तक घर के काम में लगी रहती....... नदी से पानी भर लाती....... ढेर-सारे बर्तन मांजती, मनों धान कूटती। फिर भी तूत की बेंत से वह लोग मुझे पीटते....... चाचा, तब मैं रात-रात भर खूब रोती और अपने मायके वालों को याद करती........।
सुखजीवन: मत रो बेटी, मत रो.........।
हब्बा: तब एक दिन मेरी किस्मत ने करवट बदली........। लकड़ियां बीनने के लिए मैं जंगल गई हुई थी। अपने दिल का बोझ हल्का करने के लिए मैं एक गीत के बोल गुनगुना रही थी......."ससुराल में मैं सुखी नहीं हूं मायके वालों मेरा दुख दूर करो"...... तभी शाहजादा यूसुफशाह वहाँ से गुजरा।
सुखजीवन: हां-हां बेटी, फिर क्या हुआ? हब्बा। उसने मेरे दिल की आवाज को पहचाना, मेरे दर्द को समझा और मुझे गले का हार बनाया.......। (गहरी सांस लेकर) चाचा मेरा वही यूसुफ मुझसे बिछुड़ गया........ बिछुड़ गया........चाचा।
सुखजीवन: बेटी, बहुत दुख देखे हैं तुमने । अब तू मेरे पास रहेगी.......। अपने चाचा
के पास । तू गायेगी और मैं तेरे गीतों को कागज पर लिखूगा....... तू एक बार फिर बुलबुल की तरह चहकेगी........ तू गीतों की रानी बनेगी, जरूर बनेगी........।
हब्बा: (डूबती आवाज) चाचा, तुम आदमी नहीं फरिश्ते हो........। इतना प्यार तो मुझे मेरे बाप से भी नहीं मिला......। (आवाज लड़खड़ाती है..........) चाचा, सच्ची इन्सानियत किसी मजहब में कैद नहीं होती, यह मैंने आज जाना.......। काश दुनिया के सब लोग यह बात जान पाते।
सुखजीवन: बेटी हब्बा, आंखे खोलो........।
हब्बा: चा-चा वह देखो, मेरा यूसुफ मुझे बुला रहा है ....... देखो चाचा, घोड़े पर
बैठा वह मुझे अपने पास बुला रहा है ........।
सुखजीवन: नहीं हब्बा, नहीं, तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकती........।
हब्बा: चाचा, मुझे जोर से चूम लो....... वैसे ही जैसे मेरी सालगिरह पर तुमने मुझे चूमा था.........।
सुखजीवन: (रोते हुए) बेटी.........!
हब्बा: मैं जा रही हूँ........चाचा, अपने यूसुफ के पास .......घोड़े पर बैठकर ।
सुखजीवन: नहीं बेटी-नहीं...........
हब्बा: मैंने कुछ गीत गाये हैं चाचा, उ-उन्हें संभाल कर र-खना। चा-चा।.........यही मेरी दौलत है ........काश, इस दुनिया में जंग नाम की कोई ... चीज नहीं होती ! अच्छा चा-चा !
सुखजीवन: (रोते हुए) बेटी!






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