हिंदी को ज़रूरत से जोड़ना ज़रूरी
डा० शिबन कृष्ण रैणा
हिंदी-दिवस हर वर्ष १४ सितंबर को मनाया जाता है। सरकारी कार्यालयों में,शिक्षण-संस्थाओं में,हिंदी-सेवी संस्थाओं आदि में हिंदी को लेकर भावपूर्ण भाषण व व्याख्यान,निबन्ध-प्रतियोगिताएं,कवि-गोष्ठियां पुरस्कार-वितरण आदि समारोह धडल्ले से होते हैं । प्रश्न यह है कि इस तरह के आयोजन पिछले लगभग सत्तर-बहत्तर सालों से होते रहे हैं। क्या हिंदी को हम वह सम्मानजनक स्थान दिला सके हैं जिसका संविधान में उल्लेख है? लोकप्रिय भाषा भले ही वह बन गयी हो मगर क्या अच्छी नौकरियां दिलाने में इस भाषा की कोई भूमिका है? कई सारी अच्छी नौकरियां दिलाने वाली प्रतियोगी-परीक्षाओं में आज भी हिंदी उपेक्षित है।हिंदी-आयोजन अपनी जगह और हिंदी की ‘वास्तविक उपयोगिता’ अपनी जगह। विज्ञान, मेडिकल, इंजीनियरिंग, प्रबंधन आदि विषयों में जब तक मूल-लेखन सामने नहीं आएगा,हिंदी का भविष्य अधर में ही झूलता रहेगा।
किसी भी भाषा का विस्तार या उसकी लोकप्रियता और उसका वर्चस्व तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक कि उसे ज़रूरत यानि आवश्यकता से नहीं जोड़ा जाता। यह ज़रूरत अपने आप उसे विस्तार देती है और लोकप्रिय बनाती है।हिन्दी को इस जरूरत से जोड़ने की सख्त आवश्यकता है। हिन्दी की तुलना में अंग्रेजी ने अपने को इस जरूरत से हर तरीके से जोडा है। जिस निष्ठा और गति से हिन्दी और गैर-हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य हो रहा है, उससे दुगुनी रफतार से अंग्रेजी माध्यम से ज्ञान-विज्ञान के नये-नये क्षितिज उदघाटित हो रहे हैं जिनसे परिचित हो जाना आज हर व्यक्ति के लिए लाजिमी हो गया है।अंग्रेजी ने अपने को जरूरत से जोड़ा है।अपने को मौलिक चिंतन, मौलिक अनुसंधान व सोच तथा ज्ञान-विज्ञान के अथाह भण्डार की संवाहिका बनाया है जिसकी वजह से पूरे विश्व में आज उसका वर्चस्व अथवा दबदबा है। हिन्दी अभी ‘जरूरत’ की भाषा नहीं बन पाई है।आज हमें इसका जवाब ढूंढना होगा कि क्या कारण है अब तक उच्च अध्ययन, खासतौर पर विज्ञान,तकनालॉजी, चिकित्साशास्त्र,प्रबंधन आदि के अध्ययन के लिए हम स्तरीय पुस्तकें तैयार नहीं कर सके हैं? क्या कारण है कि सी0डी०एस0,एन0डी०ए0 आदि प्रतियोगिताओं के लिए हिन्दी को एक विषय के रूप में सम्मिलित नहीं करा सके हैं? क्या कारण है कि बैंकिग-प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी एक विषय है, हिन्दी नहीं है? ऐसी अनेक बातें हैं जिनका उल्लेख किया जा सकता है।भाषण देने,बाज़ार से सौदा-सुलफ खरीदने या फिर फिल्म या सीरियल देखने के लिए हिंदी ठीक है,मगर अच्छी नौकरियों के लिए या फिर उच्च अध्ययन के लिए अब भी अंग्रेजी का दबदबा बन हुआ है।इस दबदबे से कैसे मुक्त हुआ जाय?निकट भविष्य में आयोजित होने वाले हिंदी दिवसों अथवा हिंदी पखवाड़ों के दौरान इस विषय पर भावुक हुए विना वस्तुपरक तरीके से विचार-मंथन होना चाहिए।एक बात और। निजी क्षेत्र के संस्थानों में हिंदी की स्थिति शोचनीय बनी हुई है और मात्र कमाने के लिए इसका वहां पर ‘दोहन’ किया जा रहा है? इस प्रश्न का उत्तर भी हमें निष्पक्ष होकर तलाशना होगा।संभवतः अंग्रेजी के महत्व और उसकी उपयोगिता को समझकर ही सरकारें भी अपने विद्यार्थियों के लिए ‘अंग्रेजी माध्यम’ के स्कूल खोलने के प्रयास में जुटी हुयी हैं ।
हिन्दी प्रचार-प्रसार या उसे अखिल भारतीय स्वरूप देने का मतलब हिन्दी के विद्वानों,लेखकों,कवियों या अध्यापकों की जगात तैयार करना नहीं है। जो हिन्दी से सीधे-सीधे आजीविका या अन्य तरीकों से जुडे हुए हैं, वे तो हिन्दी के अनुयायी हैं ही।यह उनका धर्म है, उनका नैतिक कर्तव्य है कि वे हिन्दी का पक्ष लें,हिंदी में काम करें और हिंदी का प्रचार-प्रसार करें।मैं बात कर रहा हूँ ऐसे वातावरण को तैयार करने की जिसमें भारत देश के किसी भी भाषा-क्षेत्र का किसान, मजदूर, रेल में सफर करने वाला हर यात्री, अलग-अलग काम-धन्धों सेजुड़ा आम-जन हिन्दी समझे और बोलने का प्रयास करे। टूटी-फूटी हिन्दी ही बोले, मगर बोले तो सही। यहां पर मैं दूरदर्शन और सिनेमा के योगदान का उल्लेख करना चाहूंगा जिसने हिन्दी को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। कुछ वर्ष पूर्व जब दूरदर्शन पर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ सीरियल प्रसारित हुए तो समाचारपत्रों के माध्यम से सुनने को मिला कि दक्षिण भारत के कतिपय अहिन्दी भाषी अंचलों में रहने वाले लोगों ने इन दो सीरियलों को बड़े चाव से देखा क्योंकि भारतीय संस्कृति के इन दो अद्भुत महाकाव्यों को देखना उनकी भावनागत जरूरत बन गई थी और इस तरह अनजाने में ही उन्होंने हिन्दी सीखने का उपक्रम भी किया। हम ऐसा ही एक सहज सुन्दर और सौमनस्यपूर्ण माहौल बनाना चाहते हैं जिसमें हिन्दी एक ज़रूरत बने और उसे जन-जन की वाणी बनने का गौरव उसे प्राप्त हो।
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